संस्मरण | बेड़ई-जलेबी का तोहफ़ा पाकर भावुक हो गए थे भगत के ख़लीफ़ा
इसके बाद उन्होंने कई मीटिंगों में अपने पुराने चेलों से मिलवाया. “जे हरिमोहन हैं. सुनारी का काम करते हैं….बड़े आदमी हैं….इनकी बला से, इनका ख़लीफ़ा जिये या मरे, इनकी कोई जिम्मेवारी नहीं. बड़े मादर…हैं जे.” चेलों के परिचय वह कुछ इसी अंदाज़ में कराते. ये सब आस-पास की बस्तियों में रहने वाले लोग थे. कोई सुनार का धंधा कर रहा था, कोई चाय की थड़ी लगा रहा था, कोई हलवाई के पेशे में जम गया था तो कोई ‘पेटी’ लेकर मोहल्ला-मोहल्ला हजामत बना रहा था. मैंने पाया कि उन सबके मन में ख़लीफ़ा को लेकर बड़ा प्रेम और सम्मान है. लम्बे समय से अपना ‘थोबड़ा’ न दिखाने की एवज़ में उन्होंने ढेर सी गालियां सुनाईं. चेले मुस्कराते रहे. कान पकड़ कर अपने व्यस्त हो जाने की मजबूरियों की टूटी-फूटी दास्तान सुनाते रहे और ख़लीफ़ा “…बहाने मती न बना भैनचो….” गालियां सुना-सुना कर बोलने से रोकते. गालियां उनकी ज़बान से चिपकी रहती थीं. ग़ुस्सा और दुलार – दोनों में वह इनका जमकर इस्तेमाल करते. काफी बाद में मुझे पता चला कि ख़लीफ़ा के चेलों और उनके मुरीदों के भीतर यह ‘विश्वास’ भरा था कि यदि ख़लीफ़ा की गालियां खा लो तो दिन बड़ा शुभ गुज़रता है. बहुत से लोग सुबह-सवेरे उनके दर पर आकर उन्हें भड़काने की कार्रवाई करते ताकि वह गाली-गुफ़्ता पर आमादा हो जाएँ. कई तो अपने इस स्वार्थ में उनका बीपी भी बढ़ा जाते.
“अच्छा चल, माफ़ कीना भैन के….अब हमारी सुन. पता है आज तेरे दरवज्जे पे किसको लाया हूं?” फिर वह मेरा हद से ज़्यादा लंबा चौड़ा ‘सीवी’ पेश करते. चेले उठ-उठ कर मेरे भी चरण छूते. कई तो मुझसे उम्र में बड़े थे. मुझे बड़ी झेंप लगती. मैं उन्हें रोकता. “अरे तुम्हारा आसिरवाद मिलेगा तो ढी का….. इंसान बन जाएगा.” इसके बाद ख़लीफ़ा हम लोगों की मीटिंग का मक़सद बताते.
“तैयार होज्जा. कमर कस ले. अब फिरकत्ता भगत होगी! नए टाइप में होगी! आगे तुम इसे ज्ञान दो.” वह बॉल को मेरी पिच पर उछाल देते. कोई एक पखवाड़े तक हम लोग उनके शागिर्दों से मिलते रहे.
एक शाम उनके यहाँ पहुंचे तो वह बड़े उदास थे. पूछने पर बोले “चेलों में तो भैन…. कोई हाथ ही नहीं धरने दे रहा. सालों के पास न करने के बहाने हैं. ख़लीफ़ा का कोई भी चेला भगत करने को राज़ी नहीं था. मुझे इस ‘अनहोनी’ का हल्का-फुल्का आभास था. दरअसल ‘भगत’ छोड़े उन्हें पचासेक साल बीत चुके थे. इस बीच वे दीगर काम-धंधों में उलझ गए थे. उनकी नयी दुनिया आबाद हो चुकी थी और अब वे उसे छोड़ कर वापस ‘भगत-वगत के झंझट’ में नहीं पड़ना चाहते थे. सबसे तो उन्हें भी उम्मीद नहीं थी लेकिन उन्हें भरोसा था कि आधे तो ज़रूर लौट आएंगे. दुर्भाग्य से सबने हाथ झाड़ लिए. उन्हें ‘सदमा’ सा लगा. माहौल में कुछ तनाव जैसा ठहर गया था.
काफी देर बाद मैंने इस सन्नाटे को तोड़ा “ख़लीफ़ा, बुड्ढों को भूल जाईये. भगत में बच्चों को ट्रेंड करने की तो बड़ी पुरानी रवायत है, क्यों न हम बच्चों के साथ शुरू करें?” वह कुछ देर शून्य में भटकते रहे. “क्या कहते हो ख़लीफ़ा?” कुछ देर ठहरकर मैंने फिर दोहराया.
“अरे यार उसमें तो बहुत टेम लगेगा.” वह जैसे चिड़चिड़ाकर बोले.
“जाने की जल्दी में तो आप दीखो नहीं…. और मेरी तो अभी उमर ही क्या है.” मेरी बात सुनकर उनके चेहरे पर मुस्कान उभरी. माहौल कुछ ढीला हुआ. स्टोव पर चाय का पानी चढ़ाया गया. वह सात साल की उम्र में भगत में शामिल होने के अपने क़िस्से सुनाते रहे. फिर उन्होंने नंदू का ज़िक्र छेड़ा. बहुत बचपन में वह उनकी शाग़िर्दी में आया था और सयाना होते-होते शहर का ‘भगत स्टार’ बना.
“उसके गले में सुरसती बसती थी.” उन्होंने भर्राये गले से कहा. नंदू बहुत जल्दी चल बसा था. उनकी बातचीत से लगा कि वह उनका बहुत प्रिय था. नंदू की दास्तान सुनाते-सुनाते वह भावुक हो गए.
तीसरे दिन मंदिर के पुजारी गणपत पंडित का फ़ोन आया. ख़लीफ़ा ने याद किया था. शाम का बुलौआ था. पहुंचा तो 5-6 बच्चे बैठे थे. सबने लपक कर मेरे पैर छुए. ख़लीफ़ा ने सबका परिचय दिया. “जे दीपक है, जे आकास, जे सिबम, जे लाला, जे संभू और जे अर्जुन.” ख़लीफ़ा ने बताया कि ये छह बच्चे अपनी ‘नयी भगत’ की तालीम लेंगे. सभी 9 से 11 साल की उम्र के बीच के थे. सुंदर, गोल, चिकने-चुपड़े चेहरे, उत्साह से लबरेज़. शंभू और आकाश सांवले थे, बाकी सभी गहरे गौर वर्ण वाले. सभी आस-पास की बस्तियों के थे. ख़लीफ़ा ने एक दिन पहले ही इनकी ‘तालीम’ शुरू भी कर दी थी. “चल रे आकास, बाजा निकाल.” उनके कहते ही कई बच्चे एक साथ हारमोनियम उठाने को दौड़ पड़े. छोटी सी कोठरी में भगदड़ मच गई.
“ओये………. .” ख़लीफ़ा ज़ोर से दहाड़े. ” …….. अब जरा शऊर की भी तालीम लेते चलो. जिसको जो कहा जाए बोई उसे करो.” हारमोनियम खुला. ख़लीफ़ा ने ‘दोहे’ की तान छेड़ी. इसके बाद बच्चों से एक-एक कर गवाया. बच्चों की एक दिन की तालीम. भला सुर तो क्या पकड़ पाते! अलबत्ता गले सबके बड़े मीठे थे. कोई पौन घंटे बाद बाजा बंद किया गया. ख़लीफ़ा ने ज़ोर का ठहाका लगाया. “आते रहे तो चल निकलेंगे.” बच्चे होशियार थे, उस दिन की चाय उन्हीं लोगों ने बनाई और हम लोगों के साथ पी. मेरी तरफ इशारा करके बोले “अब एक-दो दिन में सर जी तुम्हें एक्टिंग की तालीम भी देनी शुरू करेंगे.” एक्टिंग का नाम सुनकर सभी के चेहरे और भी दमक गए.
ख़लीफ़ा की तालीम महीनों-महीनों चली. मैं उन्हें अभिनय का प्रशिक्षण दे रहा था. मेरे अलावा वहाँ ‘रंगलीला’ का कोई न कोई और भी मौजूद रहता. यह हम लोगों के भगत पुनरुद्धार आंदोलन का आगाज़ था, जो आगे चलकर अपने उरूज़ पर आया हुए और इसने समूचे आगरा शहर को अपने आगोश में ले लिया. देखते-देखते खलीफा इसके लामुहाला कमांडर-इन-चीफ बन गए. यह सब बड़ा दिलचस्प है, इसकी चर्चा आगे.
इस दौरान बच्चों के साथ-साथ मैं भी भगत की परम्परा गायकी सीख रहा था. हालांकि ख़लीफ़ा ने मेरा कभी ‘मोंह नहीं भरा’ था (भगत परंपरा में नए शागिर्द को चेला बनाते समय सम्बंधित ख़लीफ़ा उसका मुंह लड्डू से भर देते थे, जिसे ‘मोंह भरने की रसम’ कहते हैं.) लेकिन तालीम के दौरान या कभी भी, मुझे ‘भगत’ गायकी की बारीकियां बताते रहते थे. मैं उन्हें बदलते देस की तस्वीर का अक़्स दिखाता रहता. उन्हें अख़बार की ज़रूरी ख़बरों से लेकर संपादकीय पन्ने के तमाम तरह के लेख पढ़कर सुनाता. मैं उन्हें हिन्दी साहित्य में चल रहे तमाम ऊंच-नीच से वाक़िफ़ कराता. अक्सर वह कहते “यार, तुम अगर 30 साल पहले मिल गए होते, मैं पढ़ा-लिक्खा बन जाता.” नए लोगों से परिचय में वह मेरी तरफ इशारा करते हुए कहते – “हम दोनों एक दूसरे के गुरू और चेले हैं.” यद्यपि मैंने ख़ुद को उनका गुरू कहने की धृष्टता कभी नहीं की. मैं उनका परिचय अपने गुरू के रूप में ही देता, क्योंकि मैं उनसे परंपरागत ‘भगत’ सीख रहा था.
इस दौरान उनका अलग तरह से विकास हो रहा था जो मेरे इस यक़ीन को पुख़्ता कर रहा था कि सीखने की कोई उम्र नहीं होती. किसी भी नए व्यक्ति से मुलाक़ात में, अगर ज़रूरी लगता तभी वह प्रभावित होते, सामने वाले को तो वह प्रभावित कर ही डालते थे. कला समीक्षक प्रयाग शुक्ल से लेकर लेखक असग़र वजाहत तक और नाट्यशिल्पी बंसी कौल से लेकर रंगकर्मी अरविन्द गौड़ तक, बहुत से लोगों से वह प्रभावित हुए और उन्होंने अपने लोक कला ज्ञान से उन्हें प्रभावित किया.
बच्चों को ‘भगत’ की तालीम हासिल करते साल भर से ज़्यादा हो गया था. छह में से पांच थे, जो बेहद सुरीला गायन करते थे. अलग-अलग सुरों की पकड़ वे सीख चुके थे. ‘दोहा’ हो, ‘चौबोला’ हो, ‘लावनी’ हो या बहर-ए-तबील, याकि फिर ‘ग़ज़ल’ अथवा ‘क़व्वाली’, वे हर राग-रागिनी का गायन पांचवें काले से शुरू करते और इस तरह पूरा मंदिर हिला डालते थे.
ऐसे ही एक दिन हम लोग बैठे थे, बात उठी कि अब इन बच्चों को लेकर एक ‘भगत’ की जाए. “नई भगत आएगी कहाँ से? लिक्खेगा कौन?” ख़लीफ़ा ने अचकचाकर पूछा. “आप लिखेंगे,“ मैंने झटपट जवाब दिया. “मैं तो पुरानी भगत का आदमी हूँ, नयी कैसे लिक्खूँगा?” वह तपाक से बोले.
मैंने उन्हें गैंग रेप की थीम पर एक कहानी बुन कर सुनाई. एक बाहुबली समूह द्वारा बलात्कार की शिकार एक लड़की और उसकी दुखिया मां की कहानी थी यह. पुलिस, कोर्ट, कहीं से उन्हें जब न्याय नहीं मिलता तो वे समाज को गोलबंद करती हैं. थीम ख़लीफ़ा को बहुत पसंद आई. उन्होंने आकाश और शिवम को बोल-बोल कर सप्ताह भर में पूरी स्क्रिप्ट लिखवा दी. भगत का उन्होंने शीर्षक रखा- आज का नेता. शीर्षक मुझे पसंद नहीं था, तब भी मैंने कोई दख़लंदाज़ी नहीं की. रेसकोर्स के घोड़ों की तरह बच्चे छूट पड़ने को तैयार थे, लिहाज़ा तालीम शुरू होने के दो हफ्ते में ही उन्होंने पूरी स्क्रिप्ट याद कर ली. वे मस्त होकर गा रहे थे, वक़्त लगा उन्हें अभिनय वाले भाग को तैयार करने में. बहरहाल, कोई डेढ़ महीने की तैयारी के बाद, सन् 2009 की दीपावली से ठीक दो दिन पहले, पुनियापाड़ा के चौक में कई सारे तख़्तों को बाँध कर पाड़ (मंच) तैयार हुआ. चार-पांच सौ दर्शकों की मौजूदगी और हेलोजन की तेज़ रोशनी में ‘भगत’ का मंचन हुआ.
यह सही है कि ख़लीफ़ा ‘नए दौर की नयी भगत’ का खेल रचाने निकल पड़े थे लेकिन थे तो वह मूलरूप से पुरानी भगत के ही बाशिंदे. भीतर ही भीतर उन्हें धुकधुकी लगी थी कि इस क़िस्म की भगत दर्शकों को स्वीकार्य होगी की नहीं. ख़ैर ‘भगत’ अच्छे से संपन्न हो गई. हालाँकि उसमें ढेर सी ख़ामियां थीं फिर भी वहाँ मौजूद दर्शकों ने (जिसमें ज़्यादातर ने अपने जीवन में पहली बार ‘भगत’ देखी थी) इसे जमकर सराहा. पचास साल बाद ‘भगत’ का मंच सजा था, लिहाज़ा आगरा के अख़बारों ने उसका ज़बरदस्त स्वागत किया. अगली सुबह मोहल्लों की स्त्रियों और लड़कियों ने ख़लीफ़ा को घेर लिया. वे सभी ‘बाबा’ को धन्यवाद देने आई थीं, जिन्होंने उनकी ज़िंदगी के सबसे बड़े ख़तरे को मंच पर उजागर किया था. वे ख़लीफ़ा के नाश्ते के लिए गरमागरम बेड़ई, आलू का साग और जलेबी लाई थीं. ख़लीफ़ा भावुक हो गए. दोपहर जब मैं उनके पास पहुंचा तो सुबह का विवरण देते-देते उनकी आँख से आंसू भर आए. “बई सुकला जी, तुम्हें तो नई भगत का साटीफिकट मिल गया. तुम तो पास हो गए,” अपनी आँख की कोरों पर बह आए आंसू पोंछते हुए वह बोले.
खलीफ़ा का यह उत्साह कई दिनों तक बरक़रार रहा और उत्साह की इसी बेला में उन्होंने एक दिन नई भगत की घोषणा कर दी. वह बोले, “पढ़ाई-लिखाई कित्ती जरूरी है, मुझसे ज्यादा कौन जानेगा?” उन्होंने एक सप्ताह में साक्षरता पर एक भगत ‘लिख’ डाली. सुनने के बाद मैंने कहा “ख़लीफ़ा यह है तो अच्छी लेकिन गौरमेंट का साक्षरता अभियान प्रोपेगंडा वाली लगती है, आधी अधूरी.” वह चुपचाप मेरी बात सुनते रहे. “अगर गौरमेंट पढ़ने की कहे तो क्या बुराई?” उन्होंने पूछा. उनके स्वर से लगा कि उनको मेरी आलोचना पसंद नहीं आई.
मैंने उन्हें समझाया ” हम लोग कलाकार हैं ख़लीफ़ा. हमारा कर्तव्य समाज में जाग्रति का सन्देश देना है. इसमें चाहे सरकार का फ़ायदा हो या न हो. एक अशिक्षित व्यक्ति साक्षर क्यों बने? इसलिए नहीं कि वह साक्षर बन कर नीम की दातुन की जगह टूथपेस्ट पकड़ ले. वो इसलिए पढ़ाई करे ताकि लिख-पढ़ कर अपने अधिकारों को जान सके और फिर हासिल न कर पाने पर उनके लिए लड़ाई लड़ सके.”
वह काफी देर हूं हां करते रहे.
दो दिन बाद जब मैं उनके पास पहुंचा तो ख़लीफ़ा फिर पुरानी रंगत में थे. उन्होंने कहानी को नए सिरे से लिखवा डाला था. “अब बताओ तुमने मुझे फेल किया कि पास.” मैं मुस्कराया. ज़ाहिर है वह मुझे मुस्कराता देख कहाँ पाते. उन्होंने फिर पूछा “तुमने मेरे सवाल का जवाब न दिया?” मैंने उनके कंधे पर धौल जमाते हुए कहा, “अरे ख़लीफ़ा आपको फेल करने की औक़ात मेरी कहाँ? इस बार आपने लेकिन डिस्टेंकशन नम्बर लाने का काम किया है.”
“बो क्या होता है ?”
“मतलब सौ में पचहत्तर को कहते हैं, आप ने तो इस बार पिच्चानबे नंबरों वाला काम कर दिया है.”
वह फिस्स से हंस कर बोले “मर भैंचो, पांच नम्बर फिर भी कट गए.”
मैं ठहाका मार कर हंसा.
“कसम से, परसों तुम्हारी बात मुझे अच्छी न लगी. फिर सोचा कि तुम दरअसल जो बात कह रहे हो उसका मतलब क्या है. साम तक मेरे ज्ञान चच्छु जागे. अरे मैंने कई, सुकला जी तो बड़ी बात कह गए ख़लीफ़ा और तू मूरख उसे समझा ई नहीं. बस कल इतवार था, सुबेरे से ही सिबम को बुला लाया. रात तक छोरे ने लिख डाली.”
भगत ‘कल का इंडिया’ बड़ी धूमधाम से पुनियापाड़ा की आलीशान ‘गांडे वाली बगीची’ में भव्य मंच बनाकर खेली गई. लगभग दो हज़ार दर्शकों से खचाखच भरे ‘बगीची’ के मैदान में सजाये गए दिव्य और भव्य मंच पर भगत हुई. पहली और इस ‘भगत’ के कलात्मक स्तर में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ था.
अगली घटना ‘भगत’ के चार सौ साल के इतिहास की जो अनहोनी थी, वह था भगत में महिला कलाकार का प्रवेश. एक मीटिंग में जब ख़लीफ़ा के सामने यह प्रस्ताव आया तो सुनकर वह ‘ऊल’ गए. “अरे यार तुमसे तो कोई कुछ कहेगा नहीं, स्साले (दूसरे अखाडों के ख़लीफ़ा) मुझ पर जूत बरसाएंगे.” बहरहाल, इस प्रस्ताव को स्वीकार करने में उन्होंने शुरूआती ना-नुकुर ही की थी. पहले भी वह कहते थे कि “लौंडिया जब चाँद पे जा सकें तो भगत चों ना खेल सकें.”
इस तरह हिमानी ‘भगत’ के चार सौ साल के इतिहास की पहली ‘शागिरदिन’ थी, जिसका ‘मोंह भरने’ की रस्म अदा हुई. हिमानी चतुर्वेदी ‘रंगलीला’ से जुड़ी थीं और अद्भुत गले की मालकिन थीं. वह अक्सर ख़लीफ़ा के यहां आती-जाती थी और वह उसे बड़ा स्नेह करते थे. उसके नाम का जब प्रस्ताव आया तो वह सहर्ष तैयार हो गए.
आगरा के मशहूर ‘ताज महोत्सव’ में भगत ‘कल का इंडिया’ की प्रस्तुति हुई. कल्लू की मां की भूमिका में हिमानी ने अकल्पनीय अभिनय किया. खचाखच भरे ‘सूरसदन’ ऑडिटोरियम के दर्शक पहली बार भगत देख रहे थे और वह भी ऐसी लाजवाब हो रही थी.
सिनेमा की भाषा में जिसे ‘बॉक्स ऑफिस हिट’ कहते हैं, कुछ-कुछ वही बात हमारी भगत ‘मेरे बाबुल का बीजना’ पर लागू होती है. यह मूल रूप से की गई हमारी भगत ‘आज का नेता’ का परिवर्धित और भव्य रूप थी. अतिरिक्त संवाद वरिष्ठ कवि शलभ भारती ने लिखे थे जो हमारी इस मण्डली के स्थायी सदस्य थे. इस भगत की प्रस्तुतियां दिल्ली और लखनऊ सहित अनेक शहरों में कई-कई बार हुई थी. दिलचस्प तथ्य यह है कि गैंग रेप की इस मार्मिक कहानी को देखने वाले अपने आंसुओं को रोक नहीं पाते थे. यह महज़ इत्तिफ़ाक़ है कि इसकी प्रस्तुतियां दिल्ली के ‘निर्भया काण्ड से दो साल पहले से शुरू होकर 2017 तक चलती रहीं.
‘बीजना’ ब्रज भाषा में हाथ से झलने वाले पंखे को कहते हैं. शीर्षक मेरा खोजा हुआ था लेकिन यह ब्रज के एक मशहूर लोक गीत ‘जाने को ले जाय चुराय, मेरे बाबुल का बीजना’ की अनुकृति था. समूचे ब्रज अंचल में करोली माता (राजस्थान) की ‘जात’ में जाने वाली लाखों महिलाओं के समूह आज भी 145 किलोमीटर के सारे रास्ते इसे गाते हुए जाती हैं और गाते हुए ही लौटती हैं. कोई नहीं जानता कि 50 के दशक का यह गीत किसका लिखा था. हमारी ‘भगत’ की प्रस्तुतियों और मीडिया में उसकी रिपोर्टिंग के बाद लोग जान सके कि गीत ख़लीफ़ा फूलसिंह यादव ने लिखा है. ‘भगत’ में इस मुखड़े से एक नया गीत रचा गया था जो अंत में ‘कर्टन कॉल’ के रूप में गाया जाता था. ‘बीजना’ का उपयोग नारी शक्ति के एक ‘मेटाफ़र के रूप में सुन्दर तरीके से से किया गया था.
और फिर जैसे इतिहास का चक्र आगे बढ़ता ही गया. मोहल्लों, स्कूलों और कॉलेजों में ‘भगत’ की कई सारी ‘वर्कशॉप’ हुईं. बहुत से नए युवा शामिल हुए. नेहा, काजल, कोमल, जिस भगत में लड़कियों का आना निषिद्ध था, वहां शानदार गायन और अभिनय वालियों का समूह खड़ा हो गया. आगरा से बाहर निकल कर प्रस्तुतियां देने का सिलसिला शुरू हुआ. लखनऊ, दिल्ली – हम शहर दर शहर नापने लगे.
साल दर साल गुज़रते गए. हमारी प्रस्तुतियों में एक ओर जहां ख़लीफ़ा के पुराने बुज़ुर्ग कलाकार पतोलाराम और लक्ष्मण जैसे लौट आए थे, वहीँ योगेंद्र दुबे जैसे आधुनिक रंगमंच के अभिनेता और राकेश यादव जैसे शानदार और जानदार गले वाले अभिनेता इसे बुलंदियों पर ले जा रहे थे, गोपाल जैसे युवा संगीतकार के उदय के साथ ही हमारी भगत में संगीत का एक और नया विकल्प तैयार हो गया. ख़लीफ़ा 94 बरस पार कर चुके थे. उनका स्वस्थ अक्सर उन्हें परेशान करता रहता था. उनकी किडनी ‘’सुसरी’’ दिक़्क़त कर रही थी.
चोट लगने से मेरे कूल्हे की हड्डी टूट गयी थी. वह रवि के साथ रिक्शे में बैठकर मुझे देखने आए. “ऐसा करते हैं, के तालीम यहीं तुम्हारे यहाँ ही डाल लेते हैं. तुम लेटे-लेटे देखते रहना,” मुझे चिंतातुर देख कर वह बोले. तीसरे दिन यानी सन् 2015 की 4 अगस्त, दिन मंगलवार को सुबह 6 बजकर 20 मिनट पर, रवि का फ़ोन आया. वह ज़ोर-ज़ोर से हिचकियाँ ले रहा था.
ख़लीफ़ा हम सबसे विदा ले चुके थे.
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