अलीगढ़ः जाने किसकी लगी नज़र

  • 10:44 am
  • 18 October 2019

ताले, तालीम और तहज़ीब की याद दिलाने वाले इस शहर को जाने किसकी नज़र लगी कि अब इसे दंगे और उपद्रव से जोड़कर पहचाना जाने लगा है . संगीत सम्राट स्वामी हरिदास का अलीगढ़, मजाज़ और शहरयार का अलीगढ़, इतिहासकार इरफ़ान हबीब का अलीगढ़, संवेदनाओं के चितेरे नीरज का अलीगढ़, अतरौली के दशहरी आमों वाला अलीगढ़ – ऐसे नामों की एक लंबी फ़ेहरिस्त है जिनकी सीरत से देश-दुनिया में पहचाना जाता रहा है यह शहर और जिन पर नाज़ करने वाले अब भी इस शहर में मिल जाते हैं . फिर क्या हुआ जो शोहरत की इस चादर पर बदनुमा दाग़ ज़ाहिर होने लगे हैं?

यूं तो हर शहर की बसावट के मुताबिक़ नया और पुराना शहर होता ही है, यहां भी है. जाने कब ऐसा हुआ कि नई चुनी गई ईंटें फ़िरक़ों में बंट गईं और बटीं भी तो ऐसी कि इन ईंटों से तामीर मकानों में रहने वालों के ज़ेहन भी बंट गए. कुर्सीनशीं नेताओं के सार्वजनिक भाषणों को छोड़ दें तो यह फ़र्क़ बेहद साफ़ है और यहां के बाशिंदों को भी यह साफ़ नज़र आता है. भगवा अक्षरों में शहर को हरिगढ़ के नाम से पहचानने की ज़िद है तो बाक़ी के लिए सवाल अलीगढ़ की पहचान का है. इस होड़ में, इस ज़िद में शहर ने कितना कुछ तो खोया है.

दिल, दिमाग़ और दंगे

घंटाघर पर लगा पत्थरः शहर के हिन्दू और मुसलमान रईसों के चंदे से यह घंटाघर तामीर कराया गया.

अभी इसी साल जनवरी में पहले पहल जब इस शहर पहुंचा तो एक अदद डेरे की खोज शुरू हुई. तमाम दोस्त- अहबाब ने बताया फ़्लैट मिलना मुश्किल है और मिलेगा भी तो बहुत मंहगा. इस बात पर यक़ीन तब हुआ जब सुनील सिंह बड़ी मुश्किल से क्लासिक होम में एक ख़ाली फ़्लैट तलाश कर पाए. तीन कमरे और किराया नौ हज़ार रुपये. कुछ ही दिन बाद शहरयार से मिलने उनके घर जाना हुआ. मेडिकल रोड पर सफ़ीना अपार्ट्मेंट में जहां वह रहते हैं, वहां क़तार से ढ़ेरों अपार्ट्मेंट दिखे. फ़ोटोग्राफ़र नदीम साथ थे. उनसे पूछा कि जब यहां इतने सारे फ़्लैट हैं तो उन्होंने मुझे पहले क्यों नहीं बताया? तुरंत जवाब मिला, ‘आप यहां नहीं रह सकते थे. यहां मियां भाई रहते हैं.’ सन्न रह गया शहर के इस परिचय से. बरेली, जौनपुर, इलाहाबाद, भोपाल और उदयपुर जैसे तमाम शहरों के नाम याद कर डाले. उन शहरों में भी तो मुसलमानों की बड़ी आबादी बसती है मगर रिहाइश का इस तरह बंटवारा वहां तो नहीं देखा. नदीम के उस बेसाख़्ता जवाब के मायने धीरे-धीरे समझ आए, डार्करूम में डेवलपर की ट्रे में पड़े काग़ज़ के सफ़ेद टुकड़े पर उभरती तस्वीर की तरह.

कुछ ही दिनों बाद शहर में दंगा हो गया. दंगा लफ़्ज़ ही अपने आप में किस क़दर ख़ौफ़ पैदा करता है, यह उन दिनों रेलगाड़ी में सफ़र करने वालों के कुनबे की फ़िक़्र से भी समझा जा सकता है. स्टेशन पहुंचने वाली तमाम ट्रेनों के डिब्बे बंद मिलते और मुसाफ़िरों के घर वाले उनके मोबाइल पर फ़ोन करके अलीगढ़ से सही सलामत गुज़र जाने की ख़बर ज़रूर ले लेते. ख़ौफ़नाक ख़बरें-अफवाहें आपस में गड्डमड्ड होकर और दहशत पैदा करतीं. शहर बाक़ायदा दो हिस्सों में बंट गया – पुल पार यानी रामघाट रोड, मैरिस रोड, मेडिकल रोड, सिविल लाइंस, दोदपुर और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी वाला कर्फ़्यू से अछूता इलाक़ा और इस पार के इलाक़े में कर्फ़्यू का सन्नाटा, पुलिस, पीएसी और रैपिड एक्शन फ़ोर्स के जवानों की सरगर्म आवाजाही.

छह अप्रैल को कर्फ़्यू की शुरूआत वाले रोज़ शाम को नदीम एक फ़ोटो खींचकर लाए. कठपुला और रेलवे स्टेशन के बीच बरछी बहादुर की दरगाह पर हाथ जोड़कर खड़ी हुई एक महिला की तस्वीर. पल्लू से ढंका हुआ सिर और सामने से झांकती सिंदूर की मोटी रेखा. उसी शाम गांधी पार्क चौराहे पर पुराने बस अड्डे के पास चामड़ देवी के मंदिर पर प्रसाद के लिए भीड़ थी. यहां से आगे शहर में कर्फ़्यू था. दो हफ़्ते तक कर्फ़्यू रहा. बहुत कुछ झेला यहां के बाशिंदों ने. ज़ाहिर यह भी हुआ कि वे कौन हैं, कैसे सोचते हैं और दरअसल उन्हें कैसे सोचना चाहिए? कहीं उपद्रव-हिंसा में लोग घायल होते तो हिन्दू इलाज के लिए ज़िला अस्पताल पहुंचाए जाते और मुसलमान एएमयू के जे.एन.मेडिकल कॉलेज में. दंगे में मारे गए मुसलमानों को एएमयू के क़ब्रिस्तान में जगह मिली क्योंकि बाक़ी शहर में तो कर्फ़्यू था. दोनों पक्ष के नेता निर्विकार भाव से मरने वालों और घायलों की तादाद का हिसाब लगाते और बताते कि अभी तो और होगा, हिसाब बराबर होना है. इस तरह के हिसाब पर हैरत जताने वाले को तुरंत जवाब देते, ‘यहां तो यह होता आया है. पिछले दंगों में भी ऐसा ही हुआ था, उससे पहले और उसके भी पहले.’ दंगों का ब्योरा उन्हें ज़बानी याद है. लेकिन यह सब प्राइवेट महफ़िलों में होता. बाहर तो दोनों ही पक्षों के नेता भाईचारा, निरपेक्षता, मदद और हिफ़ाज़त जैसे इंसानी जज़्बे की मुनादी करते घूमते. सबको अंदाज़ था कि यह सब आने वाले चुनावों में काम आएगा. बहुत से शहरियों को भी पता था कि मुश्किल के दिनों के ये नारे वक़्ती हैं और फिर नेता इन्हें हिफ़ाज़त से रख देंगे किसी अगले मौक़े पर इस्तेमाल के लिए. कुछ-कुछ वैसे ही जैसे व्यवस्था की संगीनें, आंसू गैस के गोले और रायफ़लों की गोलियां.

यों ऐसे लोग भी थे जो सचमुच फ़िक़्रमंद थे. मगर वे करते भी तो क्या? ऐसे लोगों के पास न तो कैडर होता है और न ही संसाधन फिर कैसे मुक़ाबिल होते. हमख़्यालों को जुटाया, एक कैंडिल मार्च निकाला और सेंट्रल प्वाइंट पर गणेश शंकर विद्यार्थी की प्रतिमा के आगे इकट्ठे होकर अमन की अपील की. इन्हें शहरियों की अक़्ल पर पूरा एतबार था, एकता-अखंडता टाइप बातें करते और फिर से सब कुछ सामान्य हो जाने का यक़ीन रखते. इस बात पर ग़ौर किए बिना ही कि अगर मन से कहीं अलगाव है भी तो कर्फ़्यू कोई फ़ेवीक्वीक तो है नहीं कि टूटा कुछ भी हो तुरंत जोड़ देगा. ऐसे लोग इस बात से ग़ाफ़िल रहे कि लाठी के बूते टूटे दिलों को जोड़ने की ऐसी कोशिश तो वही कर सकता है, जिसके पास दिल ही न हो. जो दूर लखनऊ में बैठकर, अलीगढ़ में सब कुछ ठीक-ठाक है, की ख़बर पूरे देश को बताकर आश्वस्त कर सकता है .

अनुभवी नेताओं का अंदाजा सही निकला. अभी एक महीना बीता ही था कि फिर दंगा हो गया. इस बार निशाने पर हिन्दूवादी अगुवा थे. पूरा महीना कर्फ़्यू के साये में गुज़रा. कौन जाने पुरानी रवायत के मुताबिक हिसाब बराबर हो गया हो. मगर इन दिनों में कुछ और चेहरों का सच नुमांया हुआ. दुनिया भर में शहर की नाक कहलाने वाले ये चेहरे अदब की महफ़िलों में बेहद अदब से मिलते हैं. किसी अख़बार वाले ने शहर के हालात पर उनकी राय पूछ ली. वक़्त शाम का था और मामला ‘सूरज नदी में डूब गया हम गिलास में..’ टाइप हो चुका था सो बड़े इत्मीनान से बोले, ‘माफ़ करें इस वक़्त तो मसरूफ हूं,आपके किसी सवाल का जवाब नहीं दे पाऊंगा.’ उनकी इस बेफ़िक़्री से किसी को भी यह गुमान हो सकता है कि जुए और शराब की सोहबत न होती तो कौन कहे ग़ालिब मामूली से असदुल्लाह खां ही रह जाते. मगर इतना तो यक़ीन है कि इन हालात में अगर ग़ालिब से कोई अख़बारनवीस टकरा जाता तो उनके क़द्रदानों को कम से कम एक अदद शेर और मिल जाता.
एक और हजरत हैं बड़े ज़हीन, बड़े आलिम और बड़े ही बेबाक. उनकी दानिशवरी का लोहा सारी दुनिया मानती है और इस शहर के बाशिंदे उनकी बेबाकी के क़ायल हैं. पूछा गया तो जवाब यूं दिया कि हमारे इलाके में तो कर्फ़्यू है नहीं फिर शहर के हालात कै बारे में मैं क्या कह सकता हूं? यानी एक ही शहर में हर किसी के अपने-अपने शहर. सब अपनी-अपनी दुनिया में मशगूल. उनकी अपनी दुनिया की रंगीनी बरक़रार है, शगल में कोई दख़ल नहीं, फिर किसे ग़र्ज़ कि बाक़ी के शहर की फ़िक्र में अपना चैन खोये. बाद के दिनों में इन्हीं हजरत को लेबनान के हालात पर ख़ासा फ़िक्रमंद होते देखा गया. कुछ चंदा-वंदा भी जुटाया उन्होंने, हालात के मारों को इमदाद के लिए.

एकता के गाने और बंटवारा साफ़
हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा… जैसे गीत कई दिनों तक शहर के हर इलाके में सुने गए. मेरे देश की धरती सोना उगले.. जो शहीद हुए हैं उनकी ज़रा याद करो क़ुर्बानी, मेरी आवाज़ सुनो.. और ऐसे ही तमाम फ़िल्मी गानों का शोर इस क़दर बढ़ा कि सड़क पर दोपहिया चलाते हुए मोबाइल पर बात करने के लती लोगों की शामत आ गई. कौन जाने हिन्दी फ़िल्मों के लिए अगर ये गाने न लिखे गए होते तो अपने यहां चुनाव कैसे लड़े जाते? चुंगी (अदब से नगर निगम) के चुनाव में किसकी शहादत का चर्चा करके भाई लोग वोट मांगते हैं, पता नहीं? रही सोना वगैरह उगलने की बात तो यहां खुदाई से सिर्फ़ नाले बने हैं और सड़कों पर जहां-तहां खुदे गड्ढ़ों की वजह से रात-बिरात चलने वालों के मुंह टूटते आए हैं. गंगा भी नरौरा होकर बहती है, इस देस को तो उसने छुआ भी नहीं है. बात गानों तक ही नहीं रह गई . शिल्पा शेट्टी, निशा कोठारी, अमृता अरोड़ा, चंकी पांडे, संजय कपूर, नवीन प्रभाकर भी मंगाए गए. ये सब एक ही शख़्स के बुलावे पर आए और वह हैं – आशुतोष वार्ष्णेय. पहले भी मेयर रहे हैं, बड़े कारोबारी हैं और भाजपा के कद्दावर नेता माने जाते हैं. सारे फ़िल्म वाले अख़बार वालों को यह बताना नहीं भूले कि वे आशुतोष जी के बेटे या उनकी बहू के पुराने मित्र होने के नाते प्रचार करने आए हैं. चुनाव ख़र्च की सीमा दस लाख रुपये है. ऐसे में सितारों से यह सब कहलाकर अख़बारों में छपा लेना काफी सेफ़ है. इस सितारों की किसी महफ़िल में मौजूदगी या ठुमका लगाने की फ़ीस जगज़ाहिर है. दोस्ती की ख़ातिर मुंबई छोड़कर धूप में कुम्हलाने के लिए यहां आ गईं बेचारी शिल्पा को तो आधे रास्ते में ही गश आ गया. सो शहरियों की बड़ी तादाद उनका भाषण सुनने से वंचित रह गई .

ख़ैर, अपने प्रचार से शहर भर में छाए रहे आशुतोष वार्ष्णेय को ईद वाले रोज़ ईदगाह पर जुटे नेताओं की भीड़ में नहीं देखा गया, न ही दूसरी पार्टियों की तरह उनकी पार्टी का कोई कैंप. अलबत्ता अगले रोज़ उनकी तस्वीर के साथ ईद पर शहरियों को बधाई का विज्ञापन अख़बारों में ज़रूर छपा. शहर के पुराने पत्रकार मोहनलाल दीक्षित बताते हैं कि उनकी पार्टी का कोई नेता कभी नहीं जाता. बात सिर्फ़ ईदगाह की नहीं, उन इलाकों की भी है जो आबादी की बहुलता के आधार पर पहचाने जाते हैं. चुनाव चाहे स्थानीय निकाय के हों, संसद या फिर विधानसभा के. और सिर्फ़ हिन्दुवादियों कै साथ ही ऐसा नहीं है, कई मुस्लिम प्रत्याशी भी ऐसे हैं, जो हिन्दू बहुल इलाक़ों का रुख़ नहीं करते बशर्ते कांग्रेस या समाजवादी पार्टी के न हों. यानी ऊपरकोट के चंदन सईद जैसे इलाक़े एक के लिए प्रतिबंधित और बारहसैनी स्ट्रीट, मानिक चौक इलाक़े दूसरे के लिए. बक़ौल मोहनलाल काफी पुरानी बात है जब कट्टर हिन्दूवादी नेता के.के.नवमान विधानसभा के लिए चुनाव प्रचार करने नई बस्ती चले गए थे. वहां लोगों से कुछ कहासुनी हो गई. बाद में प्रचार के लिए मानिक चौक गए ख़्वाज़ा हलीम के कपड़े फट गए. ऐसे में जब राजनाथ सिंह फ़रमाते हैं कि हिन्दू-मुस्लिम हिन्दुस्तान तो लगता है कि कहीं और के बारे में बता रहे होंगे.

नेता जानते हैं कि पब्लिक वायदों से ख़ुश होती है तो किसी ने वायदा किया कि नोएडा जैसी ख़ुशहाली लाएंगे (गोया नोएडा इस आर्यावृत में सबसे ख़ुशहाल जगह हो), किसी ने कहा कि शहर को दंगा और गंदगी से मुक्त करा देंगे (गंदगी से उनका आशय कूड़े-कचरे के ढे़र से ही होगा), कोई बोला कि फ़िल्मी सितारों को घुमाने से कुछ नहीं होगा (यह बताना ज़रूरी नहीं लगा कि आख़िर होगा काहे से). किसी ने जातिवादी सभा-संगत की ओर से अपने पक्ष में अपील जारी कराई तो किसी ने कांग्रेस प्रत्याशी के पहले कभी बीजेपी को दिए गए चंदे की रसीद खोज निकाली. चुनाव के ठीक पहले शाम को किसी के किसी के पक्ष में बैठ जाने की अफवाहें चलीं और शहर मुफ़्ती के नाम से ख़ासी संस्कृतनिष्ठ ज़बान में हिन्दी में छपे फ़तवे की प्रतियां भी बटीं. प्यार, युद्ध और चुनाव में सब जायज है. छपते-छपते यह और कि सितारों की दोस्ती रंग लाई, शगुन के अंक यानी 20001 वोट से जीत कर आशुतोष शहर के मेयर भये.

नुमाइश के दिन

नुमाइश के स्टुडियो में छोटू. फ़ोटोग्राफ़र के ख़ाली होने के इंतज़ार में है.

नुमाइश शहर का सालाना जलसा है. ऐसा जलसा जिसका बाक़ायदा इंतज़ार होता है, कुछ वैसे ही जैसे पुण्य कमाने के आकांक्षी कुंभ या माघ मेले का इंतज़ार करते हैं. कमाने का मौक़ा तो नुमाइश भी है – आयोजक होने के नाते जिला प्रशासन के अफ़सर कमाते हैं, हलुआ-पराठा, मुर्ग़-कबाब, मिठाई-खजला बेचकर दुकानदार कमाते हैं, सड़क किनारे लोहे की बाड़ लगाकर अंदर सुनहरी रोशनी में जिस्मों की नुमाइश (इसे वे वैराइटी शो कहते हैं) का इंतज़ाम करने वाले कमाते हैं, इस वैराइटी की तरफ़ से आंखें मूंद लेने वाली पुलिस और मनोरंजन-कर महकमे के अफ़सर कमाते हैं, अच्छी-बढ़िया जेबें कतरकर जेबकतरे कमाते हैं. मुराद यह कि कमाई के बेशुमार मौक़े मिलते हैं सो सभी को इसका इंतज़ार रहता ही है. फरवरी का पूरा महीना नुमाइश के नाम. तमाम शहरियों के दोस्त-रिश्तेदार फरवरी में आते हैं या फिर न्योता देकर बुलाए जाते हैं. मनोरंजन के नाम पर टीवी और सिनेमाघरों से ऊब चुके लोगों को शायद नुमाइश की जीवंतता भाती है. कैंपस और रेलवे प्लेटफॉर्म की चहलक़दमी से ऊबी एएमयू के पढ़ाकुओं की बड़ी तादाद नुमाइश की भीड़ का हिस्सा होती है. दुकानदारों से भिड़ंत या फिर सांस्कृतिक संध्या के नाम पर हर रोज़ होने वाले आयोजनों में हूटिंग या तालियों के शोर से उनकी मौजूदगी पता चलती रहती है. काफी बड़े इलाक़े में सजने वाली इस नुमाइश के एक हिस्से को हुल्लड़ बाज़ार कहते हैं. नुमाइश के क़द्रदान बताते हैं कि यहां ऐसे लड़कों का बड़ा जमावड़ा रहता है जो हिन्दी फ़िल्मों को नज़ीर मानते हुए अपनी हीरोइन को छेड़कर इज़हारे-इश्क में यक़ीन रखते हैं. इस चक्कर में कभी कभार हुल्लड़ की ख़बरें भी आती हैं.

सीमेंट का काफी लंबा चौड़ा ऊंचा चबूतरा और सामने ईंटों से बनी सीढ़ियां काफी दूर तक फैली हैं, ऊपर लोहे के जाल पर पड़ी छत दरअसल कृष्णांजलि है. नुमाइश का ऑडिटोरियम. सारे सांस्कृतिक कार्यक्रम यहीं होते हैं. नुमाइश के दिनों में शहर के तमाम महकमों के छोटे-बड़े हाक़िमों की शाम यहीं गुज़रती है. बड़े अफ़सरों के लिए छोलदारियों में सोफ़े और बिस्तर लगे होतेे हैं, बाक़ी के उनकी जी-हुजूरी में. सांस्कृतिक कही जाने वाली शामों में पुलिस के अफ़सर मेहमाने ख़ुसूसी होते हैं या फिर सिर्फ़ मेहमान. और प्रशासनिक अफ़सर हाथ में माइक्रोफ़ोन लिए मंच पर शेखर सुमन बनने की कोशिश में मुब्तिला पाए जाते हैं. इंतज़ाम और ख़र्च प्रशासन ही करता है, सो इतना तो अफ़सरों का हक़ बनता है. हर रोज़ के कार्यक्रम के अलग-अलग कार्ड छपते हैं, बड़े-बड़े अक्षरों में अफ़सरों के नाम छपते हैं. कलक्टर तो नुमाइश मैदान में स्वागत द्वार बनवाकर अपने नाम का पत्थर लगवा देते हैं, छोटे अफ़सरों के हिस्से में कार्ड और मंच ही बचते हैं. नुमाइश मैदान में तमाम स्वागत द्वार हैं, अलग-अलग नामों और पत्थरों वाले.

ख़ैर, तमाम कार्ड में एक वह भी था, जिसमें हबीब तनवीर निर्देशित जिस लाहौर नइ देख्या… के मंचन का ज़िक्र था. इस बाबत मालूम तो तभी हो गया था, जब नुमाइश के कार्यक्रमों का ब्योरा देने वाली एक ख़बर योगेश ने लिखी धी. ख़बर में और कार्यक्रमों के साथ इस नाटक का उल्लेख भी था. पूछने पर योगेश ने प्रशासन के एक अफ़सर के हवाले से बताया था कि हबीब नाम का कोई शख़्स है, जो नाटक-वाटक करता है, उसी को आना है. यों उस रोज़ जो आए, वह हबीब तनवीर नहीं, अनिल शर्मा थे. उनकी टीम के कलाकारों ने कमाल का धैर्य दिखाया. कृष्णांजलि के लगभग खुले हुए मंच पर यह प्रस्तुति सचमुच मुश्किल थी. कुल दो या तीन कॉलर माइक थे और मंच पर एक साथ कई कलाकारों की मौजूदगी. पीछे तक सुनाई नहीं पड़ता तो शोर और ऐसे में पास खड़े होकर बात करता गुंडा (क़िरदार) संवाद बोलते हुए यह और जोड़ देता कि अबे, माइक नाल बोल माइक नाल, सुनाई नई दे रहा और दूसरा कलाकार दौड़कर माइक उठा लाता. इसी के कुछ दिनों बाद इन्हीं कलाकारों की दिल्ली में हुई प्रस्तुति पर ‘द हिन्दू’ की रिपोर्ट में काफी तारीफ़ की गई. अनूप जलोटा से लेकर अशोक हांडा नाइट, मशहूर मिक्का की नाइट से लेकर सुनयना फौजदार की आइटम डांस वाली नाइट, वडाली ब्रदर्स की कव्वाली, श्रीराम कला केंद्र की नृत्य नाटिका, मुशायरा और कवि सम्मेलन और ऐसे ही तमाम स्वनामधन्य लोगों की मौजूदगी से जगमगाती रही नुमाइश की रातें.

ख़तरा नज़र का

पत्थरों से बना यह घंटाघर अब भी शहर की शान बना हुआ है.

नज़र से बचने का यह टोटका इतना आम है कि किसी नए आदमी को थोड़ी देर के लिए चक्कर में ज़रूर डाल सकता है. लोहा बेचने वाले की दुकान से लेकर कन्फेक्शनरी शॉप, पान की दुकान या फिर टीवी के शोरूम पर हर जगह नज़रबट्टू ज़रूर टंगा मिल जाएगा. और इतनी तरह के नज़रबट्टू मिलते भी इसी शहर में हैं. अब केक या पेस्ट्री को बुरी नज़र से बचाने का जतन तो यह नहीं ही है. ज़ाहिर है कि कारोबार या यों कहें कि दुकान के गल्ले को नज़र से बचाए रखना चाहते हैं. कारोबार की बानगी भी देखें. फरवरी के दिनों में डिब्बाबंद ऑरेंज जूस की तलाश शुरू की तो सासनी गेट की आवास विकास कॉलोनी में एक भरी-पूरी दुकान पर जवाब मिला, ‘नहीं है, साहब. यहां जाड़े में कोई जूस नहीं पीता.’ सासनी गेट चौराहे से लेकर दुबे पड़ाव तक तमाम संभावित दुकानों पर नाकामी हाथ लगी तो एक बार को लगा कि शायद पहले वाले दुकानदार का तर्क सही ही था. साथियों ने सेंट्रल प्वाइंट की एक नामचीन दुकान बताई और कुछ महीने पहले ही वहां दिल्ली की तर्ज पर शुरू हुए एक डिपार्टमेंटल स्टोर का नाम भी सुझाया. भरोसा दिलाया कि वहां ज़रूर मिलेगा. स्टोर में काफी तलाशने पर एक डिब्बा ही मिल सका. शेल्फ़ पर रखे-रखे मियाद पूरी कर चुके क्रीम का डिब्बा दिखाते हुए सेल्समैन ने तर्क दिया कि आखिर मंगाकर भी क्या करें?

यों सेंट्रल प्वाइंट शहर की तमाम छोटी-बड़ी गतिविधियों का केंद्र है, कई बड़ी कंपनियों के शोरूम, रेस्तरां, मिठाई की दुकानें, चश्मे की दुकानें, जूते की दुकानें, दवा की दुकानें, टीकाराम मंदिर – सब यहीं. इलाक़े की चमक-दमक देखकर लगा कि आख़िर तलाश पूरी हुई. पहली बड़ी दुकान पर सेल्समैन ने कहा, संतरे का जूस तो नहीं है, लीची ले जाइए. यह उससे बढ़िया है. नामचीन बताई गई दुकान पर खासी भीड़भाड़ मिली मगर ऑरेंज जूस नहीं मिला. उससे लेमन क्रश मांग लिया तो कुछ देर सोचते रहने के बाद उसने लेमन स्क्वाश की बोतल निकालकर रख दी. फिर से बताने पर बोला, हम ऐसा कुछ नहीं रखते. लाइम कॉर्डिएल मांगकर एक और चांस लिया, मगर उसने बड़ी बेरुख़ी से इन्कार में सिर हिला दिया. सामने रखा रोस्टेड काजू का डिब्बा उठाकर नीचे छपा ब्योरा पढ़ा. उसके इस्तेमाल की मियाद ख़त्म हुए डेढ़ महीना गुज़र चुका था. नमकीन मूंगफली के पैकेट का भी यही हाल. दुकानदार को बताया तो उसने सेल्समैन को डांटते हुए कहा कि वे पैकेट हटाकर क्यों नहीं रखे? इत्तेफ़ाक से दो महीने बाद भी उसी दुकान पर जाना हुआ और नमकीन के वे ही पैकेट तब भी बिकते हुए मिले.

एक बार दो दवाओ की ज़रूरत पड़ी – मेटोपार (पैरासिटामॉल) ओर लोरीडीन-डी. सासनी गेट चौराहे से लेकर जयगंज और अंदर ही अंदर फूल चौराहे तक करीब बीस मेडिकल स्टोर्स पर दुकानदारों ने सिर्फ़ इन्कार में सिर हिलाया. अलबत्ता, पहलवानों सी काया और बाज़ुओं की मांसपेशियां फुलाए युवकों की कई- कई तस्वीरें हर स्टोर पर लगी हुई मिल गईं. ये तस्वीरें मंहगी मगर इन दिनों यहां के फैशन में शामिल सप्लीमेंट्री डाइट का इश्तेहार हैं. गली-मोहल्लों में चल रहे तमाम जिम इस तरह के सप्लीमेंट्री फूड की खपत बढ़ाने में काफी मददगार हैं. मैरिस रोड पर हाल में शुरू हुए एक होटल के रेस्तरां में शाम को दाख़िल होते ही तमाम बैरे अपने मुखिया से बेहतर मेहमाननवाज़ी का हुनर सीखते मिलते हैं. कोल्ड कॉफी का ऑर्डर देने पर गिलास में मिले पेय का छूने भर से उसके गुनगुनेपन का पता चला. बताया तो तड़ से गिलास उठाकर चला गया और वापस लाया तो उसमें कूटी हुई बर्फ़ भी पड़ी हुई थी. ऐसे ठिकानों पर भी भला किसकी नज़र लगने का ख़तरा है, कौन जाने?

सडकें शहर की
कुछ पहले ही सीमेंट से बनी थीं और कुछ बाद में बन गई. इस उद्यम में सड़कें काफी ऊंची हुईं और इन पर बीचो बीच बने मैनहोल गहरे गड्ढ़ों में तब्दील हुए. जहां इन्हें बंद किया गया वहां सीमेंट के ऊंचे अवरोध बन गए मगर शहर के यातायात पर इसका कोई ख़ास असर नहीं पड़ता. बड़ी-बड़ी नई मोटरें हों या फिर जेनरेशन-एक्स के दुपहिया, साइकिल, रिक्शा, इक्का, तांगा, भैंसा गाड़ी या फिर भट्-भट् के शोर के साथ चलते ट्रैक्टर-जुगाड, छोटी-बड़ी बसें सब सर्र सर्र निकलते हैं. जिसे जहां से भी आगे निकलने की जगह मिल जाए. दोपहर को स्कूल- कॉलेज की छुट्टी के वक़्त यह सर्र सर्र कुछ थम जाती है और ऐसी थमती है कि घंटे-डेढ़ घंटे लग सकते हैं और कई बार इससे ज्यादा भी. वामिक़ जौनपुरी का एक शेर है, हुजूम बढ़ता जा रहा है सड़कों पर सलामती इसी में है कि कि बाएं जाएं सब. अख़बारनवीस सत्यदेव यादव को लगता है कि वामिक़ साहब ने यह शेर लोगों को ट्रैफ़िक का क़ायदा बताने के इरादे से कहा होगा. पर हैरत यह कि यहां के अदबी बाशिंदों ने भी शायद यह शेर सुना नहीं है. उस रोज़ हाथरस बस अड्डे के क़रीब गाड़ियों की ऐसी ही क़तार थी. विपरीत दिशा से आ रही एक कार और स्कूटर में टक्कर हो गई. कार का दरवाज़ा अंदर की ओर धंस गया और स्कूटर में सामने की ओर लगी टोकरी छिटककर दूर जा गिरी. कार के ड्राइवर ने गर्दन बाहर निकालकर पहले अपना दरवाज़ा देखा, फिर अंगार उगलती आंखों से स्कूटर वाले को घूरना शुरू किया. स्कूटर सवार भी उसे ही घूर रहा था. रेंगता हुआ ट्रैफ़िक थम गया. दोनों एक दूसरे को घूरते रहे. इस बीच किसी राहगीर ने टोकरी लाकर स्कूटर वाले को पकड़ा दी. पूरी ख़ामोशी से बिना एक लफ़्ज भी बोले दोनों अपनी-अपनी दिशा में आगे बढ़ लिए. ट्रैफ़िक फिर चल निकला.

फोर्ड, ह्यून्डईं, टोयटा का कोई सा नया मॉडल आगरा तक आ जाए तो अलीगढ़ वाले अपने लिए जुटा लेते हैं. कई बार पसंद आने पर भी आप मकान किराये पर इसलिए नहीं ले सकते क्योंकि वहां आपके लिए तो जगह है, आपकी गाड़ी के लिए नहीं. मालिक मकान पहले से ही तीन या चार गाड़ियों का भी मालिक निकलता है. और मोटरों में भी काले रंग की मोटर का इस क़दर क्रेज़ है कि बेशुमार काली मोटरें हैं यहां. यही हाल दोपहिया को लेकर है, चौड़े टायर वाली बाइक, बड़े फ़्यूल टैंक वाली बाइक (एक नज़र में यमराज के वाहन सी दिखती हैं), 150 सीसी की, 300 सीसी की बाइक सांय-सांय करके गुजरती हैं तो सड़क पर चल रहे दूसरे लोगों को ख़ुद ही संभलना पड़ता है. इन पर सवार लड़कों के बाल देखकर धोनी, शाहिद कपूर, ऋतिक, जॉन अब्राहम की याद बरबस आ सकती है. हाव भाव में भी क़तई पीछे नहीं. काया पर ध्यान इस क़दर कि अगर चेहरे पर एक दाना भी निकल आए तो नोएडा या दिल्ली के किसी विशेषज्ञ को आठ-दस हज़ार रुपये दे आते हैं. सैलून में ये सारे चेहरे पर लेप लगाए बैठे मिल जाते हैं. फ़िल्मी पत्रिका के पन्ने पलटते हुए साथियों से बतियाते हैं, ‘ओए, राजपाल यादव की बीबी को देख कितनी लंबी है.’ जवाब मिलता, ‘जाने दे यार , उसकी क़िस्मत अच्छी है.’ ये तमाम चेहरे हैं, जो शाम को अमीनिशां बाज़ार का चक्कर लगाने के लिए ख़ुद को दिन भर तैयार करते हैं. पिछले एक दशक में बसा अमीनिशां का बाज़ार यूनिवर्सिटी की छात्राओं की पसंदीदा जगह है. इस बाज़ार की तमाम दुकानें भी सिर्फ़ उन्हीं लोगों की ज़रूरत वाले सामान से सजी रहती हैं. रात तक भरी रहती है, ख़ूब गुलज़ार रहती है अमीनिशां की सड़क.

मैरिस रोड से गुज़रते हुए अलबत्ता शहर की नई-पुरानी पहचान एक साथ देखने को मिलती है. एक ओर हरियाली के विस्तार के बीच से झांकती पुरानी कोठियां-बंगले और दूसरी ओर सिर उठाए सीमेंट-शीशों से तामीर इमारतें. एक तरफ ख़ामोशी, दूसरी तरफ़ गहमागहमी. तमाम कोठियों में अब स्कूल खुल गए हैं या फिर मालिकाना हक़ के झगड़े में फंसे कुनबों के वकील की ओर से चेतावनी बोर्ड चमकते हैं. वास्तुकला के लिहाज़ से इस ख़ामोश इलाक़े में वैसी ही कशिश है, जैसी कि घंटाघर या फिर कलेक्ट्रेट की इमारत में.

ताले, नाले और मच्छर
शहर की पहचान बताने को दिलजलों ने मुहावरा ईजाद कर लिया है, मक्खी, मच्छर, ताले, नाले और जिनके रिश्ते अच्छे हैं, वे इसी तुक में साले और जोड़ लेते हैं. तमाम बड़े कारख़ानों के अलावा शहर की पुरानी बस्तियों के बहुसंख्य घरों में औरतें-बच्चे भी तालों के कल-पुर्ज़े बनाते मिल जाते हैं, लगभग पूरे दिन. भुजपुरा हो या शाह जमाल, ताले का कारोबार सब जगह है. देश में दुपहिया बनाने वाली कंपनियों की तालों की ज़रूरत यहीं से पूरी होती है. चीनी तालों ने यहां के कारोबार को धक्का ज़रूर पहुंचाया मगर कई कारोबारी हैं, जो बाक़ायदा नेपाल और भूटान को ताले निर्यात भी करते हैं. इसके अलावा पीतल के हार्डवेयर ओर कलात्मक साज-सज्जा के सामान का बड़ा व्यापार है. बड़े-बड़े कारोबारी, बड़ा-बड़ा व्यापार मगर शहर की सूरत-ए-हाल एकबारगी इसकी गवाही नहीं देती. अजब बात तो यह कि किसी सड़क से गुज़रें, आसपास कोई रंग नहीं. वह तो भला हो बड़ी कंपनियों का जो अपना माल बेचने की ख़ातिर बड़े-बड़े बोर्ड, होर्डिंग और निऑन से शहर की तमाम सड़कें सजाए रखती हैं. यहां के जीवन में तमाम रंग इन्हीं विज्ञापनों के हैं. खाने के शौकीन ज़रूर हैं सो खाने के ठिकाने बेहिसाब हैं ओर आठ रुपये प्लेट वाली बिरयानी से लेकर आला दर्ज़े की बिरयानी पकाने वाले ठिकानों पर ख़ूब भीड़ होती है. जाड़ों में हलुआ-पराठा और कचौड़ी-ख़स्ता बारहोमास. शायद ब्रज का इलाक़ा होने के नाते. अलीगढ़ जैसी कचौड़ी शायद ही कहीं और बनती हो, ख़ूब बड़ी हथेली के बराबर मठरी सी. इसके साथ बेहद तेज़ मिर्च वाली सब्ज़ी और रायता. यह रायता देखने के बाद ही रायता फैलने वाले मुहावरे की उत्पत्ति का पता चलता है. प्लास्टिक के गिलास में दिया जाने वाला यह रायता अक़्सर मेज़ पर फैलता हुआ मैंने ही देखा है. इसके साथ ही दाल-सेव. कचौड़ी और दाल-सेव के नाते ख्याति पाने वाले कई कुनबे हैं, जो अब दुकानों की श्रृंखला चलाते हैं. कुंजीलाल दाल सेव वाले, डब्बू दाल सेव वाले, ख्यालीरांम मिठाईवाले, शिब्बू कचौड़ी वाले और उनकी ख़ूबी बयान करने वालों की भीड़ लातादाद. हां, पढाई की किताबें छोड़कर किसी और क़िस्म की किताबों का कोई ठिकाना शहर में नहीं मिलेगा. कहीं पूछ लेने पर सामने वाला हैरत से और देखने लगता है. ले-दे कर कैप्टन पालीवाल हैं, गिफ़्ट गैलरी चलाते हैं और नोट करा देने पर कोई भी किताब दिल्ली सै लाकर दे देते हैं.

यह मच्छरों और नालों का ही प्रताप है कि शहर ने डेंगू की ख़बरों के बीच ख़ूब जगह बनाई. इस बार तो अलीगढ़ ने पोलियो में भी ख़ूब नाम कमाया है. अब तक पोलियो से ग्रस्त पंद्रह बच्चों कौ पहचान हो चुकी है.
(यह रिपोर्ताज सन् 2006 में लिखा था. उस साल 5 अप्रैल की रात को शहर के सब्ज़ी मंडी इलाक़े और दही वाली गली से शुरू हुए बवाल ने पूरे शहर को ज़द में ले लिया था. कर्फ़्यू का ज़िक्र उन्हीं दिनों का है. अभी हाल ही में बहुत थोड़े वक़्त के लिए अलीगढ़ गया था. पर बहुत बदला हुआ तो नहीं पाया.)


अपनी राय हमें  इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.