रिक्शे अब फ़िल्मों में और रिक्शा-आर्ट स्मृति में ही बची रहेगी

  • 4:09 pm
  • 10 April 2020

ज़माना जब डिज़िटल नही हुआ था और सड़क पर सिर उठाकर चलने का रिवाज़ था, हर शहर में कुछ ऐसी दीवारें हुआ करती थीं जो इश्तिहारों के काम आती थीं. दीवारें अब भी हैं, इश्तिहार भी हैं मगर उन दीवारों पर लगने वाले फ़िल्मों के पोस्टर कभी के दिखना बंद गए है.उस दौर में फ़िल्मी सितारे या तो इन पोस्टरों पर नज़र आते थे या फिर रिक्शों की पुश्त पर. पोस्टर मौसम की मार से धुंधला जाते या फिर उनके ऊपर नए चिपक जाते मगर रिक्शों पर बनी छवियां अर्से तक चटख़ बनी रहतीं.

यह रिक्शा-आर्ट उस दौर के समूचे लोक के सौंदर्यबोध का आईना भले न रही हो मगर पेंटर के हुनर के लिए चुनौती हुआ करती थी और एक तबक़े को ख़ासा मुतासिर करती थीं, साथ ही रिक्शे की लकड़ी और लोहे को ख़राब होने से बचाती भी थी. इस दौर में जब परंपरागत रिक्शों की जगह ई-रिक्शा ने ले ली है, और रिक्शों की पहुंच शहर की तंग गलियों तक ही रह गई है, रिक्शा-आर्ट का कोई पुरसाहाल नहीं. रिक्शा खींचने वालों में बहुतेरे ई-रिक्शा चलाने लगे हैं और ई-रिक्शा चूंकि कम्पनी से ही रंगे हुए आते हैं इसलिए उन पर आर्ट की ज़रूरत नहीं बची है. तो रिक्शा-आर्ट बनाने वाले हुनरमंद अब नेम प्लेट लिख रहे हैं, या फिर घरों में पुताई का काम करके रोज़ी कमा रहे हैं. थोड़े से अपवाद हैं, जिन्हें अपना हुनर साबित करने की ज़िद है.

छह-सात साल पहले तक किसी भी शहर के रेलवे स्टेशन, बस अड्डे या कचहरी पर डेढ़-दो दर्जन रिक्शे एक साथ मिल जाते थे – ख़ूब भभकते रंगों और फ़िल्मी सितारों की छवियों से सजे हुए. रिक्शे की पीठ पर बनी तस्वीरें देखकर भी अंदाज़ा लगाया जा सकता था कि कौन सा रिक्शा नया और कौन सा पुराना है. रिक्शे की रंग सज्जा में दो हिस्से हुआ करते थे – रिक्शे के फ़्रेम-हुड और बॉडी की रंगाई और दूसरा रिक्शे के पीछे की तरफ़ टिन प्लेट पर चित्रकारी. टिन प्लेट की तस्वीर ही दरअसल चित्रकार की कल्पना और हुनर का आईना होती, एक तरह से उसका चलता-फिरता कैनवस. और बाद में यही रिक्शे की पहचान बन जाती. एक दौर में जब लोग निजी रिक्शे रखते थे, ये तस्वीरें रिक्शा मालिक के ज़ौक़ का पता देतीं, कभी स्कूली बच्चे अपने रिक्शे की शिनाख़्त इन तस्वीरों से करते और तमाम लोग अपने मेहमानों की ख़ातिर रिक्शा तलाश करते वक़्त इन तस्वीरों पर भी ग़ौर कर लिया करते थे.

रिक्शे पर बनने वाली ये तस्वीरें अमूमन तीन तरह की होती थीं – कुदरती नज़ारे यानी नदी, पहाड़, दरख़्त, चिड़िया और जानवर, धार्मिक प्रसंग वाली तस्वीरें और फ़िल्मी सितारों के चेहरे. इनमें सबसे ज्यादा लोकप्रिय विषय फ़िल्में ही रहीं. किसी हिट फ़िल्म के एक्शन सीन की काफी मांग रहती और रिक्शा आर्टिस्ट की कोशिश होती कि दूसरों के मुक़ाबले उसकी तस्वीर ज्यादा सुघड़ और आकर्षक हो. ‘शोले’ से लेकर ‘कुली’ तक जो जगह अमिताभ बच्चन की छवियों के लिए पक्की थी, ‘ग़दर’ के दिनों में सनी द्योल ने ले ली. इसी तरह मिथुन चक्रवर्ती, संजय दत्त, सलमान और शाहरूख़ ख़ान के दौर आते-जाते रहे. एक दौर था, जब साधना, बबीता, हेमामलिनी, रेखा और श्रीदेवी सरीखी हीरोइनों की छवियां भी इन चलते-फिरते कैनवस पर दिखाई देतीं मगर बाद के दिनों में ज्यादातर हीरो ही दिखने लगे.

बदायूं के पेंटर मोहम्मद रियाज़ ख़ान बताते हैं कि जब उन्होंने सीखना शुरू किया था तो अभिनेत्रियों की तस्वीरों को बहुत तरजीह मिला करती थी मगर बाद में तो एक्शन फ़िल्मों के हीरो ही पसंद किए जाने लगे. पहले की हीरोइन ऐसी थीं कि चेहरे-मोहरे के अलावा उनके हेयर स्टाइल और पहनावे से भी उनकी पहचान हुआ करती थी. फिर ऐसा दौर आया कि सारी अभिनेत्रियां एक जैसी ही दिखाई देनी लगीं. बक़ौल रियाज़, ‘नगीना’ इसका अपवाद थी, जब लोगों ने श्रीदेवी के साथ विलेन अमरीश पुरी की तस्वीरों की भी मांग की थी वरना बदायूं के रिक्शों पर तो एक्शन वाले हीरो ही छाये रहते. बताते हैं कि अतीक़ ठेकेदार एक बार ‘ग़दर’ की एक तस्वीर लेकर उनके पास आए. तब वह तीन सौ रुपये मेहनताना लिया करते थे, उस तस्वीर के लिए उन्होंने पांच सौ मांगे. अतीक़ राज़ी हो गए. बाद में तस्वीर देखकर वह इतने ख़ुश हुए कि मेहनताने के साथ ही एक किलो मिठाई का इनाम भी मिला.

बदायूं के पेंटर रियाज़ और उनकी रिक्शा-आर्ट.

रियाज़ के वालिद घड़ीसाज़ हैं. नौवीं के बाद पढ़ाई छोड़ चुके रियाज़ एक बार चंदौसी गए. वहां रिक्शे के पीछे बनी ‘एक और एक ग्यारह’ की तस्वीर देखकर इतना प्रभावित हुए कि रिक्शा आर्ट को ही अपनी आजीविका बनाने की ठान ली. बदायूं लौटकर रिक्शा आर्टिस्ट मुख़्तयार की शार्गिदी में तस्वीरें बनाना सीखा और ख़ूब शोहरत पाई. बक़ौल रियाज़, ‘शौक़ था तो मन लगाकर ही काम करता था. लोगों को यक़ीन था कि मेरे हाथ का काम बढ़िया है, रंग बरसों तक ख़राब नहीं होंगे. तो भीड़ ज्यादा होती थी. कई बार तो लोगों को मना करना पड़ता था. हां, जो स्कूली बच्चे अपने चार्ट बनवाने आ जाते, उन्हें मना नहीं करता था. तब रिक्शे वालों के अच्छे दिन थे. मगर बाद में उस काम से ऊबने लगा, रिक्शे की तस्वीरें पुतले जैसी तो होती हैं. फिर उस्ताद आक़िल से कैनवस पेंटिंग का हुनर सीखा. अच्छा ही हुआ सीख लिया. अब तो वही काम आ रहा है. रिक्शे का काम तो आठ बरस पहले ही छोड़ दिया था. अब तो वह काम ही ख़त्म हो गया.’

हिन्दुस्तान में तो रिक्शा आर्ट या इसके इतिहास पर शोध या अध्ययन की कौन कहे, इसे क़ाबिल-ए-ज़िक्र भी नहीं समझा गया. ढाका के रिक्शों और आर्ट पर अलबत्ता कुछ किताबें ज़रूर हैं, जिनसे रिक्शा आर्ट की ज़रूरत और उसके महत्व का पता मिलता है. यह मानकर कि रिक्शे और आर्ट के प्रसार के शुरुआती दौर में पूर्वी बंगाल भी हिन्दुस्तान ही हुआ करता था, इन्हीं किताबों के हवाले से हिन्दुस्तान की रिक्शा आर्ट को भी समझने की कोशिश की जा सकती है. यह जानना दिलचस्प है कि बांग्लादेश में कला का यह रूप रिक्शे तक ही सीमित नहीं है, बल्कि कला संग्रह करने वालों के भी काम का है. कुंतल लाहिड़ी-दत्त और डेविड जे.विलियम्स की किताब ‘मूविंग पिक्चर्सः रिक्शा आर्ट ऑफ़ बंगलादेश’ में ऐसे कई रोचक तथ्य मिलते हैं. मसलन तत्कालीन पूर्वी बंगाल में रिक्शे की आमद सन् 1930 में हुई. कलकत्ते से ये रिक्शे ढाका नहीं, नारायनगंज और मेमनसिंह पहुंचे. इसके भी आठ साल बाद ढाका में रिक्शा आया. सन् 1941 में ढाका में कुल 37 रिक्शे थे, और देश के बंटवारे के वक़्त 181. यों 21वीं सदी में ढाका के रिक्शों की तादाद का सही आंकड़ा नहीं मिलता मगर अलग-अलग अंदाज़ लगाने वाले एक से पांच लाख रिक्शे बताते हैं. रिक्शों को रंगने-रंगाने के शौक़ का अंदाज़ इस बात से भी लगा सकते हैं कि रिक्शा खींचने वाले की गद्दी पर भी दो-चार फूलों के रंग टंके दिखाई देते हैं. वहां हुए प्रयोग का महत्व दूसरे मुल्कों में होने वाली रिक्शा आर्ट प्रदर्शनी में ढाका के चित्रकारों की भागीदारी या जर्मन दूतावास के कैलेण्डर पर रिक्शा आर्ट को मिलने वाली जगह से भी समझ सकते हैं. सन् 1994 के एक सर्वेक्षण के हवाले से किताब में बताया गया है कि शहर के 98 आर्टिस्ट (रिक्शा मिस्री) की बनाई रिक्शा आर्ट बेचने वाली 224 दुकानें ढाका में हैं.

अपने यहां रिक्शों की तादाद का अंदाज़ लगाने के लिए नगर निगम से जारी होने वाली लाइसेंस प्लेट ही अकेला ज़रिया है. ई-रिक्शा की गुंजाइश तलाशने के लिए यूपी के दो शहरों में हुए एक सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक़ लखनऊ में 28 हज़ार और इलाहाबाद में 15 हज़ार रिक्शे थे. सन् 1997 की यह रिपोर्ट इन दोनों शहरों में हर साल दस और पंद्रह फ़ीसदी की वृद्धि का ज़िक्र भी करती है. मगर यह पिछली सदी की बात है. लखनऊ में सन् 2016 में 9730 रिक्शे थे और मार्च 2019 तक कुल 7000. बरेली शहर में 2017 में 3100, 2018 में 2000 और इस साल सिर्फ़ 1100 लाइसेंस जारी हुए हैं. बाक़ी शहरों का हाल इससे बहुत अलग नहीं है.

बरेली के नदीम रिक्शा आर्टिस्ट की तीसरी पीढ़ी से हैं.

बरेली के आख़िरी रिक्शा पेंटर नदीम बताते हैं कि चार-पांच साल पहले तक वह महीने भर में 60-65 रिक्शे पेंट किया करते थे और अब बमुश्किल सात-आठ. नदीम के दादा दुलारे पेंटर ने रिक्शा पेंट करने की शुरुआत की थी, उनके वालिद भी इसी पेशे में रहे. नदीम ने यह हुनर अपने दादा से सीखा. घर के ज़ीने के नीचे तंग सी जगह उनकी वर्कशॉप है, जहां रंग-ब्रश और लोहे का कुछ सामान बेतरतीब पड़ा मिलता है. वह शहर के कई और पेंटर के नाम का ज़िक्र करते हैं – मुश्ताक, रईस, पहलवान, इस्लाम मगर यह भी बताते हैं कि ये सारे लोग अब काम छोड़ चुके हैं. यह पूछने पर कि वह इस पेशे में कैसे बने हुए हैं, कहते हैं, ‘कुछ तो शौक़ की वजह से और कुछ इसलिए कि ख़ानदानी काम है. तो जब तक मिलेगा, करता रहूंगा. लेकिन जिस तेज़ी से रिक्शे ग़ायब हुए हैं, लगता नहीं कि बहुत दिनों तक चल पाएगा. जब यहां काम नहीं होता, कोठियों में पेंट, पीओपी करने का काम कर लेता हूं.’

‘लोनली प्लेनेट’ से छपी रिचर्ड और टोनी व्हीलर की किताब ‘चेज़िंग रिक्शाज़’ में अंग्रेज़ी हुक़ूमत के दौर में रिक्शे के बारे में तय नियमों का ज़िक्र मिलता है – रिक्शे गहरे नीले रंग में रंगे जाने चाहिए, किनारों पर लाल रंग और लोहे के हिस्से काले रंग के होने चाहिए. अंग्रेज़ी हुक़ूमत के ख़ात्मे के बाद रिक्शे दिनों-दिन ज्यादा रंगीन होते गए. जापान में रिक्शे के शुरुआती दिनों में इसे सजाने के लिए बनी अशोभनीय तस्वीरों पर सरकारी प्रतिबंध का हवाला देते हुए टोनी ने यह भी लिखा है कि सन् 1971 में आज़ाद मुल्क बनने के बाद बंगलादेश सरकार ने रिक्शा आर्ट में महिलाओं के अनावृत चेहरे बनाने पर रोक लगा दी. बाद के वर्षों में फ़िल्मी सितारों की तस्वीरों पर भी रोक लगाई गई हालांकि यह क़ायदा आटो रिक्शॉ-बसों पर लागू हुआ और रिक्शे इससे बच गए.

इस लिहाज़ से देखें तो अपने यहां रिक्शा-आर्ट को इतनी गंभीरता से नहीं लिया गया कि उसके लिए कोई नियम बनाना पड़े. जो नियम हैं, वे लाइसेंस, कोचवानी और रिक्शे को दुरुस्त रखने के लिए हैं. इसीलिए जब तक रिक्शे सड़कों पर रहे, रिक्शा-आर्ट भी ख़ूब फली-फूली. और अब तो दोनों ही इतिहास बनने के क़रीब पहुंच गए हैं.


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