देवकली मंदिर | 1857 की क्रांति का स्मारक
आज़ादी के 75वें साल पर ख़ास | पहले स्वतंत्रता संग्राम की रणनीति यहाँ बनी, यहीं अंग्रेज़ों से युद्ध में आज़ादी के गौरवशाली इतिहास की आधारशिला रखी गई और देश के 18 सपूतों की शहादत ने भारत माता को ग़ुलामी की बेड़ियों से आज़ाद कराने में अपने योगदान की इबारत लिखी.
क्रांति के अग्रदूतों ने अंग्रेज़ी फ़ौज के छक्के छुड़ा दिए, साथ ही हुकूमत के देशी चाटुकारों के क़ब्ज़े से तीन तहसीलें भी छुड़ा लीं. यह ऐतिहासिक तथ्य है. और यह भी कि तब से यह मंदिर महान क्रांति का स्मारक परिसर है. शिव के आराधकों-आस्थावानों के लिए पूजा की पवित्र जगह है. एक राजा का अपनी मुंहबोली बहन की आस्था को सम्मान देने का अद्वितीय साक्ष्य है. यह देवकली मंदिर है.
देवकली यानी कन्नौज के राजा रहे जयचंद की बहन देवकला. इतिहास में कई प्रसंग हैं. उनमें एक यह है कि 1090 ई. में कन्नौज राज्य पर स्थापित गहड़वाल वंश के राजा जयचंद ने 1125 ई. में अपनी मुंहबोली बहन देवकला का ब्याह डाहार जालौन के राजा विशोख देव से किया तो अपने राज्य में पड़ने वाले इस इलाके के साथ ही 145 गांव उनको दहेज में दे दिए.
शिवमंदिर में देवकला की आस्था को देखते हुए मंदिर और गांव का नाम भी देवकला के नाम पर देवकली रखा. ससुराल हुए देवकला रात को यहाँ विश्राम के लिए ठहरती थीं.
1194 ई. में गहड़वाल वंश के पतन और मुस्लिम शासकों की सत्ता आने के साथ इस क्षेत्र का पराभव हुआ. मोहम्मद गौरी और कई विदेशी आक्रांताओं ने मंदिर तथा इस पूरे इलाक़े को नुक़सान पहुंचाया.
फिर से यह स्वर्णिम काल में पहुंचा, जब 1772 ई. में मराठा छत्रप सदा जी राव भाउ ने इटावा के टिक्सी मंदिर के साथ इस मंदिर को भी मराठा शैली में बनवाया यानी जैसा मंदिर हम आज देखते हैं.
यह मंदिर सैन्य छावनी के रूप में भी इस्तेमाल होता रहा. इसकी दीवारों पर 18वीं शताब्दी की उत्कृष्ट कलाकृतियां उकेरी हुई हैं. मंदिर क्षेत्र में कभी 52 कुएं हुआ करते थे, इनमें से कई आज भी हैं. किंवदंती है कि मंदिर में स्थापित शिवलिंग द्वापरयुग में स्वयं प्रकट हुआ था. इसका अपना महात्म्य है और यह रहस्य भी कि शिवलिंग का आकार साल में चावल के दाने बराबर कैसे बढ़ जाता है?
पूर्व में इटावा ज़िले का हिस्सा रहे और बाद में ज़िला बने औरैया से क़रीब चार किलोमीटर दूर बीहड़ वाले इलाक़े खानपुर में यमुना बहती है. और यहीं नदी के तट पर देवकली मंदिर है. हर बार की तरह इस बार भी सावन में श्रद्धालुओं का तांता लगा हुआ है. कुछ का ध्येय दर्शन तो कुछ ध्यान लगाकर यहीं बैठे रहने की इच्छा लेकर पहुंचते हैं.
क्रांति के गवाह हैं यमुना और मंदिर
तब अंग्रेजों का राज था और अवाम ने हुकूमत के ख़िलाफ़ बिगुल फूंक रखा था. तमाम शासक ऐसे भी थे, जो अंग्रेजों के साथ थे. उन्हीं में एक दिलीपनगर के राजा जसवंत सिंह थे. 27 नवबंर 1857 को जसवंत सिंह, लखना के तहसीलदार ईश्वरी प्रसाद और तहसीलदार रामबख्श अंग्रेज़ी सेना के साथ यमुना किनारे शेरघाट पर आकर डट गए थे. अंग्रेजों के ख़िलाफ़ बोलने और लड़ने वाले लोग इनके निशाने पर थे.
इसकी भनक जब क्रांतिवीरों को लगी तो कुंवर रूप सिंह, राजा निरंजन सिंह जूदेव और रामप्रसाद पाठक के नेतृत्व में सैकड़ों लोगों का जत्था इसी मंदिर परिसर में आ जुटा. यहीं सबने मिलकर अंग्रेज़ों से युद्ध का ख़ाका खींचा और जो रणनीति बनी, उसी के मुताबिक लड़े.
मंदिर में बनी रणनीति और देश के लिए मर मिटने का जोश ही था कि तत्कालीन औरैया, फफूंद और बेला तहसीलों को अंग्रेज़ों के क़ब्ज़े से आज़ाद करा लिया. इन तहसीलों का भार भरेह राजगद्दी के राजकुमार कुंवर रूप सिंह जूदेव को सौंपा गया.
अंग्रेज़ों से हुए इस युद्ध में रामप्रसाद पाठक समेत 18 क्रांतिकारियों ने बलिदान दिया. अभी की तरह मंदिर में तब इलेक्ट्रॉनिक नगाड़ा नहीं था. लेकिन ‘भारतमाता की जय’ की बुलंद आवाज़ों ने धरती को नमन किया था और उसकी गूंज शिव को भी अर्पित हुई थी. हरहराती यमुना ने शहीद क्रांतिवीरों को अंगीकार कर मानो अमर पथ पर अग्रसर किया.
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