मजरूह सुल्तानपुरी | चाक किए हैं हमने अज़ीज़ों चार गिरेबां तुमसे जियादा
हकीम असरारुल हसन ख़ान उस रोज़ सुल्तानपुर के मुशायरे में ग़ज़ल पढ़ने के लिए मंच पर न चढ़े होते और सुनने वालों ने उन्हें उस तरह हाथों हाथ न लिया होता तो मुमकिन है कि यूनानी दवाओं से इलाज़ करने वाला एक और हकीम हमारे पास होता मगर कितने ही दिलों पर मरहम रखने वाली, जोश जगाने वाली और इन्कलाब पैदा करने वाली उस शायरी से दुनिया महरूम ही रह गई होती जो ‘मजरूह’ ने लिखी. तो हकीम साहब ने उस मुशायरे में मिली दाद से सबक लिया, शिफ़ाख़ाने का रास्ता छोड़कर जिगर मुरादाबादी की शागिर्दी कर ली. फिर जो हुआ, वह हिन्दुस्तानी अदब की दुनिया में इतिहास बन गया. कुछ इस तरह कि ‘मैं अकेला ही चला था जानिबे मंज़िल मगर लोग साथ आते गए कारवां बनता गया.’
बहुतेरे लोगों के लिए मजरूह सुल्तानपुरी रेडियो पर गीतकार के तौर पर सुना गया एक नाम हो सकता है मगर अदब से वाबस्ता दुनिया उन्हें ऐसे तरक़्क़ीपसंद शायर के तौर पर याद करती है, जिनके लिए अवाम की बेहतरी और क़लम की अज़्मत से बड़ा और कुछ नहीं था. अपने फ़िल्मी गीतों के बारे में वह ख़ुद बात नहीं करते थे और न ही उन्हें अदब के आसपास कहीं रखते थे, हालांकि वह उनकी आजीविका थी.
यह मुल्क की आज़ादी से दो बरस पहले की बात है. तब के मशहूर फिल्म निर्माता-निर्देशक एआर कारदार ने बंबई के एक मुशायरे में मजरूह को सुना और क़ायल हो गए. उन्होंने मजरूह से अपनी फ़िल्मों के लिए गीत लिखने को कहा मगर मजरूह बंबइया फ़िल्मों में काम को बहुत अच्छा नहीं मानते थे, इसलिए उन्होंने कारदार को साफ़ मना कर दिया. यह नौशाद थे, जिन्होंने मजरूह को गीत लिखने के लिए राज़ी कर लिया. और इस तरह फ़िल्म ‘शाहजहां’ के लिए लिखा उनका गीत ‘जब दिल ही टूट गया, हम जी के क्या करेंगे’ कुंदन लाल सहगल की आवाज़ में दुनिया ने सुना. इतने दशकों बाद भी इस गीत का आर्कषण ख़त्म नहीं हुआ है. यह गीत सहगल की रूह के इतना क़रीब था कि उन्होंने कई बार कहा था कि इस नग़मे को उनके जनाजे पर ज़रूर बजाया जाए.
इसके बाद शुरू हुआ उनकी फ़िल्मी सफ़र सन् 2000 तक जारी रहा. बेशुमार फ़िल्में सिर्फ़ उनके लिखे गीतों की वजह से ‘सुपर हिट’ हुईं. वह ऐसे अनूठे गीतकार थे जिन्होंने कई पीढ़ियों के साथ काम किया. हिन्दी सिनेमा का कोई ख्यात संगीतकार और गायक ऐसा नहीं जिसके साथ मजरूह ने काम न किया हो. फ़िल्मों में उन्होंने हर रंग के गीत लिखे – ‘इना, मीना, डीका..’ से लेकर ‘मोनिका ओ माई डार्लिंग’ सरीखे गीतों के साथ ही ‘हम हैं मता-ए-कूचा ओ बाज़ार की तरह’ जैसे मानीख़ेज़ गीत भी. वह पहले ऐसे गीतकार हुए, जिन्हें ‘दादा साहब फाल्के पुरस्कार’ से नवाज़ा गया.
बाद सन् 1949 की है, जब बंबई में मजदूरों की हड़ताल हुई. मजरूह सुल्तानपुरी ने इस हड़ताल में शिरकत करते हुए एक इंकलाबी नज़्म पढ़ी, ‘अमन का झंडा इस धरती पर/ किसने कहा लहराने न पाए/ ये भी कोई हिटलर का है चेला/ मार लो साथी जाने न पाए/ कॉमनवेल्थ का दास है नेहरू/ मार लो साथी जाने न पाए..’ हुकूमत ने इसे बग़ावत माना. तब सख़्त मिज़ाज मोरारजी देसाई गवर्नर थे. उनकी कहने पर मजरूह आर्थर रोड जेल में डाल दिया. उनके साथ बलराज साहनी की गिरफ्तारी भी हुई.
दोनों से कहा गया कि वे माफी मांग लें तो रिहा कर दिए जाएंगे. मजरूह सुल्तानपुरी और बलराज साहनी दोनों ने ही माफी मांगने से साफ इंकार करते हुए जेल में रहना मंजूर किया. अलबत्ता जेल में रहकर भी लिखते रहे. लिखा कि ‘हमको जुनून क्या सिखलाते हो, हम थे परेशां तुमसे जियादा/ चाक किए हैं हमने अज़ीज़ों चार गिरेबां तुमसे जियादा‘. उन्हें दो साल की क़ैद हुई.
तब राज कपूर ने उन्हें आर्थिक मदद की पेशकश की लेकिन मजरूह ने इसे नामंजूर कर दिया. इसके बाद उन्होंने अपनी किसी अगली फ़िल्म के गीत लिखने के लिए किसी तरह मजरूह को राजी किया और उसका पारिश्रमिक उनके परिवार वालों तक पहुंचाया. 1950 में लिखा वह गाना राज कपूर ने 1975 में अपनी फिल्म ‘धर्म- कर्म’ में इस्तेमाल किया. वह गाना था, ‘इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल…’ मजरूह सुल्तानपुरी ने करीब तीन सौ फ़िल्मों के लिए चार हज़ार से ज्यादा गीत लिखे. इनमें से ज्यादातर अब भी लोगों की ज़बान पर चढ़े हुए हैं.
24 मई, 2000 को मजरूह सुल्तानपुरी ने इस दुनिया से विदा ली.
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