किताब | यार मेरा हज करा दे
लाहौर मेरे प्रिय शहरों में से एक है, ऐसा प्रिय कि जिससे मिलना अब तक न हो पाया है. ज़ाहिर है कि मेरा यह ग़ाइबाना लगाव किताबों और दोस्तों की ज़बानी सुने क़िस्सों से पैदा हुआ है. ऐसे में राजिन्दर अरोरा की किताब ‘यार मेरा हज करा दे’ के बारे में कहीं पढ़ा तो इसे मंगाने के लिए दफ़्तर को कह दिया. वे किताब ऑर्डर करते, इसके पहले ही तोहफ़े की शक़्ल में किताब मेरे पास आ गई. मज़मून तो एक बैठकी में पढ़ने लायक़ है, मगर जगह-जगह इस क़दर भावुक करता है कि इसे दो बार में पढ़ा जा सका.
दो हिस्सों में बंटी यह किताब सफ़रनामा है, और यादनामा भी, मगर इसे पढ़ते हुए देश के बंटवारे की त्रासदी, जन्मभूमि की कशिश और उसकी ख़ातिर तड़पते मन की ख़्वाहिशों, इंसानी जज़्बे और ख़ुलूस की इंतेहा से गुज़र होती है. और यह भी कि रेडक्लिफ़ के सरहदें तय कर देने का असर सरहदों के आर-पार आबाद इंसानों की ख़्वाहिशों और उसके सपनों पर तो ज़रा भी नहीं हुआ. इतना वक़्त गुज़र जाने के बाद भी जस की तस हैं. छोटे-छोटे वाक़यों, क़िस्सों, तजुर्बों और बातों से बनी इस किताब का फ़लक ख़ूब वसी है. सादा कहन की कीमियागरी जादू जगाती है और इस लिहाज़ से ख़ासी माना-ख़ेज़ भी है कि यह देखे-सुने और भोगे हुए का दस्तावेज़ है, कोई इतिहास की किताब नहीं, जिसमें जब चाहे तरमीम की जा सकती है.
यह दास्तान दिल्ली में रहने वाले बुज़ुर्ग सतपाल अरोरा की इस ख़्वाहिश से शुरू होती है कि एक बार लाहौर जाकर वह अपने पुरखों का घर फिर से देखना चाहते हैं. और अपनी यह ख़्वाहिश उन्होंने अपने बेटे राजिन्दर को इसी तरह बताई थी – यार मेरा हज करा दे. किताब के पहले ही सफ़े पर बाबा बुल्ले शाह के हवाल से दर्ज है – हाजी लोक मक्के नूँ जान्दे, मेरे घर विच नौ सौ मक्का, नी मैं कमली आँ. सतपाल जी दिल के मरीज़ थे और दोनों मुल्कों के बीच आवाजाही पर कारगिल की जंग की छाया तब भी बनी हुई थी.
किताब का पहला हिस्सा, सात दिनों के उनके इसी सफ़र और लाहौर के गन्दा नाला इलाक़े में उनके घर की तलाश का दिलचस्प ब्योरा है. इसमें सरहद पार बसे लोगों के अपनापे, उनके ख़ुलूस, खान-पान, रहन-सहन, हाज़िरजवाबी और हालात के ऐसे महीन ब्योरे शामिल हैं, जो उनकी ज़िंदगी में झांकने का रास्ता बनाते हैं. और सतपाल जी ने भी पुरखों के वतन का हज कर आने की बात किसी रौं में आकर नहीं कही थी, वहाँ पहुंचकर उन्होंने सारी मालूम हिदायतों पर अमल भी किया.
उस मकान नंबर 4469 की तलाश पूरी होने और जितना मुमकिन था, उसके दरो-दीवार छूकर देख आने के बाद के एक प्रसंग का बयान यों है – इतने में वो बुज़ुर्गवार जिनके घर हम गए थे वो मेरे पास आकर बैठ गए. मेरा हाथ थामकर उन्होंने पूछा, ‘तू इनका बेटा है?’ मैंने सर हिला दिया. बोले, ‘तू इन्हें लाहौर लेकर आया है?’ मैंने कहा, हाँ. इस बार उन्होंने मेरा बाज़ू सख़्ती से पकड़कर कहा, ‘तो मुझे भी दिल्ली लेकर चल, मैं भी तो तेरे बाप जैसा हूँ.’ मैंने तसल्ली देने के लिए सर हिलाया और अपना बाज़ू उनके कन्धों पर डाल दिया. बस, इसके बाद तो वो फूट-फूटकर रोने लगे. इतना रोये कि मेरी क़मीज़ के बाज़ू पर उनकी आँखों में पड़े काजल के बहने से काली धारियाँ बन गईं. मैंने उठकर उन्हें गले लगा लिया और कहा आप वीज़ा लगवा लीजिए मैं पक्का आपको ले जाऊँगा.
हालांकि रुलाता तो इमीग्रेशन दफ़्तर के इंस्पेक्टर बिलाल का क़िस्सा भी है, जिनके दादा की मेरठ में हलवाई की दुकान थी, और तक़सीम के वक़्त जो अपना कुनबा लेकर उस पार चले गए थे. दस बरस बाद वह अकेले ही मेरठ लौट आए थे और फिर कभी नहीं गए. पुलिस वालों से लेकर ऑटो वाले या चूड़ी वाले से लेकर चाय वाले – सब जगह तो एक टुकड़ा हिंदुस्तान नक्श नज़र आता है, और उनका एहतिराम भी.
मोहर्रम के महीने में पहुंचने की वजह से एयरपोर्ट के कस्टम पर अपनी तीनों बोतलें गंवा आए राजिन्दर अरोरा की शहर में साक़ी की तलाश के बारे में पढ़ते हुए अनवर मक़सूद के ‘लूज़ टॉक’ का एक एपिसोड बेसाख़्ता याद आया. और बंदिशों के बीच अनारकली बाज़ार में जमी महफ़िल भी कम मज़ेदार नहीं. इसी महफ़िल में सरमद के हवाले से एक क़िस्से का ज़िक़्र आता है. उनके दादा शिमला में ठेकेदारी करते थे. और एक बार जब सरमद हिंदुस्तान आए और शिमला में अपना पुराना घर देखने गए तो उसी कमरे से अपने अब्बू को फ़ोन किया, जिसमें उनका बचपन गुज़रा था. फ़ोन पर अब्बू ने पूछा कि ‘सामने क्या दिख रहा है?’ दीवार में खिड़की. ‘ओए फेर खड़ा क्यों है— ओ जरा बारी दे कोल जा ते खोल दे ओस नू— वतना दी थोड़ी हवा आन दे ओए.’
सरहदें बंटने के दिनों में दिल्ली आ जाने के पांच बरस बाद तक ख़ुद सतपाल जी ने भी तो लाहौर लौटने की उम्मीद नहीं छोड़ी थी और न ही बरसों बाद वहाँ से होकर लौट आने पर ही. अपनी मंडली के साथ वह अगली बार के सफ़र के मंसूबे बाँधते रहे. किताब के दूसरे हिस्से में उनकी शख़्सियत, उनके काम, उनके नज़रिये और उसूलों के हवाले जो तफ़्सील है, उसे पढ़कर महसूस किया जाना ज़रूरी लगता है.
इसमें उनकी डायरियों के कुछ हिस्सों के साथ ही उनकी अपने बेटे राजिन्दर से हुई बातचीत है, जो उनके बचपन के लाहौर, तहज़ीब और रवायतों की यादें हैं, क़त्लो-ग़ारत और दंग-फ़साद के दिनों की भी, साथ ही अपने जड़ों से उखड़कर दिल्ली आ बसने के बाद की ज़िंदगी की मुख़्तसर दास्तान. मुख़्तसर मैंने इसलिए कहा है कि एक ज़िंदगी को किताब के कुछ पन्नों में बाँधना कहाँ मुमकिन है. और हाँ, लाहौर के सफ़र की कई तस्वीरें भी किताब में शामिल हैं.
बक़ौल लेखक, हर सफ़र की एक कहानी होती है. ये सफ़र लंबा था और माज़ी में बहुत पीछे तक जाना था. इसमें पिता जी की धुँधली और 55 साल पुरानी यादों के चलते रास्ता भटकने का डर भी था. इस डर और आने वाली मुश्किलों को दरकिनार करते हुए हमने ये सफ़र पूरा किया क्योंकि ये कहानी कही और सुनी जानी ज़रूरी थी. जिन कहानियों के सिसकते हिस्से दिलों में दबे रह जाते हैं वो अधूरी रह जाती हैं. पर, हर कहानी लिखी ज़रूर जानी चाहिए चाहे अधूरी ही क्यों न हो, आने वाली पीढ़ियों में उन्हें कोई तो पूरा करेगा.
आप चाहें तो इसे एक लाहौरी के संस्मरण के तौर पर भी पढ़ सकते हैं. किताब सेतु प्रकाशन ने छापी है.
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