बायलाइन | एक देश-एक त्योहार की नज़ीर 14 फ़रवरी
हमारे बचपन से बड़े होने तक खिचड़ी ही ऐसा त्योहार रहा, जिसकी तारीख़ पक्की होती – 14 जनवरी. सूर्य के उत्तरायण आने के बारे में तो बहुत बाद मालूम हुआ वरना तिल-गुड़ और खिचड़ी के भोग और दान का ही पता होता. स्वाद इंद्रियों की कसरत का मौक़ा भी होता.
इस मौक़े पर गाँव में होने का मौक़ा तो न मिल पाता था क्योंकि स्कूल चल रहा होता था मगर इन्हीं दिनों पापा अगर बरेली आ जाते तो उनके साथ ढंग का कुटा हुआ नफ़ीस क़िस्म का चिवड़ा और कम से कम दो क़िस्म का गट्टा ज़रूर आता. गर्म कपड़ों से निजात पाकर होली के इंतज़ार की शुरुआत भी होती. सवेरे-सवेरे उठकर नहाने की रवायत उस उम्र में भी झुंझलाहट ही पैदा करती. रवायत की ख़ूबी यही है कि आपको पसंद हो कि नापसंद, निबाह करना ज़रूरी है. सो नहाते. गाँव-देहात के लोग भोर में ही आसपास की नदियों में डुबकी लगा आते. संकल्पवान लोग गंगा-यमुना या सरयू भी हो आते.
गुड़, चिवड़ा, गट्टा, कपड़े और फ़स्ल का दूसरा सामान बहनों-बेटियों की ससुराल भेजा जाता. घरों में इसकी तैयारी कई रोज़ पहले से होती. और अगर पहली बार भेजी जा रही होती तो कुछ ज़्यादा ही ख़ास होती. घर के बड़े खिचड़ी लेकर जाते या फिर किसी के हाथ भिजवाई जाती. यह भी रवायत थी. ताकि ब्याह कर अपने घर चली गई लड़कियों से नेह जता सकें, प्रतीक के तौर पर ही सही यह अहसास भी बना रहे कि मायके की फ़स्ल में उसका हिस्सा बरक़रार है. बहुओं के मायके से जाने वाली खिचड़ी ससुराल के घर में उसकी प्रतिष्ठा मजबूत करने का कारक भी हुआ करती. खिचड़ी में आई मिठाई गाँव भर में बाँटी जाती और कितनों के लिए यह मौक़ा किसी और के मायके आई मिठाई के स्वाद से तुलना का होता.
खिचड़ी बीत जाने के महीने भर बाद यह सब याद करने की ज़रूरत फरवरी की 14 तारीख़ को पड़ने वाला पर्व है. इसकी तैयारी भी काफ़ी पहले से शुरू हो जाती है. पिछली सदी के आख़िरी दो दशकों में अवतरण के साथ ही पूरी शानो-शौकत से ज़माने की चेतना पर छा गया यह त्योहार कब एक रोज़ से हफ़्ते भर का हो गया, पता ही नहीं चला. गो कि पूर्ण आहूति की तारीख़ तय है – 14 फ़रवरी. त्योहार भर ऊर्जा का संचार इस क़दर रहता है कि पुलिस को ख़ास तौर पर तैयार रहना पड़ता है.
हमारे पुरखों को तो छोड़िए, ख़ुद हमें तीसरी सदी के उन रोमन संत के बारे में कुछ नहीं पता, बाज़ार ने जिनको इस नए पर्व का प्रेरणास्रोत बताया. हमने तो दरअसल उन अनिल मूलचंदानी का भी नाम नहीं सुना था, जिन्होंने दिल्ली के कमलानगर में साड़ियों की दुकान चलाते-चलाते आर्चीज़ के नाम से पोस्टर और फिर ग्रीटिंग्ज़ कार्ड बनाने शुरू कर दिए. कॉमिक्स वाले आर्चीज़ से पहचान थी तो कार्ड और गैलरी को किसी अमेरिकी कारोबारी की हिक़मत ही जाना था. 1979 में शुरू हुआ मूलचंदानी का नया कारोबार 1985 आते-आते ‘सोशल फ़ीलिंग्ज़’ के कारोबार का बड़ा ब्रांड बन गया. देश के नामचीन अख़बारों में इसी साल 14 फ़रवरी के त्योहार को समर्पित ख़ास कार्ड्स के विज्ञापन पहली बार छपे.
15 अगस्त 1975 को आई फ़िल्म ‘जय संतोषी माँ’ हिट होने के साथ हिंदी पट्टी में जिस तरह नई चेतना और एक नई व्रत कथा का प्रसार हुआ, 14 अगस्त 1985 को आए ग्रीटिंग्ज़ कार्ड के उस विज्ञापन ने उसी तरह न सिर्फ़ नए क़िस्म की अखिल भारतीय चेतना को जन्म दिया बल्कि एक नए त्योहार की शुरुआत की नींव का पत्थर बन गया. और फिर मील का.
शहर-शहर आर्चीज़ की गिफ़्ट गैलरी खुलने लगीं. बंदर, लोमड़ी, सियार, ऊदबिलाव वगैरह को वन्य जीव मानने वाले समाज ने संपेरे और मदारी की अपनी छवि झटक फेंकने की व्यग्रता में भालू को अपना मस्कट मान लिया. काले भालू का नाच देखकर बड़े हुए लोगों को ये रंग-बिरंगे भालू बहुत भाए. इतने भाए कि दुकानों से निकलकर फ़ुटपाथों पर फैल गए. ‘मेरा नाम जोकर’ वाले राजकपूर जिस तरह का दिल लेकर घूमा करे थे, उसी से मिलती-जुलती शक़्ल वाले छोटे-बड़े दिलों का बाज़ार सजा.
दुकानों मेंं जन्मदिन या नए साल की मुबारकबाद वाले ग्रीटिंग्ज़ कार्ड से कहीं ज़्यादा दिव्य और भव्य त्योहारी कार्ड आ गए. जिन रोमन संत के नाम पर यह बाज़ार फला-फूला, उनकी तो नहीं मगर शीरी-फ़रहाद, रोमियो-जूलियट, हीर-रांझा और लैला-मंजनू वगैरह की महिमा का बखान करने, उनकी कथा कहने वाले पंडित भी पैदा हो गए. चरणामृत, न शंख ध्वनि पर श्रद्धा बरोबर. उस बेचारे का नाम मंजनू रखने वाले को कब मालूम रहा होगा कि किसी रोज़ लफ़ंगों की रेजिमेंट का बपतिस्वां उसी के नाम पर हो जाएगा या कि उसके नाम के इतने दुश्मन पैदा जाएंगे!
सूर, कबीर, तुलसी, मीरा, रसखान से लेकर स्वामी हरिदास और चैतन्य महाप्रभु जैसे संतों वाली भारत भूमि पर 14 फ़रवरी का विशेष महात्म्य है. भारत के महत्वपूर्ण त्योहारों की सूची में शामिल नहीं है और न ही ‘रेस्ट्रिक्टेड हॉलीडे’ की माँग उठी मगर हिंदुस्तान के अख़बार और बाज़ार का यह त्योहार रोम और रोमनों को, यूरोप और अमेरिका को धता बताकर यहीं की मिट्टी में जन्मा मालूम होता है.
साल भर तक सोशल मीडिया में किसिम-किसिम के रेडिकल विचारों से ब्रांडिग करने वाले कितने ही मानुष इन दिनों गड़बड़ाए दिखते हैं. कुछ तो ऐसे भी हैं, जो गुलाब की फ़ोटो से लजाते हैं सो पार्क से फूलों की क्यारी की फ़ोटो खींच लाते हैं और अपनी वॉल पर चिपकाकर त्योहार की मुबारकबाद दे डालते हैं. आत्ममुग्ध टाइप लोग अपनी सेल्फ़ी लगाकर हैपी-हैपी करते हैं.
ज्योतिषी से बच्चों के जन्म की शुभ घड़ी पूछकर डॉक्टर को ऑपरेशन का वक़्त बताने वाली पीढ़ी बच्चों के ब्याह के लिए 14 फ़रवरी को इतना शुभ और पवित्र दिन मानती है कि पंडित के मुहूर्त की उसे ख़ास ज़रूरत नहीं लगती. हैपी एनिवर्सरी की तारीख़ याद रखने का झंझट भी ख़त्म.
कुछ प्राणी यों प्रेम का संदेश फैलाने के लिए ही इस दुनिया में भेजे जाते हैं. फ़ूल तो फ़ूल, इन्हें अपनी कुर्सी-मेज़, माइक्रोवेव, मोटर, शहर, नदी, पहाड़ हर चीज़ से प्रेम हो जाता है. बाज़ार ऐसे प्राणियों को पोसता है. ये ही उसका जीवन रस हैं, प्राण वायु.
‘एक देश-एक त्योहार’ की योजना पर भविष्य में अगर कभी काम हुआ तो मुझे विश्वास है कि देश 14 फ़रवरी के पक्ष में मतदान करेगा. धर्मनिरपेक्ष चरित्र वाले ऐसे त्योहार की दूसरी मिसाल नहीं मिलती. हमारा सच्चा प्रतिनिधि त्योहार. कोई चोंचला नहीं. टैडी या चॉकलेट चोंचला नहीं, उपहार हैं.
पुराने ख़्याल वालों की एक ख़ामी तो यही है कि नई रवायत में वे फ़िट नहीं बैठते. मेरी दिक़्क़त भी यही है. मगर देखिए, पूर्णमासी को कलावती की कथा की तरह ही 14 फ़रवरी की कथा मैंने आपको सुनाई ही न! और यह त्योहार तो मुझे इसलिए भी पसंद है कि इसमें सुबह-सुबह उठकर नहाने की बाध्यता नहीं. बल्कि नहाने की ही बाध्यता नहीं, यू डी कोलोन से भी काम चल जाता है.
और हाँ, होली अगले महीने है. 28 तारीख़ को. फिर न पूछिओ – होली कब है? कब है होली?
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