तमाशा मेरे आगे | माँ भी सुन लेगी
(माँ का होना इस क़ायनात की हर शै के लिए नेमत है. बढ़ती उम्र और समझ के साथ रिश्ता जताने वाला यह एक लफ़्ज़ और मानीख़ेज़ होता चला जाता है, ममत्व की छटाओं के रंग पहले से ज़्यादा साफ़ और चटख़ होते चले जाते हैं, ज़िंदगी की ख़ुशियों और ग़म में भी माँ का साथ होना किस क़िस्म का संबल, कैसी तसल्ली होती है, कौन नहीं जानता. राजिंदर जी का यह मुख़्तसर-सा यह संदेश है – आजकल मन बहुत उचाट है, कुछ भी लिखने से कतराता हूँ. ये दो हफ़्ते पहले लिखा था. ईमेल से भेजा है, देखिए शायद ठीक लगे तो. यह भावाभिव्यक्ति उनकी मनःस्थिति को गहरे तक महसूस करने के लिए काफ़ी है. – सं)
शारीरिक सीमाओं
और उम्र से परे
मैंने भी गर्भ धारण किया है
और
गर्भ में धर ली है मैंने
अपनी माँ
जिसकी पसलियों से रचा हूँ मैं.
मेरी नाभि निशान है उसकी नाल का
मेरे नक्श बिम्ब हैं उस रूप के
मैं, उसका पुत्र, अब पोस रहा हूँ
गर्भ में उसी माँ को
अपनी नाभि में बचे उसी के ख़ून से
मैं संजो रहा हूँ उसे
अपने भीतर, इस से पहले
कि हम जा मिलें अनंत शून्य में
मेरे पेट की खींची हुई चमड़ी पे
उभर रही हैं उसकी मासूम आँखें
चौड़ा माथा, भरे होंठ और सुग्गे-सी गोल नाक
मेरी गोद अब भर ही जायेगी
फिर से जन्म लेना होगा उसे
मेरे लिए, अपने लिए.
एक बीज-सी होगी अंकुरित.
मैं उस से पूछता हूँ – मुझे जन्म देते
कितनी झेली तुमने प्रसव वेदना
कितनी पीड़ा, कितना हुआ था दर्द –
झेंप के वो मुहँ फेर लेती है, और
छुप कर सहलाती है अपनी कोख.
डर
उसकी आँखों से निकल
मेरी आँखों में आ ठहरता है
यक़ीन है मैं नहीं सह पाऊँगा
जच्चगी का असहनीय दर्द
न ही प्रसव के घाव
मैं नहीं तैयार हूँ झेलने को
बिछोड़े की टीस, स्वीकारने
अपने भीतर से उसका अभाव
और एक बार फिर से काटने
मुझ से जुडी उसकी नाल.
पर मैं चाहता हूँ एक बार,
बस एक बार,
उसके आने और जाने के बीच
मेरी छातियों में भी उतरे दूध
जैसे धरती पर उत्तरी थी गंगा,
मेरे कलेजे में भी उमड़े ममता
पालने से झूलें मेरे हाथ, और हाँ
फिर लम्बी नींद से पहले
मैं भी उसे सुनाऊं लोरियाँ
और अमृत काल के क़िस्से.
अभिमन्यु-सी
माँ भी सुन लेगी.
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