नज़रिया | गर्भ में छिपा है साहित्य का इतिहास
यूट्यूब पर अपलोड एक गीत ‘साधो भय में प्राण हमारे…’ अब तक अच्छी-ख़ासी ‘नॉकिंग’ बटोर चुका है. छह-सात अंतरे वाला यह अद्भुत गीत है और समकालीन भारतीय राजनीति के विद्रूप की चौखट को झकझोर डालता है. प्रस्तुति राजीव ध्यानी की है. रचना उन्हीं की है, या किसी और की, इस बात का कहीं कोई उल्लेख नहीं. उन्हें यूट्यूब पर हालाँकि खोजेंगे तो ‘प्रणाम वालेकुम’ और इस तरह की कुछ और व्यंग्य रचनाएँ देखने को मिलेंगी. वह कवि हैं या साहित्यकार? या स्टेंडिंग कॉमेडियन, जिसकी नयी- नयी रिवायत हाल के सालों में चल निकली है? यों औपचारिक रूप से वह ट्रेनिंग और रिसर्च कन्सल्टेंट है.
पिछले दो महीनों में देश ने जो कुछ देखा-झेला है, उसे महसूस करने वालों ने अपने-अपने ढंग से ज़ाहिर किया, कविता-गीत भी इसी का हिस्सा हैं. जैसा कि ऊपर ज़िक्र किया गया है, यह एक अद्भुत गीत है. हाल के सालों में हिंदी काव्यगत रचना के संसार में जो सामान्य सन्नाटा पसर आया है, यह गीत उसको तोड़ता है. भाषा और विन्यास, दोनों ही दृष्टियों से यह एक ऊंचे दर्जे की काव्य रचना है. हिंदी के एक नामचीन आलोचक मित्र को सुबह सवेरे इस गीत को व्हाट्सएप्प पर भेजा. कुछ ही क्षणों में उनकी प्रतिक्रिया देखने को मिली. “बहुत शानदार.” देखकर अच्छा लगा. प्रत्युत्तर में मैंने उन्हें लिखा, “प्रिय भाई, आपको यह बताने के लिए इसे भेजा था कि हिंदी में इस तरह की रचनाशीलता के पार्श्व में ढेर से नए लोगों का उदय हो रहा है. आलोचकों को इन्हे गंभीरता से लेना चाहिए. बने-बनाए वृत्त में गोल-गोल घूमने से मुक्ति लेनी चाहिए.” अपेक्षा के विपरीत आलोचक मित्र का कोई जवाब नहीं आया.
भारतीय समाज इन दिनों गहरी उठा पटक के बीच हिचकोले ले रहा है. आदमी के अंतर्मन में कोरोना के शिकंजों में फंस जाने का जितना ख़ौफ़ समाया है, उससे ज़्यादा अर्थ व्यवस्था में चल रहे ज्वार-भाटे ने उसके होश उड़ा रखे हैं. फ़्लैट या कार की उसकी ईएमआई का क्या होगा? 30 से 50 फ़ीसदी तनख़वाहें कटनी शुरू हो गई हैं. उधर कम्पनी की मेल (जिसमें जल्द ही 30 से 40 फ़ीसदी कमचारियों को अगले एक महीने में नया रोज़ग़ार ढूढ़ने की ‘सलाह’ है) उसे दहला रही है. उसकी नौकरी का क्या होगा? लॉकडाउन के दौरान अपने सहपाठी, दोस्त या पड़ोसी के बेरोज़ग़ार हो जाने और उनके घर में अचानक पसर आये मौन को देख कर वह घबरा जाता है.
वह अगर अपनी चॉल या झुग्गी-बस्ती में रोज़ सुबह ट्रेन में अपना रजिस्ट्रेशन करने की उम्मीद में निकलता है, दिन भर लाइन में लगा रहता है लेकिन फिर नम्बर न आने पर हताश वापस लौट आता है. इधर या उधर टीवी पर देखता है कि धक्का-मुक्की में फंसे हज़ारों मज़दूर आख़िरकार पैदल ही हज़ार-आठ सौ किलोमीटर दूर अपने गाँव की तरफ भागे जा रहे हैं तो वह बीबी से मशविरा करता है. अगली सुबह रमेश, वेताल, दधीच, मक़सूद, जुम्मन की अम्मा और सितारो और उसके मियां के साथ खुद भी अपने तीन बच्चों और बीबी का हाथ थामे सड़क पर निकल आते हैं. शहर दर शहर, सब उसी की तरह भागे चले जा रहे हैं – एक निश्चित फ़ैसले और हौसले के साथ. रास्ते में दुर्घटनाओं के हौलनाक़ नज़ारे मिलते हैं. बीबी और बच्चे काँप जाते हैं. वह उन्हें पुचकारता-दुलारता फिर आगे बढ़ जाता है.
वह सोचता है कि उससे तो कोई ख़ता हुई नहीं. हर बार दाढ़ी और कुर्ते की तरफ विश्वास भरी निगाहों से देखकर उसने तो उसी पार्टी को वोट दिया था. उसने तो कभी कैंडिडेट का नाम तक नहीं पूछा. न जानना चाहा. यह शिकायत भी नहीं की कि कुल जमा पांच साल में जीता हुआ आदमी उसके द्वार आया या नहीं. फिर उसके साथ क्यों धोखा हुआ? क्यों उसे नौकरी से भगाया गया? क्यों वह बिलबिलाता भटकता रहा? क्यों उसे उल्लू बनाया गया? क्यों उसके साथ फ़रेब हुआ? तब और ठीक तब उसके मन में ग़ुस्से और नफ़रत का ग़ुबार पैदा हुआ. पैदल चलते-चलते उसकी चप्पलें घिस कर पापड़ हो गईं, उसके भीतर का ग़ुबार ज्वालामुखी में तब्दील होता गया. अगर यह हुआ तो देर-सबेर ग़ुबार के बादलों की ओट से वह भी निकलेगा जिसकी नौकरी ‘मेल’ की धमक से चली गई थी. इस सारे निर्वात में जो कुहासा जन्मेगा, यक़ीन के साथ कुछ आगे चलकर वह भी कूद पड़ेगा जो अपनी ईएमआई न चुका पाने के ख़ौफ़ में इधर-उधर मुंह छुपाये डोल रहा है. दूर क्षितिज पर बैठा कवि-कथाकार भविष्य में उठने वाले इस बवंडर को भांप कर आज ही से लिखना शुरू कर देगा, इतिहास के पन्नों में वही अमरत्व ग्रहण करेगा. जो आलोचक उसके साहित्य की मीमांसा में रूचि लेगा, वही ‘साहित्य का इतिहास’ लिख सकेगा.
आवरण | माइकेलएंजेलो की पेटिंग
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