गंगा-बोट कैटलॉग | एक नाव के अधूरे सफ़र की दास्तान
नई दिल्ली की ललित कला अकादमी में 1997 की नवीं त्रिवार्षिक कला प्रदर्शनी में 48 देशों के कलाकारों के क़रीब चार सौ प्रदर्श शामिल थे. दो जर्मन कलाकारों एंड्रिया रिक्सन्स और स्टीफ़न की ‘गंगा बोट’ और उनकी गंगा-यात्रा की टेराकोटा डायरी भी प्रदर्शनी में शामिल थी.
यात्रा के दौरान दिन भर के काम और अनुभवों को टेराकोटा में ढालते रहे इन चित्रकारों ने इसे ‘स्टोलेन फ़ोटोज़’ कहा जो एक तरह से उनकी ‘लॉग बुक’ भी थी. मैंने यह प्रदर्शनी नहीं देखी मगर इन जर्मन कलाकारों की तरफ़ से इस मौक़े पर छापा गया कैटलॉग (जिसे उन्होंने अ बुक ऑन द बोट कहा है) हाथ लगा तो उसे देखने-पढ़ने के बाद की बेचैनी का नतीजा यह हुआ कि उन दोनों को खोजकर ऋषिकेश में उनसे मिला, उनकी बनाई नाव देखी, उनके अनुभव सुने और उनकी बेटी से मिला, जिसका नाम उन्होंने दुर्गा रखा है.
यह कैटलॉग दुनिया भर की कला-शिल्प और उसकी सृजन प्रक्रिया को समझने के उत्साही दो नौजवान कलाकारों की यात्राओं का ब्योरा है, सफ़र के अलग-अलग पड़ावों तक पहुंचने के अनुभव और असर, ख़ुद उनके सृजन के बारे में, नाव बनाने और हिन्दुस्तानियों के जीवन में गंगा के महत्व को समझने के इरादे से शुरू की गई मगर अधूरी रह गई यात्रा के ख़ुशनुमा और त्रासद अनुभवों का ऐसा ब्योरा है, पढ़ने वाले के लिए जिसका हासिल अन्ततः बेचैनी और शर्मिंदगी भी है.
बक़ौल स्टीफ़न, स्टुटगर्ट की फ़ाइन आर्ट्स एकेडमी से पढ़ाई पूरी करने के बाद मैंने और एंड्रिया ने यूरोप के अपने पुरखे शिल्पियों के नक़्शेक़दम पर चलने की ठानी, जो दुनिया भर में घूम-घूमकर सीखते और तजुर्बा हासिल करते रहे. हम दोनों ने अपनी कार, फ़्लैट और तमाम सामान बेचकर अपनी ज़रूरत भर का सामान दो बैकपैक में संभाला. सफ़र के लिहाज़ से हम दोनों ने अपने लिए बढ़िया बूट ख़रीदे और निकल पड़े. यह जून 1993 की बात है. हिन्दुस्तान पहुंचने से पहले मध्य अनातोलिया (तुर्की) के शहर सिवास में लकड़ी की सराय, रोमानिया के सिबियु में ग्लास पेंटिंग वाली खिड़कियों के पीछे और ऑस्ट्रो-हंगेरियन बॉर्डर पर लकड़ी के बुतों के क़रीब मद्धिम ही सही मगर हमारी छाप ज़रूर मिलेगी. हमारा इरादा मंथर और स्वाभाविक इंसानी गति से जिज्ञासुओं की तरह सफ़र करने का था ताकि हम अलग-अलग संस्कृति-सभ्यता-धर्म का मर्म भी समझ पाएं, वास्तुशिल्प और परंपराओं को आत्मसात कर सकें.
हम दोनों जहां रहते और काम करते हमारी पूरी कोशिश होती कि हम स्थानीय लोगों की तरह रहें, खायें-पिएं, उनकी भाषा-बोली सीखते, उनकी तरह कपड़े पहनते. सिवास में हम छह महीने रहे तो हमने अपने तक बदल लिए. तुर्की के अपने दोस्तो के लिए हम आइसे और मुस्तफ़ा बन गए. जर्मनी छोड़ने के ढाई साल बाद हम ऑस्ट्रिया, हंगरी, रोमानिया, बुल्गारिया, तुर्की, ईरान और पाकिस्तान होते हुए हिन्दुस्तान पहुंचे. हमने सुन रखा था कि हिन्दुस्तान में कलाकारों की बहुत क़द्र होती है. यह भी कि बेलग़ाम ट्रैफ़िक औऱ सड़कों पर गायें और भिखारी मिलना आम बात है.
वाघा की सीमा पार करने के डेढ़ दिन बाद हम अमृतसर पहुंच गए और कुछ रोज़ स्वर्ण मंदिर की धर्मशाला में रहे. अमृतसर से निकलने के बाद अगले दो महीनों तक हम कई त्योहारों के साक्षी बने, शिवरात्रि और फिर होली. कितने ही मंदिरों में ठहरे, साधु-संतों से मिले और इस पूरे रास्ते भर रात होने पर कोई न कोई हमें रोककर खाना खिलाता-ठहराता, कितने ही अनजान लोग हमारे मेज़बान बने. ऋषिकेश पहुंचे तो हमारे हाथों में रास्ते से इकट्ठा किए हुए फूल थे, जिन्हें लेकर हम सबसे पहले गंगा के किनारे गए और फूल गंगा को अर्पित किए. यहीं हमने लकड़ी की नाव बनाने का इरादा किया और यह भी कि बनारस तक गंगा का सफ़र करके यह समझने की कोशिश करेंगे कि लोगों की ज़िंदगी में इस पवित्र नदी की क्या अहमियत है?
कुछ महीनों की मेहनत से दोनों ने आख़िरकार अपनी नाव बना ली, गंगा और उनके वाहन मगरमच्छ के साथ कई देवी-देवताओं के शिल्प बनाकर निर्विध्न यात्रा की तैयारी की. रास्ते में जगह-जगह बने बैराज के चलते नदी में पानी की कमी को ध्यान में रखकर नाव में पहिये भी लगाए. और एक रोज़ सुबह गंगा-बोट को गेंदे की मालाओं से सजाकर, गंगा-जल छिड़कर देवों की आराधना के बाद विदा करने आए लोगों में मिठाई बांटकर दोनों ने अपना सफ़र शुरू किया. कितनी ही जगह पानी कम होने पर नाव को नदी से बाहर निकालना पड़ा, कभी पहियों पर खींचते हुए तो कभी ट्रैक्टर पर लादकर आगे बढ़ते और जहां पानी पर्याप्त मिलता नाव का सफ़र फिर शुरू हो जाता.
इस सफ़र के महीने भर बाद शाम को जब वे रुकने और ठहरने के लिए माक़ूल जगह तलाश कर रहे थे, कई हथियारबंद लोगों ने उन्हें घेर लिया. काफ़ी दूर तक रेत पर चलने के बाद उन लोगों ने नाव से मच्छरदानी, फल, फ़िल्म रोल, कम्पास और कुछ औजार ले लिए. उन दोनों की तलाशी में मिले पासपोर्ट और डॉलर छोड़कर बाक़ी नगदी और सामान छीन लिया. डकैतों ने जब उन दोनों को अलग करने की कोशिश की तो उनकी मंशा भांपकर उन्होंने विरोध किया. डकैतों ने लाठियों और बंदूक की बट से ख़ूब मारा फिर स्टीफ़न को रस्सी से बांध कर एंड्रिया को घसीटकर ले गए. वह चीख़ रही थी. मगर थोड़ी देर बाद ख़ामोशी छा गई. स्टीफ़न ने लिखा है – मैं हैरान था कि क्या नियति ने हमारी मृत्यु के लिए यह जगह चुन रखी थी? मगर थोड़ी देर बाद लौटे उन लोगों ने मेरी रस्सियां खोल दीं और ढकेलते हुए नाव तक ले गए. एंड्रिया नाव के डेक पर लेटी हुई थी. मैं नाव में चढ़ा ही था कि उन लोगों ने ढकेलकर नाव पानी में उतार दी. उस पस्त हालत में किसी तरह नाव दूसरे किनारे तक ले गया. एंड्रिया ने उतरकर गंगा के पानी में डुबकी लगाई और फिर एक-दूसरे का हाथ पकड़कर हम रेत पर कुछ दूर आगे तक गए. हमें दूर से दिखाई दे रही छाया दरअसल एक आदमी की मृत देह थी, भेड़िया जिसे खींच रहा था. हम कांप उठे.
उसी वक़्त दोनों ने नाव से आगे की यात्रा का इरादा छोड़ दिया. उन्होंने सोचा कि जीवन ज़्यादा ज़रूरी है और फिर उनका काम. इसके बाद स्टीफ़न ने गंगा-बोट में जो दर्ज किया है, वह गांव वालों की मदद से पुलिस तक पहुंचने, रिपोर्ट लिखाने और नदी से नाव निकालकर दिल्ली में ललित कला अकादमी के गढ़ी स्टुडियो तक पहुंचाने की तफ़्सील है. इसके साथ वह अपनी और एंड्रिया की मनःस्थिति के बारे में लिखना नहीं भूलते. उस रात के हादसे को एंड्रिया ने जिस तरह बर्दाश्त किया, स्टीफ़न उस हिम्मत का उत्स भारतीय दर्शन को मानते हैं. कहते हैं – हम दोनों ही यह मानते हैं कि हमारी ज़िंदगी पर हमारा नियंत्रण नहीं है, उसकी डोर तो किसी और के हाथ है. एंड्रिया ने उस रात के हादसे को मुझसे कहीं बेहतर और संयत ढंग से बर्दाश्त कर लिया. यही अगर कुछ साल पहले हुआ होता तो मुझे यक़ीन है कि वह पागल हो गई होती.
पहले उन दोनों ने गंगा-बोट को जर्मनी भेजने के बारे में सोचा था मगर बाद में ऋषिकेश के त्रिवेणी घाट पर पक्का ठिकाना बनाकर वहां के लोगों को समर्पित करना तय किया. गंगा-बोट लौटकर वहीं पहुंच गई, जहां से उसका सफ़र शुरू हुआ था.
गंगा-बोट की प्रस्तावना में अशोक वाजपेयी ने लिखा है – एक दिन नाव अपने आख़िरी ठिकाने पर पहुंच जाएगी. एक दिन जब पार करने के लिए कुछ नहीं बचेगा. एक दिन किनारों से हम सभी अपने घरों को लौट आएंगे. नाव से और किनारों से टकराकर पानी उसी तरह बिखर जाएगा, जैसे कि शाश्वत से टकराकर समय और ज़िंदगी या मौत से टकराकर हम. नाव की तरह हम सारे अपने अंदर एक स्वप्न समेटे हुए हैं, जिसे हम न तो कहीं छोड़ सकते हैं और न ही उस पर सवार होकर समय की नदी को पार कर सकते हैं.
प्रसंगवश, इतना और कि ऋषिकेश में इन दोनों कलाकारों से मुलाक़ात के बाद ‘अमर उजाला’ के सम्पादकीय पन्ने के लिए मैंने जो लेख लिखा, उसे पढ़ने के बाद डंगवाल साहब ने इस बात को लेकर मेरी ख़ूब लानत-मलानत की थी कि एंड्रिया के साथ हुए हादसे और उससे उबरने के साहस में भारतीय दर्शन का उल्लेख मैंने जानबूझकर किया कि मेरी सोच पर पोंगापंथ हावी होने लगा है. उन्हें मेरा यह प्रतिवाद भी क़बूल न हुआ कि यह मेरी कल्पना या मेरा मत नहीं है, कलाकारों की अनुभूति है. कैटलॉग पर लिखते हुए आज बार-बार वह बहस भी याद आती रही है.
सम्बंधित
कैटलॉग | स्टीफ़न हर्बर्ट की फ़ोटो प्रदर्शनी ब्राज़िलिया-चंड़ीगढ़
कैटलॉग | इण्डिया – हेनरी कार्तिए-ब्रेसाँ
अपनी राय हमें इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.
अपना मुल्क
-
हालात की कोख से जन्मी समझ से ही मज़बूत होगा अवामः कैफ़ी आज़मी
-
जो बीत गया है वो गुज़र क्यों नहीं जाता
-
सहारनपुर शराब कांडः कुछ गिनतियां, कुछ चेहरे
-
अलीगढ़ः जाने किसकी लगी नज़र
-
वास्तु जौनपुरी के बहाने शर्की इमारतों की याद
-
हुक़्क़ाः शाही ईजाद मगर मिज़ाज फ़क़ीराना
-
बारह बरस बाद बेगुनाह मगर जो खोया उसकी भरपाई कहां
-
जो ‘उठो लाल अब आंखें खोलो’... तक पढ़े हैं, जो क़यामत का भी संपूर्णता में स्वागत करते हैं