इंटरव्यू | कविता के नशे ने मुझे उम्र-भर बेहोश रखा

(‘एक मस्त फ़कीरः नीरज’ गोपालदास नीरज की सर्जना के तरीक़े और उनकी फ़िक़्र को बेहतर ढंग से समझने की कुंजी भी है. इस किताब में डॉ. प्रेम कुमार ने उनकी शख़्सियत के कितने ही रंग संजोये हैं, उनके कृतित्व को समझने में मददगार तमाम पहलुओं पर विस्तार से और बेबाकी से बातचीत की है. नीरज से उनका लंबा साक्षात्कार हम यहां तीन कड़ियों में छाप रहे हैं. -सं)
नीरजजी को दिनकरजी ने ‘हिन्दी काव्य की वीणा’ तथा भदन्त आनन्द कौसल्यायन ने ‘हिन्दी का अश्वघोष’ कहकर उनकी काव्य-प्रतिभा का अभिनन्दन किया था. उनके जीने, लिखने और पढ़ने के अन्दाज के चलते उन्हें कबीर या जीवित किंवदन्ती कहने-मानने वालों की संख्या कम नहीं है. अधिक नहीं, पर उनके कुछ करीबी, मित्र ऐसे भी हैं जिन्हें उनके ‘लोभ’, उनकी ‘प्रीति’ और सादगी के विषय में ‘इस-उस’ तरह की गढ़ी-बनी बातें सुनाने-फैलाने में सुख मिलता है. कबीर या जीवित किंवदन्ती बन जाने की प्रक्रिया में वैसे भी जाति, धर्म, कुल, शील आदि की चिंताएं खास अर्थ नहीं रखतीं, जल में जन्म लेने के बावजूद उससे ऊपर उठ लेने, अलिप्त रह सकने के कारण ही कमल को पंकज नहीं, नीरज कहा जाता है. जिन्दगी के रास्तों की तमाम तरहों की कीचड़ से अप्रभावित, निर्लिप्त, नीरजजी की भाग-दौड़, घर-गृहस्थी में रमे-फंसे होने पर भी स्वयं को फक्कड़-अलिप्त बताने की मजाक उड़ाते मैंने अनेक लोगों को सुना है, पर हाँ, उनके दम्भ, छिपाव या किसी प्रवाद, आलोचना, आरोप का उत्तर अभद्रता या अशालीनता के साथ देने का जिक्र कभी किसी ने नहीं किया. पहले उन्हें अनेक बार सुना है, उनकी समीपता पाने के भी अवसर मिले, परन्तु इस बार कई दिन, कई-कई घंटे तक उनसे बातचीत करने के बाद लगा कि अब से पहले नीरजजी के बारे में जितना जाना-सुना था, वह नितांत आंशिक, अधूरा और बचकाना था. जिस मिलने में सचमुच मिलने का सुख मिल जाए, वह यादगार तो बन ही जाता है.
आँधी के बाद की तेज बारिश के निशान उस सुबह नीरजजी के तख्त के आस-पास साफ-साफ और बड़े-बड़े दिखाई दे रहे थे. धूल ओढ़े चादर, बिना कवर, मैल सनी मसनद. प्लास्टिक की निवाड़ से बुनी धूल लिपटी कुर्सियाँ…इन सबसे बेखबर नीरजजी, उमस से अकुलाते, कभी-कभी हल्के-से कराहते हुए अपने इंजीनियर किराएदार से बातों में व्यस्त हैं, बिजली, पानी, धर्म, कर्म…विषय जल्दी-जल्दी बदल रहे हैं- ‘जान लो, जिस साल आम ज्यादा आएँगे, आँधियाँ अधिक आएँगी, प्रकृति का सन्तुलन का अपना तरीका है नहीं तो अधिक वज़न से पेड़ टूट नहीं जाएँगे?… कर्म तीन प्रकार के – क्रियमाण, संचित, प्रारब्ध…आदमी अपने से भागता है… जप, माला, छापा सब व्यर्थ…बिजली से ज्यादा दम तो इन्वर्टर में है, पंखा कितना तेज चलने लगा है!’ सिंगसिंग को आवाज लगाते हैं. डॉ. वार्ष्णेय के यहाँ जाकर कापियाँ आने का पता लगा आने के लिए भेजते हैं. मैंने कापियाँ जाँचने के उनके उछाह पर ताज्जुब किया तो बोले-‘हाँ, केवल एम.ए. की जाँचता हूँ, पिछली साल भी जाँची थीं, पढ़ाई का हाल यह है कि एम.ए. का लड़का लिखता है-उपन्यास सम्राट् कबीरदास! सब फेल हुए थे पिछली बार, बाद में सुना कि बीस-बीस नम्बर बढ़ाकर सबको पास कर दिया गया.’
कपड़े की आधी बाहों वाली बनियान, लुंगी, बढ़ी दाढ़ी! तख्त पर मुद्राएँ बदलते, अधलेटे-से नीरजजी! बोलते जाने में गति और उत्साह के साथ तन्मबयता भी. कविता की मौत, कवि-सम्मेलनों के स्तर में आई गिरावट और गीत को हाशिए पर धकेल दिए जाने की बात आई तो लगा सामने उत्खनन जैसी कोई प्रक्रिया शुरू हो गई थी. तत्क्षण एक सोता-सा फूट पड़ा था-‘गीतकार की मृत्यु’ शीर्षक से दिनकरजी की ‘धर्मयुग’ में एक बड़ी सुन्दर कविता छपी थी-‘गीतकार मर गया चाँद रोने आया, चाँदनी रोने लगी कफन बन जाने को/ मलयानिल ने शव को कंधे पर उठा लिया, वन ने भेजे चन्दन–श्री खण्ड जलाने को.’ क्यान कविता लिखी जाती थी उस जमाने में! तब गीतकारों का बहिष्कार किया जाने लगा था. लोगों ने मुझसे कहा कि दिनकर ने गीतकार की मृत्यु घोषित कर दी है, अब आप कुछ लिखिए, एक माह बाद हमारी कविता ‘गीतकार का जन्म’ छपी ‘धर्मयुग’ में ही-‘जब गीतकार जन्मा, धरती बन गई गोद/ हो उठा पवन चंचल झूलना झुलाने को…बाँसुरी बजाता निकला जब वह गीतकार/ तरुणियाँ ठगी रह गईं, गगरियाँ छलक पड़ीं/ ज्यों हृदय बहक जाए छू पुरवाई बयार/ तरुवर की डाली से बुलबुल बोलने लगी/ उफ, कैसा सम्मोहन है इसके गाने में/ जी करता है दे डालूँ उम्र इसे, अपनी/ ऐसा गुलाब तो देखा नहीं जमाने में.’ प्रगतिवादियों के बाद ‘तार सप्तक’ से एक अलग तरह का आन्दोलन चला था, समीक्षक, पत्रिकाएँ, रेडियो, सब उन्होंने हथिया लिये थे. गीतकारों के बारे में मौन साध लिया गया था, मैंने एक बार प्रभाकर माचवे जी से कहा कि यदि आप हमारी प्रशंसा न कर सकें तो गालियाँ ही दें. पता है वे क्या बोले? हँसते हुए उन्होंने उत्तर दिया- ‘यदि हम ऐसा करेंगे तो आपका प्रचार अधिक होगा.’ ये लोग नहीं चाहते थे कि हमारे काव्य का सही मूल्यांकन हो. आपका प्रचार अधिक हो गया. पचास से पिचहत्तर तक, पूरे पच्चीस वर्ष सब गीत के प्रति उदासीन रहे. गीतों को नकारा गया. चर्चा नहीं की कभी-कभी इसका जिक्र हो जाया करता था. जबकि समाज पर गीतकारों का प्रभाव था. वे सबसे ज्यादा सुने-पढ़े जाते थे. हमें मान्यता देते ही वे खुद कहाँ रहते! लिजलिजी भावुकता वाला कवि कहकर हमें हाशिए तक पर नहीं रखा. उन्होंने कहा कि जीवन की गति विश्वृंखलित है, छन्द से आज के समाज की अभिव्यक्ति नहीं होगी, जब छापेखाने नहीं थे तब कंठ से-कंठ तक चलने वाली कविता-गीत लिखे जाते थे. अब जब विज्ञान का युग है तब गीत क्योंि? पत्रिकाएँ, संगठन, आलोचक, कुछ भी तो नहीं था गीतकारों के पास, तब प्रचार के साधन केवल सम्मेलन थे. लाखों की भीड़ हमें सुनने को आती. उस सबका दुष्परिणाम यह हुआ कि अछांदसिक कवियों ने बड़ी संख्या में ऐसे कवि पैदा कर दिए जो पात्र ही नहीं थे. जो उल्टी-सीधी दो लाइन लिख दे, वह कवि हो गया. इतने कवियों को जन्म देकर भी उस तरह की कविता को समाज में लोकप्रियता नहीं मिल सकी. तब के प्रगतिवादी, फिर जनवादी, प्रयोगवादी और बाद की नयी कविता – तीनों अंगों में हम फिट नहीं होते थे. आलोचना का हाल यह कि ‘माक्षिका स्थाने मक्षिका’. किसी ने एक बार गलत लिख दिया तो आगे वही चलता रहेगा. एक-दो श्रृंगार की कविता हमने लिख दीं तो हम श्रृंगारी कवि हो गए. जबकि मैं श्रृंगारी कवि नहीं हूँ.
उस आन्दोलन से लड़ने के लिए हमने 1964-65 में ‘लय” पत्रिका निकाली. नौ अंक निकले, बम्बई चले गए तो बन्द हो गई. वे लोग पैसे देकर छपवाते प्रकाशक छाप भी देता तो किताबें नहीं बिकती थीं. मैं चवालीस से छप रहा हूँ. रायल्टी भी मिल रही है. एक-एक संस्करण की बीस-बीस, तीस-तीस प्रतियाँ खरीदी हैं लोगों ने, दोस्तों में बॉटने को, उस समय बच्चन, नेपाली, रंग, दिनेश, वीरेन्द्र, मिश्र, अवस्थी, गिरिधर गोपाल, रामअवतार त्यागी, दिनकर, नीरज, बाद में कुँवर बेचैन, भारत भूषण, सोम ठाकुर, किशन सरोज-सब सचमुच अपनी भंगिमा में थे. गीतकार नकारे गए तो वे कवि-सम्मेलनों में भाग गए. वहाँ भीड़ होती है, श्रोता नहीं होते. चुटकुले, लतीफे, विकृत रूप हो गया है अब. कवि-सम्मेलनों से अर्थ जुड़ गया और वे पशुमेलों, प्रदर्शनियों में पहुँच गए. रोटरी लाइंस जैसे क्लबों से जुड़े लोग स्वयं को बुद्धिजीवी साबित करने के लिए सम्मेलन कराने लगे. हास्य-व्यंग्य भी बड़ी चीज है, पर हो तो! अब तो कविता के नाम पर चुटकुले सुनाए जा रहे हैं. कवि-सम्मेलन भाँड़ों के दरबार बन गए हैं-‘कौन रचे कामायनी, कौन रचे साकेत? अब कवियों के रूप में हैं, कवियों के प्रेत” जिन पर साइकिल तक न थी, उन पर अब कोठी, कार, मोबाइल, और न जाने क्या-क्या हो गया है. ठेकेदारी शुरू हो गई है. कवि-सम्मेलन कराने को पूरा धन एक साथ ले लिया और आधा खुद रखकर बाकी कवियों को दे दिया. कराने वालों के पास बुद्धि, समय और श्रद्धा नहीं हैं इसीलिए ठेकेदार को धन दे आते हैं, ठेकेदार साफ बता देता है कवि को इतने मिलेंगे और रसीद इतने की ली जाएगी.
इन प्रवृत्तियों के बढ़ते जाने पर आप या आप जैसे अन्य कुछ कवियों ने कभी क्याा अपना विरोध प्रकट किया है?
विरोध किया, पर क्या हुआ? यहाँ अपने शहर में भी किया तो क्या हुआ? बाहर हम इन्वायट होते हैं और हमसे कोई इस तरह कह भी नहीं सकता. अब हमें इसीलिए कम बुलाते हैं लोग. मित्र-मण्डली बुला ली बस! आज दो मूल्य हैं मुख्य-अर्थ और काम! अर्थ को हमारे यहाँ पिशाच कहा गया है. धीरे-धीरे खून घूसकर मारता है. साहित्य, कला, धर्म, दर्शन, शिक्षा, राजनीति जहाँ भी यह केन्द्र बनेगा, सबको व्यर्थ सिद्ध कर देगा, विकृत कर देगा. अर्थ लक्ष्य नहीं, माध्यम हो सकता है. इसी ने आज धर्म को अधर्म कर दिया है. सबसे अधिक व्यापार के माध्यम आज धर्म और राजनीति हो गए हैं.
इस तरह के प्रदूषण के बढ़ते जाने से कविता के भविष्य पर किस तरह के दुष्प्रभाव की संभावनाएँ आप देखते हैं?
इस सबसे गीतकार हीन भावना से ग्रस्त हुआ और कविता की सही पहचान गायब हो गई. भीड़ के सामने के कविता पाठ से बड़ा फर्क पड़ा. एक जमाना था जब अध्यक्षता करने के लिए मैथिलीशरण गुप्त, निराला, महादेवी, गुरुभक्त सिंह ‘भक्त’ आदि आते थे. किसी ने मंच से यदि सस्ती कविता पढ़ दी तो तुरंत फटकार दें, हटवा दें. अब सस्ती पढ़ोगे तब ही चलोगे. तब कवियों को बुलाने, सम्मेलन कराने वाले पढ़े-लिखे, सुरुचि-सम्पन्न लोग होते थे, अब भी चार-पाँच स्थान ऐसे हैं, जहाँ अच्छी कविता का सम्मान होता है. डी.सी.एम. का कवि-सम्मेलन, जो तीस-पैंतीस साल से हो रहा है, एक इंडियन ऑयल वालों का, एक एन.टी.पी.सी. का, एक ‘गेल’ और एक ‘भेल’ का. एक परम्परा है अभी वहाँ पूर्वांचल में भी कविता बची है. 1983 में सबसे पहले मैं अमेरिका गया, मैंने दरवाजा खोला. अब वहाँ भी चुटकुलेबाज जाने लगे. कनाडा, आस्ट्रेलिया भी मेरे बाद जाना शुरू हुआ कवियों का. सबसे पहले काठमांडू, जब सुमनजी थे वहाँ, और तीन बार ब्रिटेन मैं गया. मेरा सौभाग्य रहा कि बड़े-से-बड़े कवि के साथ मैंने कविता पढ़ी, उनका आशीर्वाद मुझे प्राप्त हुआ. उर्दू के बड़े-से-बड़े शायर के साथ भी.
उर्दू के रचनाकारों के साथ आपका जुड़ाव कैसे हुआ? उनके सामीप्य-सान्निध्य से क्या आपने कुछ पाया भी?
1944 था तब शायद! शिमला में गाँधी-जिन्ना वाले सम्मेलन के बाद एक गीत लिखा था-‘आज मिला है गंगा जल, जल दमदम का’ यह गीत मैं दिल्ली के एक कवि-सम्मेलन में पढ़ रहा था. पढ़ने के बाद एक बुजुर्ग ने बुलाकर पूछा-‘साहबजादे आप क्या करते हैं?’ बताया कि सप्लाई विभाग में टाइपिस्ट हूँ. सड़सठ रुपए मिलते थे तब. ‘अच्छा, कल मेरे ऑफिस में आइए! मैं हिन्दी लिटरेरी असिस्टेंट बनाऊँगा तुम्हें! एक सौ बीस रुपए महीने मिलेंगे!’ ये थे हफीज़ जालंधरी साहब-अपने समय के बहुत बड़े शायर थे. जैसे दिनकर पटना में थे, वैसे ही
वे दिल्ली में सांइस पब्लिसिटी ऑर्गेनाइजेशन के डाइरेक्टर थे. वहाँ गए तो कहा गया कि गीतों के माध्यम से सरकारी योजनाओं का प्रचार करो. कवि-सम्मेलन कराने के लिए एक लाख रुपए आवंटित हुए. यू.पी., पंजाब आदि में जगह-जगह सम्मेलन कराए. तैंतालीस में बंगाल में पड़े अकाल के पीड़ितों की सहायतार्थ मारवाड़ियों ने तीन दिन का एक अखण्ड कवि-सम्मेलन कलककत्ते में कराया था. वहाँ गया तो अकाल पीड़ितों को खाने की चीजों के लिए कुत्तों से लड़ते देखा. मन काँपा तो कविता लिखी तुरन्त- ‘मैं विद्रोही हूँ, जग में विद्रोह कराने आया.’ राष्ट्रीय चेतना की वह कविता बहुत लोकप्रिय हुई. चवालीस के अंत या पैंतालीस के शुरू में देहरादून में एक सरकारी सम्मेलन कराया था. वहाँ यह कविता मैंने पढ़ी. सम्मेलन के बाद वहाँ तैनात डिप्टी कलेक्टर रशीद अहमद बुख़ारी ने मुझे बुलाया और कहा-‘नीरज, अब तुम दिल्ली मत जाना! तुम्हारी शिकायत हुई है कि तुम सरकार के पैसे से सरकार की खिलाफत कर रहे हो!’ मैं सीधा भाग आया कानपुर. सब सामान शाहदरे में ही छूट गया, जहाँ महाराम मुहल्ले में मैं रहता था. बाद में उनके वैसा कहने का कारण पता लगा. दरअसल उन्होंने मुझे एक साल पहले देहरादून में सुना था, प्रभावित होकर दूसरे दिन होने वाले मुशायरे के लिए रोका भी था. मुशायरे के सद्र जिग़र साहब से मुझे पढ़वाने के लिए गुजारिश भी की थी. आगाज़ मुझसे कराया गया मुशायरे का. जिगर साहब ने एक के बाद एक, तीन कविताएँ मुझसे पढ़वाई थीं और हर कविता के बाद मेरी पीठ ठोंकी थी-‘उम्रदराज़ हो इस लड़के की! क्या पढ़ता है जैसे नग़मा गूँजता है.’ वे ग़ज़ल के शहंशाहे-तरन्नुम माने जाते थे. कई लोग उनको स्टाइल में पढ़ते रहे. (उनकी ग़ज़लों के कई शेर सुनाने लगे हैं) शकील ने वह स्टाइल लिया है, शकील और मैंने साथ काम किया है. वे कम्पेयरर थे. शकील बदायूँनी तब बी.ए. पास थे और हम हाईस्कूल पास. नहीं, मेरा अपना स्टाइल रहा है. सिखाने पर भी कोई नहीं सीख पाया. कविता का सीक्रेट नहीं समझ सके, स्टाइल नहीं पकड़ सके सीखने वाले लोग. दरअसल मैं नजले का पेशेंट हूँ, आवाज से लगता है कि मैं शराब पीकर पढ़ता हूं.
जज़्बी साहब की ग़ज़ल- ‘अपनी सोई हुई दुनियाँ को जगा लूँ…’ की बात आई तो बताने लगे-हाँ, जज़्बी साहब की बहर मैंने ली. एक गीत लिखा- ‘ऐसी क्या बात है, चलता हूँ, अभी चलता हूँ/ गीत इक और अभी झूम के गा लूँ तो चलूँ…’ पूरा पढ़ने पर उसके भीतर की मस्ती दिखेगी. पता है टैगोर की क्या विशेषता है? उदात्त का कवि है. उससे बड़ा सब्लाइम का कवि हम पर नहीं. उसने ही मैंने ‘सब्लीमेशन” का सूत्र ग्रहण किया. आज का आदमी अपने संकटों में फँसा है. कविता में बुद्धि कौन लगाए? कुछ उसमें खास होगा, तभी तो उर्दू का आज गाया जा रहा है. राष्ट्रभाषा का कोई गायक नहीं है. तुलसी, सूर, मीरा के भजन गाए जाते हैं. वह आज हिन्दी में क्यों नहीं है? कौन पढ़े बोझिल कविताओं को? इसीलिए कविता अलोकप्रिय हो रही है.
उर्दू शायरी के प्रति आपका प्रबल आकर्षण रहा है. आप अधिकारपूर्वक उस पर बात करते रहे हैं. इस सन्दर्भ में अभी आपने हिन्दी कविता की जिस कमजोरी का उल्लेख किया, उसका क्या कारण आप मानते हैं?
इसका कारण क्या बताऊँ? हिन्दी कविता जुबान पर नहीं बैठती, उर्दू बैठती है. संचालन भी लोग शेर पढ़कर करते हैं. एक बड़ा गैप है, जिसे अछांदसिक कविता नहीं भरेगी. उसे कौन गुनगुनाता है? ज्यादा-से-ज्यादा कह देते हैं कि बढ़िया है. जो समाज के होठों पर रहेगा, वही भविष्य में जीवित रहेगा. कागज पर छपकर, घरों या लाइब्रेरी में बंद होकर नहीं. कितने ही कवियों की दो-चार पंक्तियाँ ही शेष रहेंगी. किताबें कितनों के पास हैं? टेनीसन, कीट्स, शैली या शेक्सपीयर आज किसलिए जिंदा हैं? टेनीसन की भी क्या एक-एक पंक्ति याद है? अमरनाथ झा जी ने कानपुर के सम्मेलन में मेरे द्वारा प्रथम श्रेणी प्राप्त करने का रहस्य पूछे जाने पर बड़ी सुंदर बात कही थी. तब मैं बी.ए. का छात्र था. कविता के लिए मेरी पीठ ठोंकते-ठोंकते मुस्कराते हुए बोले- ‘जितना याद कर लोगे वही तुम्हारा है.’ मैं नौकरी के कारण कालेज नहीं जा पाता था, पर अंग्रेजी की अनेक लम्बी-लम्बी कविताएँ मुझे याद थीं, लिटरेचर का एंज्वायमेंट होठों पर है. बातचीत के समय क्या किताब दूँढ़कर लाओगे?
झा साहब की बात पर उन्हें अपनी आर्थिक तंगी क़े दिन, कई लोगों की महानताएँ याद हो आई हैं. नेहरूजी की पत्र के उत्तर देने की प्रवृत्ति की प्रशंसा करते-करते के.पी. भटनागरजी से जुड़ी यादों को सुनाने लगे हैं-पहली जून को गुंजन, मेरा पुत्र पैदा हुआ था, तभी रिज़ल्ट आया था. भाइयों की फीस माफ न होने के कारण मैं परेशान था. भटनागरजी ने एक भाई की आधी फीस माफ करने से मना कर दिया था. कमरे पर आया तो अन्दर बड़े भाई बैठे थे. मैंने उनकी तरफ एक अंगुली उठाई, उत्तर में उन्होंने भी एक अँगुली उठाई. मैंने बताया कि मैंने इसलिए ऐसा किया कि आपका भतीजा पैदा हुआ है. उन्होंने बताया कि तुम्हारी फर्स्ट डिवीजन आई है, मैंने इसका इशारा किया था. उन्होंने बताया कि रात में भटनागर साहब मुझे पूछते-पूछते कमरे पर यह बताने आए थे. फीस माफ न करने का शिकवा पता नहीं कहाँ चला गया था? और अब बच्चनजी को याद कर रहे हैं-बच्चनजी की ‘मधुशाला’ पढ़-सुनकर उन्हें हालावादी कह दिया गया. उन्हें मैंने जितनी गहराई से पढ़ा-सुना है, उतना शायद बहुतों ने नहीं. बच्चनजी पर सबसे पहले ‘बच्चन एक युगांतर’ नाम से पुस्तक मैंने सम्पादित की थी, ‘एकान्त-संगीत’ के बाद ‘मिलन यामिनी’, ‘मधुशाला’ के बाद ‘हलाहल’. जीवन के दो छोर ‘हलाहल’ अपूर्व कृति है. लोगों ने पढ़ी नहीं, ‘निशा निमन्त्रण’ सौ गीतों का एक खंडकाव्य है. एक गीत नहीं, उसे पूरा एक साथ पढ़िए. सॉनेट वाला पैटर्न है. संध्या से सुबह तक के एक-एक क्षण का सूक्ष्म निरीक्षण है वहाँ. पत्नी का देहांत हो चुका है, उसके बाद की अनुभूति है. (गद्गद भाव से सुना रहे हैं)- एकांत है, मन दुखी है, एक किरन चन्द्रमा की झरोखे से अन्दर आकर पड़ गई है- ‘दे रही कितना दिलासा/आज झरोखे से जरा-सा/चाँदनी पिछले पहर की पास में जो गई है/रात आधी हो गई है.’ क्या बढ़िया चित्र है, अनुभूति है! अकेले आदमी के इस सूक्ष्म निरीक्षण को कितनों ने समझा? पत्नी वियुक्त के हृदय की दशा! ‘हलाहल’ में शुरू की पंक्ति जीवन की बड़ी अद्भुत व्याख्या है-‘जगत् घर को विष से कर पूर्ण, किया जिन हाथों ने तैयार/लगाया उसके मुख पर नारि, तुम्हारे अधरों का मधुसार/नहीं तो कब का देता तोड़, पुरुष विषघट ये ठोकर मार/इसी मधु का लेने को स्वाद, हलाहल पी जाता संसार.’ भावातिरेक में बार-बार पंक्तियाँ गुनगुनाए जा रहे हैं.
मंचीय कविता की तमाम तरह की दुर्गतियों से अवगत होने के बावजूद आप इस सीमा तक उससे निरन्तर क्यों जुड़े रहे? मंचीय कविता को मौजूदा हाल तक लाने के लिए आप किसे जिम्मेदार मानते हैं?
हम सम्मेलनों में जाना नहीं छोड़ सकते: जीविका का हमारे पास अन्य कोई साधन नहीं है. और यदि हम दो-चार लोग छोड़ देंगे, तो मंच पर कविता खत्म हो जाएगी. सोम, बेचैन, नूर (तब उनका देहान्त नहीं हुआ था), भारत भूषण, किशन सरोज, नीरज, विष्णु सक्सेना, देवल आशीष, कीर्ति, अनु जैसे लोग बाहर हुए तो राजनीति, चुटकुले और व्यंग्य के अलावा वहाँ क्याह बचेगा? व्यंग्य भी अशोक चक्रधर, भाविक वर्मा, ओमप्रकाश आदित्य जैसे कुछ लोग लिख रहे हैं, बाकी तो ज्यादातर चुटकुलेबाजी है. लेकिन इसके लिए कवि दोषी नहीं है. इसके बावजूद कि वह जनता की रुचि से जुड़ने के लिए खुद नीचे गिरा जबकि उसे रुचि को बढ़ाना था, उठाना था. पैसा खून चूस लेता है दरअसल. पहला दोष है संयोजक का. आप किसे बुला रहे हैं? सुनने वाले कैसे बुलाए हैं? स्पांसर इसलिए दोषी कि वह नहीं देखता कि इतनी बड़ी रकम का दुरुपयोग क्योंु हो रहा है? संचालक का अपना अलग दोष है. कवियों को पैसा जरूर मिले, पर किसी ढंग और स्तर का तो ध्यान रखा जाए. पैसे का अब बहुत आधिक्य हो गया है. अब हम एकल पाठ कर रहे हैं. हमारे नाम से संध्याएँ-निशाएँ आयोजित होती हैं. देश में ढाई-तीन घंटे तक पढ़ सकने वाले हम ही हैं. कविता की नई पहचान ऐसी छोटी-छोटी गोष्ठियों से बनेगी. यह दौर शुरू हो चुका है. पशु मेलों या प्रदर्शनियों में कौन सुनता है कविता? रात में कहाँ जाएँ बेचारे? सो टेंट में सोने चले आते हैं.
पहले मंच और साहित्य की कविता के बीच खाई नहीं थी. नयी कविता वालों ने यह शुरू की. ‘सत्य के अन्वेषियों’ के बाद के लोग इस फतवे से कि मंच वाला साहित्यकार नहीं है, ज्यादा प्रभावित हुए हैं. तब माखनलाल चतुर्वेदी, महादेवी, निराला जैसे लोग मंच से पढ़ते थे. अच्छी, श्रेष्ठ रचनाएँ पढ़ी जाती थीं और उन्हें सराहना मिलती थी. एकाधिक स्थानों से कवि-सम्मेलन प्रसारित होते थे और सारे देश में सुने जाते थे. मैंने ‘कारवाँ गुजर गया… ‘ गीत 1955 में पहली बार लखनऊ रेडियो स्टेशन से पढ़ा. ओवरनाइट सारे देश में लोकप्रिय हो गया. पाकिस्तान तक के लोग चौंके कि ‘कारवाँ गुजर गया’… फ्रेज़ हिन्दी का कवि प्रयुक्त कर रहा है. पहले टी.वी. तो था नहीं. ‘जी उठे शायद शलभ इस आस में, रात भर रो-रो दिया जलता रहा”, ‘बिजलियों का चीर पहने थी निशा… ‘ जैसे गीत सुने-सराहे जाते थे. तब बीच की खाई नहीं थी. नयी कविता वाले यदि हमें मान्यता दे देते तो दोनों जगह हम ही होते. तब वे कहाँ होते? वे लोग समाज में लोकप्रिय नहीं हो पाए. अति बौद्धिकता, दुरूहता के कारण. उन्होंने बिम्बों, प्रतीकों और भाषा के स्तर पर नये आयाम खोले, अनगिनत कवि पैदा किए, पर लोकप्रिय नहीं हो पाए. इलियट ने कहा है कि पोयट्री इज़ आल्दो द क्रिएशन ऑफ इंडिविजुअल माइंड, बट इट इज गिविन टू द नेशनल माइंड! यह नेशनल माइंड क्या है? शताब्दियों के संस्कारों से बनता है नेशनल माइंड. कविता जब देश के सामूहिक, देशीय संस्कार को स्पर्श करेगी, तभी हृदय में बैठेगी. कविता का सम्बन्ध संस्कार से है. कविता के हमारे ये संस्कार पाँच हजार साल में बने हैं. मैं बिम्ब दे रहा हूँ-‘अपने आँगन के उन शैतान चिरागों के हाथों से दूध-कटोरा छिनने वाला है.’ यह हमारा है. दूध-कटोरा की जगह चाय का प्याला कर देने पर हास्यास्पद हो जाएगा न? चिरागों के साथ शैतान विशेषण सुनते ही ध्यान बच्चों पर जाएगा.
काव्य पंक्तियाँ उद्धृत करने और उनकी व्याख्या समझाते-समय उनका उत्साह और अध्यापक रूप सामने आने लगता है. अध्यापक भी ऐसा, जो कविता का मर्म खुद तो समझता ही है, दूसरों को भी समझा सकता है. कविता में बिम्ब, प्रतीक आदि का स्थान और भूमिका के बारे में मेरे एक प्रश्न के उत्तर में तुरन्त काव्यशास्त्री की तरह समझाने लगे–1919 में अंग्रेजी में ‘इमेजिस्ट” का एक आन्दोलन चला था. सात कवियों ने मिलकर रोमैंटिक कवियों के खिलाफ आवाज़ उठाई थी. लेविस कहता है कि एक मौलिक बिम्ब जीवन-भर की कविता से बढ़िया है. बिम्बवादी इसी को लेकर आए. कविता के बिम्ब ग्रहण कराने की शक्ति को शुक्ल जी ने अपनी तरह से कहा है, हम भी मानते हैं. पर हमारी मान्यता यह है कि बिम्ब-ग्रहण से पहले बिम्ब-विधान का ज्ञान आवश्यक है और यह बिना गहरी अनुभूति के प्राप्त नहीं होता. जब तमीज न होगी तो कोई क्या ग्रहण करेगा? यहाँ से देखे, वहाँ से देखे, बिम्ब दे दिए, क्योंीकि गहरी अनुभूति नहीं है, इसलिए उसका विधान नहीं है. क्रोंचे ने कहा था कि अगर फॉर्म कमजोर है तो इसका मतलब यह है कि विषय की गहरी अनुभूति नहीं है. फॉर्म को कपड़ा नहीं, स्किन मानता है. वह कपड़ा अलग हो सकता है, पर स्किन नहीं. कथ्य और फॉर्म का अविभाज्य रह आना बिना गहरी अनुभूति के संभव नहीं.
नीरजजी औरों की कविताओं को बीच-बीच में प्रायः सुनाने लगते हैं, उदारता पूर्वक उनकी प्रशंसा करने लगते हैं. अटल बिहारी वाजपेयीजी की कविता की बात चली तो उनके साथ छात्रावास में बिताए दिनों की याद उन्हें हो आई. अपने पुत्र प्रेम के कारण बाजपेयीजी के पिताजी का खुद भी दाखिला लेने का किस्सा सुनाने लगे. उनकी कविता के बारे में पूछा तो बोले-‘साफ्ट वॉयस में वीर रस की कविता है उनकी. उनकी कविता में ‘फाइननेस’ तब भी नहीं थी, अब भी नहीं है? एकदम बेबाक राय हर कवि की कविता के बारे में. नयी कविता से जुड़े नामों की बात चली तो कई कविताएँ सुना डालीं और बताने लगे-‘सर्वेश्वर को पढ़ा है. भारती की “कनुप्रिया’, अज्ञेय की कुछ पंक्तियाँ अच्छी लगीं. भवानी प्रसाद मिश्र में नाटकीयता ज्यादा है, वे बड़े कवि नहीं हैं. गिरिजा कुमार माथुर में बौद्धिक आयाम ज्यादा है. यद्यपि वे गीत लिखते रहे हैं, सुन्दर गाते थे, पर गीत कोई लोकप्रिय नहीं हुआ. भारती ने मुक्त छन्द में भी लिखा, पर पहले सुन्दर गीत लिखते थे. अमेरिकन कवि ऐ.ई. हाउसमैन की विशेषता थी उनमें. वह कवि सेक्स को सब्लाइम कर देता था. ऐसे ही भारती भी-“बाँसुरी रखी हुई हो भागवत के पृष्ठ पर/ रख दिए मेरे अधर पर संगीत से निर्मित अधर / देख रहे हैं आप? क्या शानदार इमेज है! काम का आध्यात्मीकरण, उदात्तीकरण है यहाँ. मैंने इसे यूँ कहा है-‘दो गुलाब के फूल छू गए, जिस दिन होठ अपावन मेरे/ऐसी गंध बसी है मन में सारा जग मधुबन लगता है.” कथनवक्रता देखें-“तुमको छूने का गुनाह कर ऐसा पुण्य कर गई माटी… जीना हमें भजन लगता है, मरना हमें हवन लगता है/ “उर्वशी” क्या. है? पूरा कामाध्यात्म! काम हमारे यहाँ सृजन की बड़ी शक्ति माना गया है. लोगों का गहरा अध्ययन नहीं है. दो कविताएँ लिखकर सम्मान, पैसा, फूल-मालाएँ लेने में लगे हैं कितने ही अयोग्य लोग.
आपकी कविता में भी तो प्रेम, काम, श्रृंगार की अधिकाधिक उपस्थिति की बात पाठक, श्रोता और आलोचक प्रायः करते रहे हैं. और आप हैं कि बहुत बार आपने अपने को श्रृंगारी कवि कहे जाने पर अपनी असहमति प्रकट की है. इस दृष्टि से आप क्या कुछ कहना चाहेंगे?
नीरजजी अब प्रवाचक, व्याख्याता की भूमिका में आ गए हैं – ललित मोहन अवस्थी ने दो-तीन कविताएँ पढ़कर अपनी किताब में मुझे श्रृंगारी कवि सिद्ध कर दिया तो उसे देखकर सबने मुझे श्रृंगारी कवि कहना शुरू कर दिया. मैं वस्तुतः दार्शनिक कवि हूँ. दर्शन का मतलब विचार. विचार वह, जो महान् सत्य या मानवीय मूल्य का उद्घाटन करे. कीट्स कहते हैं कि दर्शन कविता के पंख कतर देता है, जबकि मेरी मान्यता यह है कि दर्शन के बिना कविता एक “बिग जीरो” है. दर्शन नीरस वस्तु है, मेंटल क्रिएशन. रूमानी बिम्ब का स्पर्श पाकर दर्शन सरस हो गया. जैसे पारस को छूकर लोहा सोना हो जाता है. यह कथन, यह फ्रेज़, यह बिम्ब देखिए-‘आज जी भर देख लो तुम चाँद को/ क्याय पता ये रात फिर आए न आए… ये सितारों से जड़ा नीलम नगर/ बस, तमाशा है, सुबह की धूप का ये बड़ा-सा मुस्कराता चन्द्रमा/ एक दाना है समय के सूप का/ है अनिश्चित हर दिवस हर एक क्षण/सिर्फ निश्चित है अनिश्चितता यहाँ/ इसलिए सम्भव बहुत है प्राण कल/चाँद आए चांदनी लाए न लाए. क्या कहेंगे इसे आप? यहाँ एक यूनीवर्सल ट्रुथ है. सार्वभौमिक, सार्वकालिक सत्य की अभिव्यक्ति ही तो है यहाँ-देखती ही रहो न आज दर्पण प्रिये!… कौन श्रृंगार पूरा यहाँ कर सका, सेज जो भी सजी अधूरी सजी. हार जो भी गुँथा अधूरा गुँथा, बीन जो भी बजी अधूरी बजी/हम अधूरे, अधूरा हमारा सृजन, पूर्ण तो जैसे एक प्रेम ही है यहाँ / और हाँ-“काँच से ही न नजरें मिलाती रहो, बिम्ब को मूक प्रतिबिम्ब छल जायेगा! – यह कहने को लिखा है यह, श्रृंगार के लिए नहीं. कॉलरिज की मान्यता है-‘इमैजिनेशन इज़ द मदर ऑफ पोयट्री’, से हमारी मान्यता भिन्नक है. कल्पना कहते किसे हैं? संचित स्मृतियों को नया रूप देने वाली चीज ही तो कल्पना है. यह मस्तिष्क की क्रिया है, पर कविता “फंक्शन ऑफ माइंड” से परे की चीज है. वह आत्म-साक्षात्कार है, विज़न है – तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आँखिन की देखी- कबीर का ज्ञानी को सम्बोधित यह कथन सूत्र वाक्य है. मैंने कविता कभी सोचकर या डिमांड पर नहीं लिखी, अपने आप उभरी. जब उभरती तो हम सोचे जा रहे हैं, पत्नी ने खाने को कहा, माँ उन्हें रोकती-“रुको, भाव आ रहा है उस पर.” रात-रात भर अकुलाहट, कुलबुलाहट. पूरी रात नींद नहीं . तभी जैसे इल्हाम हुआ हो! आत्मालोक-तुरन््तक कविता निकली! कवि के लिए तीन चीज जरूरी हैं-अध्ययन, चिन्तन, मनन. अध्ययन पूर्ववर्ती-समवर्ती साहित्य का, शास्त्र, छन्द आदि का. चिन्तन मस्तिष्क का काम. पर मनन? असली चीज यही है-“ब्रूडिंग”! मुर्गी अंडे को से रही है. स्थित है उस पर, समाधिस्थ अवस्था में! हम समझते हैं कि वह बैठी है बस, पर वह अपने प्राण की ऊर्जा का उस जलतत्त्व में संचार कर रही है. और उस क्रिया से अंडे में प्राण आ जाता है, ऐसे ही किसी विचार को लेकर कवि जब उस पर अपनी सम्पूर्ण चेतना, ऊर्जा, व्यक्तित्व का प्रक्षेपण कर देता है, यानी खुद गायब हो जाता है, तब कविता होती है. मैं इसे व्यक्तित्व मोक्ष कहता हूँ. कविता अहं-मोक्ष है. उर्दू में शब्द है-नाज़िल. शायर कहता है कि मैंने गज़ल कही, लिखी नहीं कहता हिन्दी वालों की तरह. मेरे साथ यह बहुत हुआ है. छब्बीस वर्ष की उम्र में मैंने एक लम्बी, बीस पेजी कविता लिखी ““मृत्युगीत” – रात को दस-ग्यारह बजे जैसे इल्हाम हुआ और पूरी कविता एक झटके में लिख गई. दूसरी घटना बताऊँ, तब मैं बी.ए. में था और अरविन्द की कविताओं का ट्रांसलेशन कर रहा था. गीता शरीर के नष्ट होने की बात करती है. अरविन्द का कहना है कि इस पदार्थ को चेतना में परिवर्तित करो और ‘अर्थहुड’ – धरती स्वर्ग को एक करो, तो मनुष्य मृत्यु से परे, मृत्युंजंय हो जायेगा. आज के युग में विज्ञान ने यह सिद्ध किया है. मैं दिल्ली में रहता हूँ, टी.वी. में बोल रहा हूँ, आप मुझे अलीगढ़ में देख-सुन रहे हैं. मेरे पदार्थ को ऊर्जा में परिवर्तित किया गया, फिर ऊर्जा को पदार्थ में कन्वर्ट कर दिया, आज दोनों चीजें-ऊर्जा और पदार्थ, कन्वर्ट हो सकती हैं, यह सिद्ध कर दिया है विज्ञान ने. हाँ, तो उस अनुवाद करने के दौरान भी जो छन्द, जो भाषा, जो रूप आया, सब उद्भुत था. वह भाषा हमने और कभी नहीं लिखी. वह प्रेरणा खत्म होने के बाद वैसी भाषा नहीं लिखी गई. मेरे पास कविता उतरी. अब से उतरना बन्द हो गया, लिखना भी बन्द. अब दोहे लिख रहा हूँ या कभी-कभार कोई शेर आ गया तो लिख दिया. गीत वर्षों से नहीं लिखा गया. बुद्धि से सोचा मैं नहीं लिखता. लिखना चाहूँ तो रोज लिखूँ, पर उसका कोई अर्थ नहीं है, मेरी कविता सायास नहीं, आयास है.
आपने अभी ग़ज़ल का ज़िक्र किया. ग़ज़लें आपने भी लिखी हैं, पर उनके बारे में कुछ लोगों की राय यह है कि वे प्रथम श्रेणी की ग़ज़लें नहीं हैं. हिन्दी में गज़ल-लेखन के प्रति बढ़ते रुझान और उर्दू ग़ज़ल की तुलना में उसकी स्थिति के बारे में आप किस तरह सोचते हैं?
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ग़ज़ल, विशेष रूप से मुसलमान के रक्त में बहती है. वह उनका सुखन-अदब, तहज़ीब, कल्चर है. सात सौ वर्षों से उनके रक्त में संचरित है. हम लोग बचपन से ही दार्शनिक हो जाते हैं. हिन्दी भाषा ग़ज़ल के उपयुक्त नहीं है. संसार की बड़ी-से-बड़ी भाषा हर छन्द और हर विधा के लिए उपयुक्त नहीं हो सकती. अंग्रेजी या उर्दू वालों से आप घनाक्षरी लिखवाओ, ब्रजभाषा की टक्कर में वे नहीं लिख सकते. क्योंय? उर्दू शहरों में पली-बढ़ी. कोर्ट्स में फारसी का प्रभाव रहा इसलिए वह शहरों की भाषा रही. यह हिन्दी गाँव में चली गई. खेत की मेड़, गाँव की खूबसूरती, मंजरी, अमराइयाँ, पनघट, कुएँ, तालाब, बड़, पीपल, लहलहाती फसलें आदि का जो सौन्दर्य हिन्दी में आ सकता है, वह उर्दू में नहीं. अपनी मातृभूमि से कोई कैसे अलग हो जाएगा? गाँव की भाषा तो देखिए जरा-‘सेर भर बाजरी में साल भर खाऊँगी, पिया मत जइयो परदेस. यहाँ सारे शास्त्र खत्म- ‘सोना नहीं चाहूँ मैं, चाँदी नहीं चाहूँ/चाहूँ बस इतना बलम सामने तेरे दुनियां से जाऊँ बाँहों में तेरी तोड़ूँ मैं दम…” यह भारतीय नारी ही कह सकती है-‘दिया की बजाय रोज हिया मैं जलाऊँगी, पिया मत…” गाँव के लोग सोचकर लिखते थे क्या? एक अनपढ़ गाँव वाले रचनाकार की अभिव्यक्ति का चमत्कार दंग कर देता है! हलवाई की दुकान और कुल्हड़ में दूध पीने को याद करें! रचनाकार नायिका से कुल्हड़ को डाँट लगवाता है-‘रे माटी के कूल्हड़े, दऊँ तोय चटकाय/जो पिय के हित हैं बने, उनसे चिपकत जाय.’ उत्तर में कुल्हड़ ने अपने बनने की प्रक्रिया बताते हुए कहा है-‘लात सही, घूँसा सहे, सहे वार पै वार/इन होठन के वास्ते सर पै धरे अंगार.’ किसी पी-एच.डी; डी.लिट्. से कहलवा दें ऐसा-‘मेरौ सैंया गुलबिया कौ फूल, हमारौ रंग केसरिया.’ भाषा का यह लालित्य उर्दू में नहीं आ सकता.
हिन्दी में बहुत लोग प्रयोग कर रहे हैं. वहाँ सुन्दर तुकबन्दी तो बन जाती है, पर शेरियत और तगज्जुल महीं आ पाता. कारण यही है कि ग़ज़ल का अपना एक लहज़ा है, जो बहुत कम हिन्दीवालों की पकड़ में आया है. मैं अपनी बताऊँ? ‘शब्द झूठे हैं सभी सत्यकथाओं की तरह/ वक़्त बेशर्म है वेश्याओं की अदाओं की तरह’- यह शेर तो है, पर ग़ज़ल का तग़ज़्ज़ुल नहीं है. परन्तु-“हम तेरी चाह में अये यार वहीँ तक पहुँचे. होश ये भी न जहाँ है कि कहाँ तक पहुँचे…. एक सदी तक न वहीँ पहुँचेगी दुनियाँ सारी. एक ही घूँट में मस्ताने जहाँ तक पहुँचे…. यहाँ शेरियत आई है. दुष्यंत में ग़ज़ल का वह लहज़ा आया है. सबसे पहले शुद्धतम गज़लें स्व.बलबीर सिंह रंग ने लिखीं. उनमें ताज़ीपन है-‘आबोदान रहे न रहे. चहचहाना रहे, न रहे…हमने गुलशन की खैर माँगी है. आशियाना रहे, न रहे.’ इतनी बड़ी रदीफ एक शब्द पर टिकी है. रंग को अंजुमन से निस्बत है. आना-जाना रहे, रहे, न रहे”- यह है ग़ज़ल का लहज़ा. समाजवाद कीबात किस ढंग से कही हैं! राजेश रेड्डी, हस्तीमल ‘हस्ती’, कुँवर बेचैन, अखिलेश तिवारी, राजेन्द्र तिवारी, सूर्यभानु गुप्त, प्रमोद तिवारी, सुरेश चतुर्वेदी, ज्ञान प्रकाश विवेक, दीक्षित दनकौरी, नसीम, हरदोई वाले अस्थानाजी आदि की पकड़ में गज़ल का लहज़ा आया है. मैंने गज़ल का नाम गीतिका रखा. मतला के लिए आरम्भिका, मक्ता के लिए अंतिका, रदीफ के लिए समांतिका, शेर के लिए द्विपदिका, जैसे हिन्दी शब्द दिए. मुझे उर्दू से परहेज़ नहीं है, पर हिन्दी के पास अपने शब्द हों इसलिए वे शब्द दिए. मैंने अपनी दो-चार ग़ज़लों में गीत के मात्रिक छन्द का प्रयोग किया है. वैसे अधिकांशतः ग़ज़ल की बहर को ही अपनाया है. ग़ज़ल का यह नियय है कि पहली पंक्ति में जहाँ स्वराघात आया है, बराबर का स्वराघात हर पंक्ति में उसी प्रकार चले. मैंने अन्तर यह किया कि कहीं-कहीं स्वराघात में परिवर्तन कर दिया. इस तरह स्वराघात बदलने से, एक-दो पंक्ति को गीत के स्वरूप में ढाल देने से, ग़ज़ल की जो ‘मोनोटोनी’ है, वह खत्म हो जाती है. कभी-कभी करते हैं ऐसा हम. वह भी इसलिए कि हम जानते हैं कि ऐसा हो सकता है, किया जा सकता है इसमें कोई बुराई नहीं है. क्यों उर्दू की बहर के पीछे पड़ें? उर्दू वाले हिन्दी के प्रकृति, प्रसाद जैसे अनेक शब्दों को उच्चारण और व्याकरण में परिवर्तन करके हास्यास्पद ढंग से बोलते हैं, तो थोड़ा-सा लाइसेंस स्वराघात बदलने का यदि हमने भी ले लिया, तब कोई नाक-मुँह क्यों सिकोड़ता है? क्यों चाहते हैं वे कि हम उनके पीछे लगें?
(शेष अगले अंकों में)
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