बीबीसी हिन्दी का प्रसारण बंद होना इस युग की रातों के एक चंद्रमा के लोप जैसा
भारत-पाकिस्तान सीमा क्षेत्र में बहती गंगनहर का सुलेमान की हैड. 40-50 घरों की आबादी वाला गांव. नाम चक 25 एमएल. बात 75-76 की है. गांव में पांचवीं से अधिक शायद ही कोई पढ़ा. गांव में या तो सिख थे या दलित. या तो खेती या फिर भेड़-बकरियों के रेवड़. मेरे पिता घोड़े पालते थे. उनका अश्वप्रेम पागलपन की हद तक था. मेरा भी बचपन घोड़े की पीठ पर बीता. किसी तरह पांचवीं कक्षा पास कर ली. न कोई सोच, न कोई कॅरियर.
दीन-दुनिया की कोई ख़बर ही नहीं. गांव में अख़बार आना तो दूर, समाचारों का कोई स्रोत नहीं था. कुछ घरों में रेडियो थे, लेकिन उन पर सस्ते पंजाबी गाने बजा करते थे.
पांचवीं कक्षा की छुटि्टयां हुईं. मेरी मां ने भैंस का दस किलो देसी घी बेचकर मुझे एक रेडियो लेकर दिया. दो बैंड वाला रेडियो. यह वह दिन थे, जब गांव ही देश और दुनिया था. न कोई विवाद था और न कोई संवाद. न कोई सपने थे और न कोई आत्मबोध. ऐसे में रेडियाे आया तो पहली शाम साढ़े पांच बजे के आसपास सूई रेडियो मास्को पर जा टिकी. शार्ट वेव में पंजाबी कार्यक्रम आ रहा था. उद्घोषक बोला – ए रेडियो मास्को है ते आप सुन रहे हैं पंजाबी कार्यक्रम. इस कार्यक्रम के आखिर में वे हिट पंजाबी गीत सुनाया करते थे. मैंने रेडियो फुल वॉल्यूम पर करके घर की दीवार पर रख दिया तो जैसे पूरा गांव भागा आया. तरभोन…ऐ तूं कित्थे लाया है? और ऐसे सूई घुमाते-घुमाते एक दो दिन बाद अचानक रात आठ-साढ़े आठ बजे एक सम्मोहित कर लेने वाली धुन के साथ सुनाई दिया – आ…ज….क……ल! प्रस्तुतकर्ता रत्नाकर भारतीय.
और इस तरह पांचवीं कक्षा की छुटि्टयों के दिनों से बीबीसी के साथ जो रिश्ता बना, वह आज तक कभी नहीं टूटा. वे इमरजेंसी के दिन थे. मीडियम वेव पर बीबीसी नहीं आता था. शाॅर्टवेव पर सुन सकते थे. रेडियो सिलोन भी उन दिनों बीबीसी के समाचार सुनाया करता था. सुबह स्कूल जाने से पहले सुनता. रात को सोने से पहले बीबीसी सुनता. यह मेरे लिए एक तरह का खुल जा सिम सिम जैसा सम्मोहन था. रत्नाकर भारतीय, कैलाश बुधवार, बागेश्वर वर्मा, आले हसन, पुरुषोत्तम लाल पाहवा, भगवान प्रकाश, छाया आर्य, विश्व दीपक त्रिपाठी, ओंकारनाथ श्रीवास्तव, सुभाष वोहरा, रजनी कौल और बाद में गौतम सचदेव, अचला शर्मा, नरेश कौशिक, नीलाभ, परवेज़ आलम जैसी कितनी ही शख्सियतें जैसे दिलोदिमाग़ पर छा गईं. शिवकांत, ममता गुप्ता, मधुकर उपाध्याय, पंकज पचौरी, सीमा चिश्ती, ललित मोहन जोशी, विजय राणा, शाज़ी ज़मां, सलमा ज़ैदी, संजीव श्रीवास्तव आदि को लाेगों ने बखूबी सुना है. लेकिन रत्नाकर भारतीय, पुरुषोत्तम लाल पाहवा, बागेश्वर वर्मा और आलेहसन बीबीसी की आत्मा के तानेबाने रहे हैं. आज भी इन नामों का जिक्र आता है तो इनकी आवाज़ें मेरे कानों में गूंजती हैं. क्या ही सम्मोहक आवाज़ें थीं. इन आवाज़ों का अपना ही छंद था.
हमारा गांव गंगनहर के ठीक किनारे थे और स्कूल उस पार. स्कूल जाने के लिए पहले हैड वाल पुल जाना पड़ता और फिर वापस गांव के सामने स्कूल तक यूटर्न लेकर आना होता. हैड पर नहरी विभाग के इंजीनियर होते. वे मुझे रोक लेते और मेरे मज़े लेते कि बता आज क्या ख़बर है. मैं उन्हें दिल्ली, लंदन, रूस, फ्रांस, पेरिस या भारतीय राज्य की चर्चित खबरें बताता. गांव में कोई अख़बार आता था नहीं. इसलिए वे मेरे खृूब मज़े लेते. बीबीसी के आजकल, विश्वभारती, आपका पत्र मिला, ज्ञान विज्ञान जैसे कितने ही कार्यक्रम लासानी थे.
ख़ैर, उन दिनों अचला शर्मा का एक कहानी संग्रह आया था. इसे मैं लाने के लिए मैं गंगानगर साइकिल पर गया था. मैंने नई-नई साइकिल सीखी थी और मैं कैंची चलाकर गया था कि राष्ट्रीय राजमार्ग पर किसी वाहन की टक्कर न लग जाए. मैं कैलाश बुधवार से मिलने गंगानगर के जेसीटी मिल पहुंचा, जहां उनके भाई रहते थे, लेकिन पता चला कि वे वापस लौट गए हैं. रत्नाकर भारतीय बीकानेर आए तो 250 किलोमीटर दूर आठवीं कक्षा का बालक उनसे मिलने पहुंचा. इस सम्मोहन की वजह ये थी कि मेरे पत्र कई बार पढ़े गए और छठी कक्षा में एक पत्र पर भगवान प्रकाश जी ने सप्ताह का पत्र चुनकर मुझे उपहार भेजे. कैलेंडर नियमित रूप से आते थे. ये सिलसिला लंबे समय तक चला. मेरे पत्रों की वजह से मैं अपने इलाके में चर्चित था.
बीबीसी ने भाषा का संस्कार दिया, राजनीति की समझ दी, विचारधाराओं के सम्मोहन से बचाया और पत्रकारिता में बड़े नेताओं से इतनी दूरी बनाना सिखाया कि समय आने पर लिखने में किसी तरह का संकोच न हो.
बीबीसी ने पूरी एक दुनिया खोली. उर्दू सेवा सुनते रहे तो पाकिस्तान भारत का ही कोई जीवंत हिस्सा लगता. बांग्ला सेवा का प्रसारण हिन्दी से आधा घण्टा पहले शुरू होता. बांग्ला समझ न आती, लेकिन काज़ी नज़रुल इस्लाम और माइकेल मधुसूदन दत्त को बीबीसी बांग्ला सेवा के कारण ही आठवीं कक्षा में पढ़ गया. इनकी भी एक अलग कहानी है. बीबीसी सुनता तो एटलस लेकर बैठता और जिस-जिस देश की ख़बर आती, उसे ढूंढ़ता. इसीलिए मुझे आज भी पूरी दुनिया एक परिवार ही लगती है. राष्ट्र-राज्य मेरे गले उतरता ही नहीं.
शायद बीबीसी रेडियो नहीं सुना होता तो कह सकता हूं कि आज मैं किसी के खेत में हल चला रहा होता या घोड़े पाल रहा होता. यह बीबीसी के माध्यम से मिला चैतन्य था, जिसने साहित्य, राजनीति और पत्रकारिता के नए लोक में प्रवेश करवाया. उस दौर में बीबीसी रेडियो का डंका बजता था और साथ में सिर ऊंचा रहता था बीबीसी सुनने वालों का. आज इस ख़बर ने मेरे मन में गहरी टीस भर दी है कि अब बीबीसी रेडियो अपने कार्यक्रम बंद करने जा रहा है. इस देश में आज भी सुदूर इलाकों में मेरे गांव जैसे गांव हैं और मुझ जैसे पशुपालक परिवार के बच्चे हैं. जाने कौन बीबीसी की आवाज़ पाकर चेतना का वह झोंका महसूस कर ले.
सभी राजनीतिक दल और उनके नेता बातें बनाते हैं. वे कुछ नहीं करते. अख़बार और मीडिया के अन्य माध्यम अपनी-अपनी जगह सही हैं, लेकिन बीबीसी रेडियाे बीबीसी रेडियो था. आज इतने सारे स्रोत हैं ख़बरें जानने के, लेकिन वे न सुबह की खोमाशी को तोड़ पाते हैं और न ही रातों को कोई सम्मोहक आवाज़ों में आगाह करते हैं. बीबीसी, उस दाैर की बीबीसी के कार्यक्रम कोई सुनता तो वह वाकई में चेतना से नहा उठता था. उसका सिंफोनिक आनंद वाकई में अलग ही रहा है.
ऐसा लगता है,बीबीसी हिन्दी के रेडियो प्रसारण नहीं बंद हो रहे, बल्कि इस युग की रातों का एक चंद्रमा लुप्त हो रहा है.
(यह संस्मरण फ़ेसबुक पेज से साभार)
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