संस्मरण | बटन बुआ के बेटे की मां के घर की तलाश
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में भारतीय भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन और शोध का केंद्र. उतरते अंधेरे के बीच की उस नाकाफ़ी रौशनी में खुले में कुर्सी पर बैठकर कविता सुनाते नरेश सक्सेना. दो घंटे तक एकाग्रभाव से दत्तचित्त होकर उनका काव्यपाठ सुनते प्राध्यापक, रचनाकर्मी और शोधछात्र. मन हुआ कि ढंग से इत्मीनान के साथ कवि को लगातार देखूं – गहरे किशमिशी रंग का घुटनों तक लंबा वह गाढ़े का सा कुर्ता. टख़ने तक की लंबाई वाला उनका वह पैंट की तरह का सफ़ेद पजामा. दाहिनी कंधे पर लटका वह कामरेडी थैला. दरम्याना क़द. हल्की छरहरी-सी काया, संवरे सफ़ेद बाल. बड़े फ़्रेम का चश्मा, जिसके शीशे के पीछे सोचती-बोलती-सी दिखती उनकी बच्चों जैसी निष्छल-निर्दोष आंखें. खुलकर बाआवाज़ हंसना.
पहले से तय था कि अगले दिन सवेरे हम लोग उनकी मां के घर की तलाश में निकलेंगे. क़रीब दस बजे हमारा स्कूटर फूल चौराहे से जयगंज जाने वाली सड़क पर मुड़ा. हम लोग जयगंज के डाकख़ाने तक आ पहुंचे हैं. इस बीच मैंने कई बार नरेश जी से पूछा है कि क्या कुछ पहचाना-सा लगा इधर? क्या कुछ याद आ रहा है यह सब देखकर? कोई उत्तर नहीं. फिर-फिर पूछा, कुरेदा. उनकी गर्दन तेज़ी से इधर-उधर घूमती जाती थी. जैसे नरेश जी याद करने की भरपूर कोशिश कर रहे हों. देर तक बनी रही लंबी चुप्पी के बाद नरेश जी ने फुसफुसाकर कहा था – नहीं मिलेगा- तब भी कोई बात नहीं. यह क्या कम है कि अपनी मां के शहर की गलियों-सड़कों को देख लिया. उनके घर के मुहल्ले को देख रहे हैं…यह सब देखकर ही संतोष कर लेंगे.
अब मैंने स्कूटर काला महल जाने वाले रास्ते की तरफ़ मोड़ा है. स्कूटर ठीक-से रुका भी नहीं था कि किसी चमत्कार की तरह वह सब तेज़ी से घटा. नरेश जी सीट से कूदते हुए से उतरकर सीधे सड़क पर. स्कूटर किनारे खड़ा करके नेरेश जी की ओर मुड़ा तो देखा कि वे अवाक, ठगे-से खड़े उस घर की ओर टकटकी लगाए देखे जा रहे हैं – बाहर से जीर्ण-शीर्ण हो चला वह घर. लखौरी ईंटों से बनी उसकी टूटी-फूटी दीवारें बाहर से ही दिख रही हैं. शीशम की लकड़ी का कामदार सांकलवाला उसका दरवाज़ा गिरने-गिरने को है. सड़क के किनारे नाली. नाली पारकर दरवाज़े की देहरी तक पहुंचने के लिए पत्थर की दो सीढ़ियां. आगे बढ़ते ही दाईं ओर पत्थर की चौखट वाला बिना किवाड़ों का एक और दरवाज़ा. दरवाज़े से बाईं ओर मुड़ने पर आठ-दस क़दम बाद एक औऱ दरवाज़ा. दरवाज़े के तुरंत बाद ठीक-ठाक-सा वह आंगन.
नरेश जी चमत्कृत और आह्लादित से सड़क पार खड़े हैं. विस्फारित आंखें. अवरूद्ध हो गया-सा कंठ. असंभावित के हो-पा जाने जैसे प्रसन्नता – ‘अरे, यही तो है वो घर. मेरी मां का घर. कमाल है, आपने ठीक यहीं आकर स्कूटर रोका.’ मेरे देखते-देखते सामने की दीवार तक जा पहुंचे हैं. दीवार को यहां-वहां पोरों से छू-छूकर देखकर रहे हैं. ऐसे सहला रहे हैं, जैसे वो दीवार न होकर अपने किसी बहुत प्रिय की जख़्म-जख़्म देह हो. मैं एकदम पास जा खड़ा हुआ हूं. अपनी धुन और दुनिया में मस्त-खोये-से नरेश जी जैसे अब मुझे पहचान भी नहीं पा रहे हैं.
मैं खांसा हूं. मैंने जानबूझकर उनका हाथ छुआ है. अब तुरंत मुझसे मुख़ातिब हैं. ऐसे बताना शुरू किया जैसे वे जन्म से उसी घर में रह रहे हैं और मैं उनके यहां पहली बार आया कोई निकट संबंधी होऊं, ये यहां जहां अब सब टूट-फूट चुका है, तब यहां किचिन था. और यहां, इधर इस दरवाज़े के पास से एक ज़ीना था. इस ज़ीने की सीढ़ियों के नीचे उधर पाख़ाना था और इधर ज़रा अंदर चलकर ये दरवाज़ा और इसके तुरंत बाद हमारा वो आंगन. आंगन के उस पार ज़रा आगे इस तरफ़ वाली गली में खुलने वाला वो दरवाज़ा. ग़नीमत है कि तब का इतना कुछ अभी तक है.
बुलंद आवाज़ में मुझे अपने बचपन के घर का भूगोल बताते-समझाते नरेश जी आंगन तक आ पहुंचे हैं. यूं तो अब भी नरेश जी अपने आपे में नहीं थे, किंतु आंगन को देखने के बाद तो जैसे अपना आपा बिसरा बैठे. तौलिया लपेटे आंगन में सूर्य को अर्घ्य दे रहे उस सज्जन के आने तक इंतज़ार उनसे नहीं हुआ. दरवाज़े की चौखट के क़रीब झट-पट चप्पलें उतारकर वे आंगन में जा पहुंचे थे. गृहस्वामी को हमारी उपस्थिति का भान हो चुका था. अर्घ्य दे लेने के बाद सहमा चौंका-सा वह शख़्स हम तक आया. दो अपरिचितों को घर के इतने अंदर तक आ पहुंचा देखकर उनका चिंतित-आशंकित होना स्वाभाविक था.
एक साथ ही कई-कई सवाल पूछना चाहती-सी निगाह से हमारी ओर देखा. मैंने अपने और नरेश जी के उस घर तक आने के उद्देश्य के बारे में उन्हें बताया.
बातों के बीच धर्म समाज कॉलेज का नाम आने के बाद तो उमें विनय, आत्मीयता और आश्वस्ति कुछ ज़्यादा ही बढ़ती गई थी. ‘जी, यह घर हमारे पिताजी ने ख़रीदा था. शंकर लाल शर्मा नाम था उनका. हां, चंदू बाबू से ही ख़रीदा था. हम दो भाई हैं – मेरा नाम ओमप्रकाश, छोटे का जय प्रकाश. दोनों यहीं साथ रहते हैं…स्वर्णकारी का काम है. जी – मेरी बेटी आपके कॉलेज में ही है. बीए का तीसरा साल है.’ हमारे बीच हुई बातों से बिल्कुल बेख़बर नरेश जी ने इतने समय में आंगन में खड़े-खड़े दीवारों, खिड़कियों-किवाड़ों को देर-देर तक देखा है.
ओमप्रकाश जी हमें अपनी अशक्त-वृद्ध हो चलीं मां से मिलाने अंदर के कमरे में ले गए. चाय की, खाने की ख़ूब ज़िद की गई – पर नरेश जी ज़रा कुछ भी तो नहीं बोले. जैसे अपनी काया में स्थित नहीं थे, वे तब. बातों के बीच से यक़ायक़ उठे और तेज़ चाल चलकर आंगन में जा पहुंचे. गर्दन ऊंची किए आंगन के बीच खड़े हैं. अभ्यर्थना करते–से, आह्वान करते–से, बंद आंखों से लगातार सूर्य की ओर देखे जा रहे हैं और अब तो उनके हाथ भी कुहनियों से पोरों तक सट-चिपक गए-से यंत्रवत् आपस में जुड़ चुके हैं. आंखों ने पलक-पटों को कसकर बंद कर लिया है. छुपा-खोया कुछ ढूंढती-सी हवा में घूमती उनकी उंगलियां. आंगन के फ़र्श की गर्म हो चली ईंटों पर नंगे पांव बेआवाज़ चलते नरेश जी. छोटे-छोटे डग भर-भरकर एक ख़ाय लय और क्रम में आंगन में उनका वह घूमे जाना. कभी आंगन की लंबाई में तो कभी उसकी चौड़ाई में.
नरेश जी तो इन पलों में अपने जीवन के सर्वाधिक मूल्यवान- मां के घर और बचपन की यादों को जी पा लेने की कोशिश और उम्मीद में हैं. लगा कि नरेश जी जैसे सर-ओ-पा बच्चा ही हो गए हैं. उनके हाव-भावों, क्रियाओं-चेष्टाओं को देखकर खाने-पाने या छिपने-ढूंढने जैसे खेल खेलते समय बच्चों का आंख बंद करके ख़ास अंदाज़ में चलना-घूमना याद हो आया. उनके होंठ जैसे कोई मंत्र बुदबुदा रहे थे. अंदर-अंदर जैसे कोई अजपा जाप जारी था. ज़रा और क़रीब पहुंचा तो उनकी वह बुदबुदाहट समझ में आ पाई – ‘यही है, यही है, यही है मेरी मां का घर-आंगन. यहीं वो जन्मीं-यहीं वो रहीं. मेरी मां की जन्मस्थली-मातृभूमि.’
घर से चलते-चलते ओमप्रकाश जी मालूम हुआ कि चंदू बाबू के पड़ोसी और गहरे दोस्त रहे बिरजी मामा वाले घर में उन्हीं के परिवार के सुभाष बिहारी नाम के वकील साहब रहते हैं. नरेश जी पीपल वाली गली में से होते हुए मेरे साथ पांव-पांव चलकर वकील साहब के घर तक पहुंचे हैं. नरेश जी ने अपना परिचय देना शुरू करने के तुरंत बाद ही वकील साहब के पिता का नाम पूछा है. नाम बताने-सुनने के साथ ही जैसे वो कमरा, उसमें बैठे हम सब कुछ के कुछ होने लगे थे. ‘अच्छा, तो तुम राजा के बेटे हो. यानी बिरजी मामा के बेटे के बेटे. वाह, क्या बात है. वो हमसे छोटे थे. सरला जीजी हमसे बड़ी थीं – हां, उनसे भी. हरि भाई साहब सबसे बड़े थे.’ इस बीच सुभाष जी को भी अपने घर में बचपन से अब तक का काफ़ी कुछ याद आता जा रहा है. उनके व्यवहार में अब ख़ास तरह की पारिवारिक निजता और ख़ूब-ख़ूब सम्मान का भाव आ मिला है – ‘अच्छा, तो आप बटन बुआ के बेटे हैं. बचपन से ही सुनते आ रहे हैं बटन बुआ के बारे में. बटन बुआ? नरेश सक्सेना?’
सुभाष जी के घर से बाहर आते ही मैंने बटन बुआ के बेटे के बारे में जानना चाहा है. चेहरा खिल-दमक उठा है. झट से बोले – ‘वाह, क्या बात है. कितने सालों बाद आज किसी ने मुझे बटन बुआ का बेटा कहकर पुकारा-जाना है. यानी कि मुझे आज भी इस नाम से जानने-बुलाने वाले लोग हैं. ज़्यादा नहीं तो चार-छह तो अब भी हैं. हां, आज तो आपने भी यह जान लिया – सच बताऊं तो मेरे लिए भी तो भूला-भूला-सा ही हो चला है यह संबोधन अब. नहीं भई, यह बात नहीं. मेरी मां का यह नाम नहीं था –बिशन देवी था. पर यहां घर में शुरू से ही सब उन्हें बटन बुआ ही कहते थे. बस तो इस घर के लोगों के लिए मैं बटन बुआ का बेटा हो गया.’
(जून, 2013)
कवर | प्रवीण शेखर
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