रामविलास शर्मा | भारतीय परम्परा क्रांति और परिवर्तन की परम्परा है
बचपन में ही मां और पिता से जान लिया था कि रामविलास जी बड़का टाइप लेखक हैं. अलबत्ता इस ‘बड़का’ शब्द को परिभाषित करने की क्षमता तब उस उम्र में नहीं थी. यदा-कदा मैंने उन्हें अपने यहां पिता से गपशप करते देखा. मैं भी एकाध बार पिता के साथ उनके घर गया. छुट्टियों के दिनों में जब कभी मैं दोस्तो के साथ दिल्ली रोड पर घूमने जाता, तो उन्हें हाथ में छड़ी लेकर प्रातःकालीन भ्रमण से लौटते देखता. बचपन की स्मृतियों का उनका लम्बा-चौड़ा जिस्म और तन कर चलना आज भी मुझे याद है. बाल मन को यह सुनकर अजीब सा लगता था कि वह पहलवान भी रहे हैं. अकसर सोचता कि कैसे यह पहलवान होकर इतने बड़े लेखक बन गए और यह कैसे हिन्दी लेखक हैं, जो पढ़ाते अंग्रेज़ी हैं. मैं आगरा के ‘राजा बलवंत सिंह कॉलेज’ (पहले का बलवंत राजपूत कॉलेज) का छात्र था. यह वही कॉलेज है, जहां डॉ. शर्मा कई दशकों तक अंग्रेज़ी विभाग के अध्यक्ष रहे और रिटायर हुए. यह मेरे दाख़िले से पहले की बात थी. लेकिन उनके होने की धमक तब भी वहां मौजूद थी.
उन्हीं दिनों पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से मैंने डॉ. शर्मा को हिन्दी आलोचना की प्रगतिशील धारा के जनक के रूप में जाना. हिन्दी साहित्य में किसी ज़माने में चले उनके आतंक की बाबत तभी पढ़ने-सुनने को मिला. कॉलेज में ही सुने उनके क़िस्सों ने मुझे उनकी ‘निराला की साहित्य साधना’ और ‘1857 की राज्यक्रांति’ आदि किताबें पढ़ने को प्रेरित किया. मैंने यह भी सुना कि लंबे समय से उनकी कोई किताब नहीं आई है. मन में यह कौतूहल उठना स्वाभाविक था कि इन दिनों वह क्या कर रहे हैं ? कुछ लिख-विख रहे हैं या नहीं? नहीं तो क्यों?
इसी जिज्ञासा के चलते एक सुबह जब मैं ‘न्यू राजामंडी रोड कॉलोनी’ स्थित उनके आवास के सामने से गुज़र रहा था, तो मैंने उन्हें अपने बगीचे में चहलक़दमी करते देखा. हिम्मत करके गेट तक पहुंचा और साइकिल खड़ी करके भीतर दाख़िल हो गया. वह अपनी बाग़वानी का मुआवना कर रहे थे. गेट का खटका होने से उनकी गर्दन घूमी. मैंने उन्हें हाथ जोड़कर अभिवादन किया. उन्होंने सवालिया अंदाज़ में दो बार पलकें घुमाईं, गोया मेरा परिचय और आने का मकसद पूछ रहे हों. मैंने उन्हें अपना परिचय दिया और यह भी बताया कि ‘आरबीएस कॉलेज’ में पढ़ता हूं. वह घूम-घूमकर अपना मुआयना और बातचीत करते रहे. उन्होंने जानना चाहा कि पढ़ाई के अलावा मैं और क्या करता हूं. मेरे शौक़ क्या हैं. मैंने उन्हें बताया कि कुछ कहानी, कविताएं लिखता हूं और यह भी कि सक्रिय रंगकर्म से जुड़ा हूं.
अब उन्होंने जानना चाहा कि मैं उसे क्या बात करने आया हूं. मैंने उनकी दो किताबों (जो मैंने पढ़ रखी थीं) का हवाला देते हुए कहा कि मैं जानना चाहता हूं कि इन सालों में वह क्या लिख रहे हैं. और नहीं तो क्यों? सुनकर वह मुस्कराये. उनके होंठ बाएं कोनों तक फैल गए. मैं भीतर ही भीतर डर से थरथरा रहा था कि कहीं मेरी इस पूछताछ से वह नाराज़ न हो जाएं. वह पीछे लौटकर चलते हुए बरामदे तक आए और वहां बिछी हुई कुर्सियों में से एक पर बैठ गए. उनके संकेत पर मैं भी वहीं बैठ गया. उन्होंने बताया कि उन्होंने लिखना बंद नहीं किया है. पिछले दिनों भाषा विज्ञान और दुनिया के भाषा परिवारों के बारे में अमेरिकी और ब्रिटिश अवधारणाओं से अलग हटकर मैंने नया शोध किया है और उनकी पुरानी स्थापनाओं को ख़ारिज किया है. वह देर तक भाषा समूहों की अपनी अवधारणाओं को एक स्कूली शिक्षक की तरह समझाते रहे. शुरू में मेरी दशा एक विशालकाय गज के सामने खड़े एक चूहे सरीखी थी, जो उनकी बातचीत के साथ-साथ क्रमशः काफूर होती चली गई. लंबे समय से मन में व्याप्त उनके साहित्यिक आतंक के क़िस्सों के बरख़िलाफ़ वह मुझे बहुत ही सहज और सामान्य लगे. उन्हें कुछ याद आया और वह उठ खड़े हुए. कहा कि आगे मिलना हो तो शाम को आया करो. मैंने हाथ जोड़कर अभिवादन किया. उन्होंने दाहिना हाथ स्नेहिल भाव से मेरे कंधे पर रख दिया. इसके बाद यदा-कदा मैं उनके पास जाने लगाय यह 70 के दशक के उत्तरार्द्ध की घटना है.
शाम को उनके यहां जाने की मेरी रफ़्तार क्रमशः बढ़ती चली गई. बाद के दिनों में मेरे कुछ दूसरे संस्कृतिकर्मी मित्र भी मेरे साथ शामिल हो गए. अंतरराष्ट्रीय नाटकों से लेकर हिन्दी साहित्य और नए-नए विषयों पर हम आए दिन चर्चा करते. हमने पहली बार उनसे शेक्सपियर के नाटक और काव्य और तत्कालीन ब्रितानी समाज के विषय में विस्तार से जाना. उन्हीं के मुंह से हमने निराला की ‘राम की शक्तिपूजा’ जैसी मुश्किल दिखने वाली कविता का सहज भावार्थ समझा. बड़े ख़ुश-सुख भाव में अपने छोटे भाई और साहित्यकार मुंशी जी का उल्लेख करते हुए वह बोले, ‘मुंशी इस कविता का हूबहू निराला जी के स्वर और अंदाज़ में पाठ करते हैं.’ उनके साथ बैठकर बातचीत में कभी लगा नहीं कि हम लौंडे-लपाड़े हिन्दी साहित्य के इतने बड़े मनीषी के साथ बैठकर बातचीत कर रहे हैं. हमेशा वह हमें हममें से एक, हमउम्र सरीखे दिखते. बातचीत के दरमियान खुलकर लिए जाने वाले उनके ठहाके हम लोग तब तक सुनते रहे, जब तक ‘ताईजी’ अस्वस्थ्य नहीं हो गईं. रामविलास जी को देखकर ही हम युवाओं ने पहली बार जाना कि वृद्धावस्था में प्रेम का तापमान गिर जाए, यह ज़रूरी नहीं. अपनी ‘मालकिन’ के प्रति उनका गहरा अनुराग, मार्क्सवादी विरोधियों की उन मान्यताओं को ख़ारिज कर देने के लिए काफ़ी था, जिसमें उन्हें निष्ठुर, क्रूर और प्रेम विरोधी क़रार दिया जाता है. सन् 40 के दशक के उत्तरार्द्ध के कम्युनिस्ट नेता बीटी रणदिवे के ‘शहरी क्रांति’ के दौर वाले ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के दुधारा फरसाधारी महासचिव बताए जाने वाले रामविलास शर्मा को 70 के दशक में नवयुवाओं के एक छोटे से समूह के बीच अपनी आलोचनाओं का सहज प्रत्युत्तर देते देखना किसी को भी अविश्वसनीय लग सकता है. इसी बीच राजा बलवंत सिंह कॉलेज के कई अध्यापकों के बीच मैंने आलोचक डॉ.नामवर सिंह को जब यह कहते सुना कि रामविलास जी के सामने बोलने में मेरे पैर कांपते हैं, तो मुझे ख़ासा ताज्जुब हुआ. मुझे याद है कि एक शाम ऐसी ही बहस मुबाहिसों के बीच मैंने उनसे कह डाला कि आरोप है कि आप राहुल जी (राहुल सांकृत्यायन) के विराट लेखकीय क़द से डरते थे, इसलिए आपने उन्हें ‘प्रलेस’ से उखाड़ फेंका. मुझे ताज्जुब हुआ जब मेरी बात पर वे ठहाका लगाने लगे. इसके बाद हंसते हुए वह बोले – अरे भाई राहुल जी छह फुट से ऊपर के थे, तो मैं भी कोई पांच फुट से नीचे का नहीं था. इसके बाद उन्होंने आर्य, आर्य समूहों, भारत में उनके कथित आगमन और ऋग्वैदिक काल के विषय में राहुल जी की स्थापनाओं से अपने मतभेदों की बाबत क़रीब घंटा भर चर्चा की. आगे चलकर 90 के दशक में ऋग्वेद और वैदिक युग पर आई उनकी किताबों ने मेरे मन में उनकी स्थापनाओं को स्पष्ट किया.
रामविलास जी के यहां ही मैंने सबसे पहले सन् 47 के भारत के सत्ता के हस्तांतरण के दस्तावेज़ों की बाबत सुना, पढ़ा और जाना. कट्टर भारतीय मार्क्सवादी लेनिनवादियों की तरह वह 15 अगस्त के परिवर्तन को शुद्ध औपनिवेशिक घटना का घट जाना मात्र नहीं मानते थे. साथ ही वह इस बदलाव को भारतीय पूंजीवाद की पूर्णरूपेण स्थापना के रूप में भी नहीं देखते थे. शुरू में वह कम्युनिस्टों की दबी-छिपी आलोचना करते थे. बाद के दौर में वह उनकी कठोर आलोचना करने लगे थे. कई बार की बातचीत में उन्होंने स्वीकार किया कि माकपा और भाकपा नेतृत्व गहरे संशोधनवाद का शिकार हैं. वह कहते कि भारत में अभी क्रांति की ज़रूरत है. मेरे पूछने पर कि क्रांति से उनका आशय जनवादी क्रांति से हैं या समाजवादी क्रांति से, वह स्पष्ट रेखांकित नहीं कर सके. 1967 के नक्सलबाड़ी विद्रोह को वह एक ‘ज़रूरी किसान विद्रोह’ के रूप में परिभाषित करते थे. हालांकि उनकी यह भी मान्यता थी कि जिस तरह किसानों का यह विद्रोह उचित सर्वहारा के अभाव में मध्यवर्गीय युवाओं के हाथ में पहुंच गया, वह एक ‘वामपंथी बचकानापन’ था. अजय बसु के नेतृत्व और ज्योति बसु के गृहमंत्रित्व वाली संयुक्त मोर्चा सरकार ने नक्लसबाड़ी विद्रोह को जिस तरह कुचला उससे वह असहमत थे. उनकी निंदा करते थे. वह आज़ादी के बाद के भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन पर एक किताब लिखना चाहते थे. वह नक्सलवादी विद्रोह की भी अलग से मीमांसा करना चाहते थे, वह यद्यपि ऐसा कर नहीं पाए. मुझे मालूम है कि तब के कुछ वरिष्ठ नक्सली नेताओं से उन्होंने संबंधित दस्तावेज़ मंगवा कर
रखे थे. हम लोगों के बीच और दूसरों में भी, वह खुलकर किसान और सर्वहारा के मज़बूत और आंदोलनकारी संयुक्त मोरचा की वकालत करते. ब्रिटिश राज में इसके असर की बाबत उन्होंने बाद की अपनी किताब भारत में ‘अंग्रेज़ी राज और मार्क्सवाद’ इसकी गहरी विवेचना की. उनकी जन्मशती पर होने वाले देशव्यापी समारोहों में यूनिवर्सिटी के सफ़ेद कॉलर मास्टरों की सर्वव्यापी भूमिका और सर्वहारा व किसानों की नगण्यता को देखकर मुझे लगता है कि यदि जीवित होते, तो सबसे पहले वही अपने कार्यक्रमों का बहिष्कार करते.
हम लोगों की नाट्य गतिविधियों में वह बड़ी रुचि लेते. उन्होंने कई बार हमारी प्रस्तुतियों में आने का कार्यक्रम बनाने की कोशिश की, लेकिन एक या दूसरी वजह के चलते वह आ नहीं पाए. हिन्दी नाटकों के प्रति दर्शकों का आकर्षण निरंतर कम होता जा रहा है, इसे लेकर अपनी बेचैनी की मैंने कई बार उनसे चर्चा की. वह कहते कि तुम्हारा दर्शक शहरी मध्यवर्ग है. फ़िल्में और मनोरंजन के दूसरे साधन उसे ज़्यादा आकर्षित कर रहे हैं. इससे निराश होने की ज़रूरत नहीं. तुम अपने दर्शक वर्ग को विस्तार दो. शहरी समाज के निचले तबके के लिए नाटक तैयार करो, गांवों में नाटकों के प्रदर्शन आयोजित करो. वहां यह ख़ूब चलेगा. सन् 79 में मैंने उन्हें बताया कि मैंने रंगमंचीय नाटक छोड़कर स्वयं को सिर्फ़ नुक्कड़ नाटकों पर केंद्रित करने का फ़ैसला किया है. नुक्कड़ नाटकों की बात से वह प्रसन्न हुए लेकिन साथ ही यह भी कहा समस्या मंच की नहीं, नाटकों के डिज़ाइन और दर्शकों की सांस्कृतिक समझ के अनुरूप चलने की है. हमारे नुक्कड़ नाटकों की प्रस्तुतियों में मैंने उन्हें दर्शकों के बीच पाया. वह अकसर हमारी नाट्य गतिविधियों के लिए हमें वित्तीय मदद भी करते.
अब दो-तीन घटनाएं ऐसी जिनका ज़िक्र न तो उन्होंने अपने लेखन में कहीं किया है और न ही उन पर लिखने वाले आलोचकों ने इसे उनके संदर्भ के उल्लेख के साथ जोड़ने की ज़रुरत समझी. इन घटनाओं का मैं गवाह हूं और इनके ‘होने’ ने मेरे मन में उनकी एक नितांत अलग छवि उभारी. इन्हें देखकर समझ में आता है कि अपनी अभिव्यक्ति को बिना किसी लाग-लपेट के, सीधे-सादे ढंग में रख देने में न तो उन्हें कोई संकोच होता था और न वह इसके लिए अपने को रोकते थे.
हम लोगों ने कॉलेज में एक साहित्यिक-सांस्कृतिक मंच बना रखा था. हमारी बहुत नियमित गतिविधियां थी और रूचिवान छात्र छात्राओं के बीच में यह मंच खासा लोकप्रिय था. इन गतिविधियों में प्रायः हम आगरा के कथाकारों को भी आमंत्रित करते और यदा-कदा आगरा आने वाले बड़े साहित्यकारों को भी. दो दफ़ा हमने डॉ.शर्मा को भी आमंत्रित किया, जिनके बारे में यह मशहूर था कि वह कभी कहीं नहीं जाते हैं. आरबीएस कॉलेज के हम छात्रों के आमंत्रण पर वह बहुत सहज भाव से दोनों बार आ गए. दोनों कार्यक्रम मेरे लिए आज तक अविस्मरणीय हैं.
प्रसिद्ध कवि प्रभाकर माचवे शहर में थे. हमने उनके सम्मान में कॉलेज में एक शाम एक कवि सम्मेलन का आयोजन किया. हम लोगों ने रामविलास जी को भी कार्यक्रम की अध्यक्षता के लिए आमंत्रित किया. कार्यक्रम से ठीक एक शाम पहले स्थानीय ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ ने माचवे जी के सम्मान में एक कार्यक्रम रखा. अगले दिन तब के एक मात्र दैनिक ‘अमर उजाला’ ने कार्यक्रम की चार कॉलम की हेडिंग माचवे जी के वक्तव्य से ली – ‘कुछ लोगों ने निराला को उद्योग बना दिया है.‘ यह सीधे-सीधे रामविलास जी पर हमला था, जो उस कार्यक्रम में थे ही नहीं. सुबह जब हम लोगों ने अख़बार पढ़ा तो हम भी स्तब्ध रह गए, क्योंकि हम जानते थे कि रामविलास जी नहीं होते तो हिन्दी के ‘अष्टछाप’ छायावादियों ने निराला को प्रकाश में ही नहीं आने दिया होता.
बहरहाल, शाम को निर्धारित समय पर कॉलेज में कार्यक्रम शुरू हुआ. अध्यक्ष, मुख्य अतिथि और स्थानीय कवियों को मंच पर पदासीन कराने के बाद ज्यों ही काव्य पाठ शुरू करने की घोषणा हुई, अध्यक्ष पद पर आसीन रामविलास जी खड़े होकर माइक पर आए और एक हाथ से संचालक को खिसकाते हुए उन्होंने माइक पर कहा, ‘‘इस कार्यक्रम के अध्यक्ष की हैसियत से मैं कार्यक्रम की समाप्ति की घोषणा करता हूं.’’ इतना कहकर वह मंच से नीचे उतरे. उन्हें उतरता देख माचवे जी भी मंच से नीचे आने लगे. मंच पर अफरातफरी फैल गई. छात्र-छात्राएं अवाक् थे कि कार्यक्रम शुरू होने से पहले ही क्यों समाप्त कर दिया गया. मैं भागकर माइक के नीचे आया और संचालन कर रहे अपने साथी को कहा कि स्थानीय कवियों को मंच पर ही रोको. अध्यक्ष और मुख्य अतिथि के जाने के बाद जैसे-तैसे कार्यक्रम फिर शुरू किया गया. इतने दिनों की बातचीत में सहज और सामान्य से दिखने वाले रामविलास जी को मंच से उतरता देख उनके चेहरे पर व्याप्त कठोर फ़ैसले की छाप को मैंने महसूस किया. और तब मुझे उनके साहित्यिक आतंक के क़िस्सों की याद आई. अगले दिन के अख़बार में हूबहू ऐसे ही रिपोर्ट छपी. काफी समय बाद मैंने महसूस किया कि माचवे जी के ऐसे उजबक और दुस्साहसी बयान का इससे ज्यादा सटीक कोई जवाब नहीं हो सकता था. मैंने पढ़ रखा था कि रामविलास जी युवावस्था में पहलवानी किया करते थे. उन्होंने अखाडे़ में घुस आए दूसरे योद्धा को धोबी पछाड़ देकर चारों खाने चित्त कर दिया!
एक बार आरबीएस कॉलेज में हम लोगों की ‘भारतीय परम्परा का मूल्यांकन’ विषयक संगोष्ठी की. विषय प्रवर्तक थे, प्रमुख आलोचक डॉ० नामवर सिंह और अध्यक्षता कर रहे थे रामविलास जी. नामवर जी ने तुलसी से लेकर के आज़ादी तक विकसित हुई भारतीय परम्परा पर प्रकाश डालते हुए साहित्यिक विवरणों की ऐसी घटाटोप बारिश की कि वहां मौजूद छात्र और प्राध्यापक सकते में आ गए. अपने अध्यक्षीय सम्बोधन में रामविलास जी ने बहुत सीधी-सादी भाषा में कक्षा के अध्यापक की तरह हम सभी को बताया कि ‘भारतीय परम्परा क्रांति और परिवर्तन की परम्परा रही है. इस परंपरा को क्रांति और परिवर्तन से अलग रखकर, इस पर कुछ भी विचार करना बेमानी ही नहीं, बेईमानी से भरा भी है.’ (इसके बाद उन्होंने नामवर जी की तरफ़ इस अंदाज़ में देख कर गर्दन हिलाई जैसे कह रहे हों – “समझे मिस्टर!” और इस पर छात्रों ने हलके से मुस्करा कर प्रतिक्रिया दी.) वह क़रीब घंटा भर से कुछ ज़्यादा धाराप्रवाह बोलते चले गए. प्राचीन काल के स्थापित वैदिक युग के ख़िलाफ़ विद्रोह का झंडा उठाने वाले गौतम बुद्ध से शुरू करके वह ‘पूर्व और उत्तर मुगल कालीन’ कृषक बग़ावतों का हवाला देते हुए 1857 की ‘क्रांति’ और उसके बाद के 20वीं सदी के चौरी-चौरा कांड, भगत सिंह की सशस्त्र विद्रोह की परम्परा, ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की बग़ावतें और नौसैनिक विद्रोह, औद्योगिक भारतीय मजदूरों की तख़्ता पलट की कोशिशों तक आए. वह कुछ क्षणों को पानी पीने के लिए रुके और फिर शुरू हो गए. उन्होंने आज़ाद भारत के किसान विद्रोहों का हवाला दिया. उन्होंने कहा कि ‘‘भारतीय परम्परा के मूल्यांकन को क्रांति और विद्रोहों की इस कड़ी की रोशनी से अलग हटकर मापना मूल्यांकन के साथ मज़ाक करना है.“ अपने लगभग पचास मिनट के भाषण में वह इतने सहज भाव में अपनी मान्यताएं छात्रों और अध्यापकों के समक्ष रख रहे थे कि किसी के लिए भी समझ पाना कुछ भी मुश्किल नहीं था.
उत्तर प्रदेश सरकार ने बड़े योजनबद्ध तरीके से हिन्दी शोध और भाषा विज्ञान पर काम करने के लिए सन् 60 के दशक में एक विशिष्ट संस्थान के गठन का निर्णय लिया. ‘कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी हिन्दी एवं भाषा विज्ञान विद्यापीठ’ (केएमआई) नामक इस संस्था को आगरा विश्वविद्यालय से सम्बद्ध किया गया. इसी प्रक्रिया में लखनऊ से शासन का कोई निर्देश आगरा विश्वविद्यालय के कुलपति कार्यालय पहुंचा. एक शाम विश्वविद्यालय के कुलपति का पीए रामविलास जी के यहां पहुंचा. बड़े विनम्र भाव से उसने उनका बायोडाटा मांगा और कहा – वीसी साहब आपको केएमआई का निदेशक बनाना चाहते हैं. रामविलास जी ने काग़ज़ की एक छोटी-सी पर्ची फाड़कर उस पर दो पंक्तियों में अपना बायोडाटा लिख डाला – पहली पंक्ति में अपना नाम और वल्दियत और दूसरी पंक्ति में अपनी उम्र.
बहरहाल नियुक्ति हो जाने पर संस्थान में एक छोटा-सा कार्यक्रम रखा गया. कार्यक्रम में डॉ. शर्मा को अपने साथ लेकर तत्कालीन कुलपति प्रो.बालकृष्ण राव वहां पहुंचे. प्रो. राव दक्षिणात्य थे और विज्ञान के विशेषज्ञ थे. हिन्दी साहित्य उनके लिए अछूता विषय था. हिंदी और हिंदी साहित्य के प्रति अपनी अज्ञानता का आभास दिलाते हुए उन्होंने बड़ी ईमानदारी से अपने संभाषण में कहा- “मुझे मालूम नहीं था कि हिन्दी का इतना बड़ा विद्वान आगरा में मौजूद है. इस संस्थान को लेकर विश्वविद्यालय ने बड़े-बड़े सपने देखे हैं, मुझे उम्मीद है कि डॉ.रामविलास शर्मा के नेतृत्व में वे पूरे होंगे. अंत में बारी रामविलास जी के ‘धन्यवाद वक्तव्य’ की थी. कुलपति की ओर देखते हुए वह बड़ी मासूमियत से मुस्कराये और कहा – ‘‘कोई भी व्यक्ति या संस्थान सपने तब देखता है, जब वह नींद में गाफ़िल होता है. मेरा वाइस चांसलर साहब से निवेदन है कि वह सोएं नहीं, जागें और जागकर हम लोगों का सहयोग करें ताकि इस संस्थान के क़द को बढ़ाया जा सके.’’
आगे चलकर मैंने इसी संस्थान में निदेशक पद पर आसीन हिंदी के कतिपय नामचीनों को, वीसी के आगे-पीछे अपनी धोती कांचते कदमताल करते देखा है.
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