इंतिज़ार हुसेन | बेक़रार रूह वाला क़िस्सागो
क़िस्सागो होने का एक फ़ायदा तो यही है कि आप चाहें तो हाले दिल भी ख़ालिस तसव्वुर के पर्दे में बयान करते रह सकते हैं यानी कि फ़िक्शन साबित कर सकते हैं. डिबाई से निकलकर लाहौर जा बसे इंतिज़ार हुसेन के हिस्से ख़ूब शोहरत-इज़्ज़त-इनाम आए मगर डिबाई की याद, क़स्बे का भूगोल और वहां के लोग किसी न किसी बहाने उनकी तमाम कहानियों के ख़ाके में दिखाई देते रहे हैं. वह नॉवलिस्ट रहे, कहानीकार, आलोचक, स्तम्भकार, नाटककार और ट्रेवल राइटर भी. उर्दू के कुछ आलोचकों ने उन्हें दार्शनिक और सुधारवादी ठहराते हुए उनके लिखे में सूफ़िज्म का गहरा असर देखा. और इंतिज़ार हुसेन ख़ुद को फ़िक्शन लिखने वाले से ज़्यादा कुछ भी मानने को कभी तैयार न हुए. एक बार एक प्रोग्राम में उन्होंने कहा – “मैं ख़ालिस फ़िक्शन लिखता हूं, सूफ़िज्म या दर्शन से मेरा कोई लेना-देना नहीं. अगर किसी को मेरे लिखे में दर्शन नज़र आता है तो मुझे इसका दोषी न माना जाए.”
डिबाई में अपने मामू के घर की तलाश की उनकी बेकली-बेचैनी पर कहानीकार प्रेम कुमार का लिखा एक संस्मरण ‘संवाद’ ने इतवार को छापा. इंतिज़ार हुसेन की पांच कहानियों से कुछ प्रसंग हमने यहां इस इरादे से इकट्ठा किए हैं कि पढ़ने वाले ख़ुद अपनी राय क़ायम कर सकेें.
दायरा
नहीं, यह कहानी तुम्हारे हाथ से निकल चुकी है. अब इसे कोई दूसरा ही लिखेगा.
मैं सुनता हूं और शशोपंज में पड़ जाता हूं. आवाज़ कहां से आई, किसी तरफ़ से भी आई हो, अंदर से या कहानी के पात्रों के बीच से, कोई हर्ज नहीं. कोई दूसरा भी लिखे. मगर यह कहानी एक बार फिर लिखी जानी चाहिए. मगर कौन दूसरा लिखेगा. वैसे तो कोई भी दूसरा हो सकता है. आख़िर वहां अकेला मैं ही तो नहीं था. कितने बहुत से थे. अगरचे सभी निकल खड़े हुए थे. सिवा उस शख़्स के. बहरहाल वह दूसरा कौन होगा. वह दूसरा मैं ही हूं. अब मैं इस कहानी को लिखूंगा. हां मैं…वैसे तो मैं भी उन्हीं में से हूं जो निकल खड़े हुए थे मगर बाक़ियों ने नए दयार में पहुंचकर अपने ठिकाने बना लिए. बस मुझे क़रार मयस्सर नहीं आया. कभी-कभी वहम में पड़ जाता हूं कि वहां से निकला भी हूं या नहीं. गोया सूरत यह है कि वह शख़्स उधर रह गया, बाक़ी इधर आ गए. मैं जैसे न वहां न यहां. एक बेक़रार रूह. ख़ैर मुझे अपनी कहानी तो नहीं सुनानी. कहानी उस शख़्स की सुनानी है जो उस कहानी का मुख्य पात्र है.
दायरा
सन्नाटा. आदमी न आदमज़ाद. दो गीदड़ पीपल के पास चुपचाप खड़े मुझे ताक रहे हैं. पांव सौ-सौ मन के हो जाते हैं. बस आंख खुल जाती है. अच्छा ही हुआ आंख खुल गई. पता नहीं आगे चलकर क्या कुछ होना था. बस मैं बच गया. क्योंकि वीज़ा और पासपोर्ट क़िस्म की कोई शय तो वाक़ई मेरे पास नहीं थी. मेरा तो रूप नगर पर एक ही हवाले से हक़ है, कम से कम मेरी अपनी जानकारी में. ये कि मैं वहीं की मिट्टी हूं. वहां मेरी नाल गड़ी है. मगर नाल गड़ी से होने से क्या होता है. और अगर आप अपने नगर की मिट्टी हैं तो हुआ करें. असल चीज़ तो वीज़ा है. वीज़ा के बग़ैर तो नगर से निकला हुआ आदमी ख़्वाब में भी इस नगर में दाख़िल नहीं हो सकता. तो अच्छा ही हुआ कि मेरी आंख खुल गई. बस यह एक ख़्वाब था कि आंख खुल जाने पर मैंने इत्मिनान का सांस लिया था. बाक़ी तो हमेशा ही अफ़सोस हुआ कि कमबख़्त आंख क्यों खुल गई.
मोरनामा
“मोर जन्नत की मुंडेर पर बैठा यह देख रहा था. उसे बूढ़े पर बहुत तरस आया. उड़कर नीचे आया और कहा कि बड़े मियां, मैं तुम्हें जन्नत की दीवार पार कराए देता हूं. अंधा क्या चाहे, दो आंखें. शैतान फ़ौरन ही मोर पे सवार हो गया. मोर उड़ा और उसे जन्नत में उतार दिया. अल्लाह मियां को जब पता चला तो उन्हें बहुत ग़ुस्सा आया. बाबा आदम और अम्मा हव्वा को जन्नत से निकाला तो मोर को भी निकाल दिया कि जाओ लंबे बनो.”
मैं कितना हैरान हुआ था – बेचारा मोर, जन्नत की मुंडेर पर बैठा करता था. अब हमारी मुंडेर पर आकर बैठ जाता है. मैंने नानी अम्मा से कहा तो कहने लगीं, “हां बेटे, अपनी मुंडेर छूट जाए तो यही होता है. अब तेरी मेरी मुंडेरों पर बैठता है और कहीं जो टिक के बैठ जाए.”
मुंडेरों, पेड़ों के झुंड में, टीले पे, जहां भी पंजे टिकाने को जगह मिल जाए.
शहरज़ाद की मौत
इस पर शहरज़ाद ने ज़ब्त का दामन छोड़ा. रोई और बोली – “ए मेरे सरताज, तू किस शहरज़ाद का हाल पूछता है जो शहरज़ाद चहकती बोलती कहानियां सुनाती तेरे महल में आई थी वो तो कब की मर चुकी.”
बादशाह यह सुनकर सटपटाया. परेशान होकर बोला – “यह मैं क्या सुन रहा हूं. अगर तबियत पे कोई मलाल है तो उसकी वजह तो मालूम होनी चाहिए.”
“ऐ बादशाह, ऐ मेरे सरताज,” शहरज़ाद ग़मज़दा आवाज़ में बोली, “तूने मेरी जान बख़्श दी मगर मुझसे मेरी कहानियां छीन लीं. मगर मैं तो उन्हीं कहानियों में ज़िंदा थी. वो कहानियां ख़त्म हुईं तो समझो कि मेरी कहानी भी ख़त्म हो गई.”
हमनिवाला
अगली सुबह मिट्ठू फिर हश्शाश था. ख़ूब चहक रहा था और नाश्ते में अपने हिस्से का तक़ाज़ा कर रहा था. जब मिट्ठू की तबीयत सेर हो गई और मैं भी उससे बातें करके सेर हो चुका तब मैंने कबूतरों की तरफ़ तवज्जोह की. कबूतरों ने इस दौरान मेरी बेतवज्जही का कोई बुरा नहीं माना. कबूतरों में यही तो अच्छी बात है, तुम उनसे अच्छा-बुरा कैसा भी सलूक करो उनके दिल पर मैल नहीं आता. आदमियों से इतनी लंबी सोहबत के बावजूद आदमियों वाला कोई ऐब उनमें नहीं पाया जाता. ग़ुस्सा, नफ़रत, घृणा, कीना, कोई ऐसी बात उनमें नज़र नहीं आएगी. तोतों में बहुत ख़ूबियां होने के साथ एक बड़ा ऐब ये है कि सोहबत का असर उस पर बहुत जल्द होता है. आदमियों की तरह बात करने तक यह असर महदूद नहीं होता. आदमियों की सोहबत में रहकर उसने उनके बहुत सारे ऐब अपना लिए हैं. यही देख लो कि एक बार मैंने उनसे पहले कबूतरों की थोड़ी ख़ातिर तवाज़ो कर दी तो उसने कितना बुरा माना.
उधर कबूतरों का ये हाल कि वो अपने आप में मगन गूटरगूं गूटरगूं करते रहते थे. शायद ये सूफ़ियों की सोहबत का असर हो. कितने ज़माने से औलिया अल्लाह की दरगाहों से पैवस्ता चले आ रहे हैं. इतनी लंबी बावस्तगी बेअसर तो नहीं जा सकती थी. या मुमकिन है कि सूफ़ियों वाली सिफ़त उनमें पहले से मौजूद हो और इसकी वजह से इनके यहां दरगाहों से रग्बत पैदा हुई हो. अब यही देख लो कि हर वक़्त गूटरगूं गूटरगूं करते रहते हैं तो इसकी कोई वजह तो होगी.
कलीला ने दमना से क्या कहा
कलीला यह मंसूबा सुनकर बहुत परेशान हुआ, कहने लगा, “ऐ दमना, तू तो अब आदमज़ाद की रविश पे चल निकला है. जैसे वे एक दूसरे के ख़िलाफ़ साजिश करते हैं और सियासी चालें चलते हैं वैसे ही तू कर रहा है. गीदड़ होकर तुझे आदमज़ाद वाले बातें ज़ेब नहीं देतीं.”
दमना यह सुनकर हंसा और बोला, “कलीला, तू भट में बैठा रहता है. तुझे दुनिया का कुछ पता भी है. यह दुनिया अब ग्लोबल विलेज बन चुकी है. आदमज़ाद और गीदड़, गधे और घोड़े, अब सब बराबर हैं. मशहूर शायर अल्लामा इक़बाल ने क्या ख़ूब कहा है –
आंख जो कुछ देखती है लब पे आ सकता नहीं
मह्वे हैरत हूं कि दिया क्या से क्या हो जाएगी.
मैंने आदमज़ाद को गीदड़ बनते देखा है और कितने गीदड़ों को आदमज़ाद के भेष में चलते फिरते देखा है और मुझे लीडरों की इस रविश पर कोई एतराज़ नहीं है. आख़िर उन्हें भी इस दुनिया में रहना है.”
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