स्मरण | शानी के मानी

  • 10:38 am
  • 16 May 2020

अपने बेशतर लेखन में मध्य-निम्न मध्यमवर्गीय मुस्लिम समाज का यर्थाथपरक चित्रण करने वाले शानी पर ये इल्जाम आम था कि उनका कथा संसार हिंदुस्तानी मुसलमानों की ज़िंदगी और उनके सुख-दुख तक ही सीमित है. और हां, शानी को भी इस बात का अच्छी तरह एहसास था.

आत्मकथ्य में इस इल्जाम की बाबत वह लिखते हैं, ‘‘मैं बहुत गहरे में मुतमईन हूं कि ईमानदार सृजन के लिए एक लेखक को अपने कथानक अपने आस-पास से और ख़ुद अपने वर्ग से उठाना चाहिए.’’ ज़ाहिर है कि शानी के कथा संसार में क़िरदारों की जो प्रामाणिकता हमें दिखाई देती है, वह उनकी सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की वजह से ही है. शानी के मानी यूं तो दुश्मन होता है और गोया कि ये तख़ल्लुस का रिवाज़ ज्यादातर शायरों में होता है. लेकिन शानी न तो किसी के दुश्मन हो सकते थे और न ही वे शायर थे. उनके लेखन में अलबत्ता शायरों सी भावुकता और काव्यात्मकता ज़रूर देखने को मिलती है. तो लेखक गुलशेर अहमद ख़ां हिन्दी साहित्य की दुनिया में अपने उपनाम शानी से ही पहचाने गए.

‘काला जल’ की ‘सल्लो आपा’, ‘शाल वनों का द्वीप’ की ‘रेको’, या फिर ‘युद्ध’ कहानी का ‘वसीम रिज़वी’ – पढ़ने वालों को ये क़िरदार पाठकों अगर आज भी याद हैं, तो अपनी विश्वसनीयता की वजह से ही. ‘सल्लो आपा’ को तो राजेन्द्र यादव हिन्दी उपन्यासों के अविस्मरणीय चरित्रों में से एक मानते रहे. हिन्दी में मुस्लिम परिवेश पर लिखी गई बेहतरीन कहानियों में ज़्यादातर शानी की हैं, जिनमें उन्होंने बंटवारे के बाद के भारतीय मुस्लिम समाज के दुख-तकलीफों, डर, भीतरी अंतर्विरोधों, यंत्रणाओं और विसंगतियों को बड़ी ख़ूबसूरती से दर्ज किया है.

शानी की कहानियों में प्रामाणिकता और पर्यवेक्षित जीवन की अक्काशी है. लिहाज़ा ये कहानियां हिन्दी साहित्य में अलग मुकाम रखती हैं. उन्होंने वही लिखा, जो देखा और भोगा. पूरी साफ़गोई और ईमानदारी के साथ वह सब लिखा, जो अमूमन लोग कहना नहीं चाहते. भाषा इतनी सीधी और आसान कि बिना किसी आडंबर कि बस बोलचाल की ज़बान. विषय कोई भी रहा हो, वे उसमें गहराई तक जाते और इस तरह विश्लेषित करते थे, जैसे कोई मनोवैज्ञानिक मन की गुत्थियों को परत-दर-परत उघाड़ता हो.

16 मई, 1933 को जगदलपुर में जन्मे शानी को बचपन से ही पढ़ने का बहुत शौक था. स्कूल की किताबों के बजाय साहित्य में उनका मन ज़्यादा लगता. उनके बाबा पढ़ने के शौकीन थे तो छुटपन से ही बाबा के लिए लाईब्रेरी से किताबें लाना और जमा करना उनके ज़िम्मे था. लाइब्रेरी और घर के बीच इस सफ़र में किताबें कब उनकी साथी हो गईं, उन्हें भी मालूम नहीं चला. किताबों का नशा ही था  कि अपने स्कूली दिनों में वह बिना किसी प्रेरणा और सहयोग के एक हस्तलिखित पत्रिका निकालने लगे थे.

बचपन का यह जुनून ही उनकी क़िस्मत बन गया. इस बारे में एक जगह उन्होंने लिखा है, ‘जो व्यक्ति सांस्कृतिक, साहित्यिक या किसी प्रकार की कला संबधी परंपरा से शून्य बंजर सी धरती बस्तर में जन्मे,  घोर असाहित्यिक घर और वातावरण में पले-बड़े,  बाहर का माहौल जिसे एक अरसे तक न छू पाए,  एक दिन वह देखे कि साहित्य उसकी नियति बन गया है.’

युवा शानी का साबक़ा ज़िंदगी की कठोर सच्चाईयों से हुआ. निम्न-मध्यम वर्ग के कुनबे में जन्मे, पढ़ाई पूरी नहीं हुई तो शुरूआती ज़िंदगी बहुत संघर्षों में बीती. कई तरह की नौकरियां कीं. मगर अदब से उनका नाता बरक़रार रहा. शानी की अच्छी कहानियों और उपन्यास का सृजन उनकी ज़िंदगी के मुश्किल हालात में हुआ. उनका पहला कहानी संग्रह ‘बबूल की छांव’ साल 1956 में आया और साल-साल भर के छोटे से अंतराल में उनकी तमाम ख़ास कृतियां सामने आती रहीं. कहानी संग्रह ‘डाली नहीं फूलती’ (1959), ‘छोटे घेरे का विद्रोह’ 1964, उपन्यास ‘कस्तूरी’ 1960, ‘पत्थरों में बंद आवाज’ 1964 और ‘काला जल’ 1965 में आ कर धूम मचा चुके थे.

दिल को छू लेने वाला उनका संस्मरण ‘शाल वनों का द्वीप’ भी गर्दिश के इन्हीं दिनों में लिखा गया. शानी की ज़िंदगी में जब स्थायित्व आया तो कलम उनसे रूठ गई. बाद में आईं उनकी कहानी और उपन्यास वह असर,  वह ताप नहीं छोड़ सके, जो उनकी शुरुआती रचनाओं में महसूस किया गया. इसकी बड़ी वजह, शानी का अपनी पुरानी रचनाओं को दोबारा पाठकों के सामने पेश करना था. उपन्यास ‘एक लड़की की डायरी’ उनके पहले उपन्यास ‘पत्थरों में बंद आवाज’ का पुनर्विन्यास है तो ‘सांप और सीढ़ी’, ‘कस्तूरी’ का पुनर्विन्यास. कहानी संग्रह ‘एक से मकानों का नगर’, ‘एक नाव के यात्री’ तथा ‘युद्ध’ में भी उन्होंने कई पुरानी कहानियों को दोबारा शामिल किया.

शानी के लेखन का शुरूआती दौर हिन्दी साहित्य का काफी हंगामेदार दौर था. लघु पत्रिकाओं से शुरू हुआ, ‘नई कहानी’ आंदोलन उस वक्त अपने उरुज पर था. गोया कि शानी का शुमार भी ‘नई कहानी’ के रचनाकारों की जमात में होने लगा था. उनकी कहानियां ‘कल्पना’, ‘कहानी’, ‘कृति’, ‘सुप्रभात’, ‘ज्ञानोदय’, ‘वसुधा’ और ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’, ‘धर्मयुग’ जैसी पत्रिकाओं में छपकर मशहूर हो रहीं थीं. अनुभूति की गहराई और शैली की सरलता, बोधगम्यता और प्रवाह के लिए साहित्यिक हल्के में उनकी चर्चा होने लगी थी.

शानी ने कहानी में काव्यमयी भाषा के साथ तीखे व्यंग्य को अपना हथियार बनाया. उनकी कहानियों में अनुभव की जो प्रमाणिकता, प्रवाह और समर्पण के साथ एक रचनात्मक आवेग दिखाई देता है, दरअसल आसपास के परिवेश और ख़ुद के तजुर्बे का उसमें बड़ा हाथ है. उपेन्द्रनाथ अश्क ने शानी की कहानियों के बारे में लिखा है- ‘शानी अपनी कहानियों के आधारभूत विचार, जीवन में गहरे डूब कर लाता है और उन्हें ऐसे सरल ढंग से अपनी कहानियों में रखता है कि  मालूम ही नहीं होता और बात हृदय में गहरे बैठ जाती है.’

ज़िंदगी के जानिब शानी का नज़रिया किताबी नहीं बल्कि अनुभवसिद्ध था. यही वजह है कि वे ‘युद्ध’, ‘जनाजा’, ‘बिरादरी’, ‘जगह दो रहमत के फरिश्ते आएंगे’, ‘हमाम में सब नंगे’, ‘जली हुई रस्सी’ जैसी दिलो-दिमाग को झंझोड़ देने वाली कहानियां और ‘काला जल’ सरीखा कालजयी उपन्यास हिन्दी साहित्य को दे सके. उनके कथा संसार में हिन्दू-मुस्लिम संबधों पर भी कई मर्मस्पर्शी कहानियां हैं, जो भुलाए नहीं भूलतीं. उनकी कहानी ‘युद्ध’ को तो आलोचकों ने हिन्दू-मुस्लिम संबधों के प्रामाणिक और मार्मिक साहित्यिक दस्तावेज़ माना है.

समाज में द्वेष की बढ़ती खाई को लेकर वह हमेशा फ़िक्रमंद रहे और अपनी ज़िंदगी में भी ऐसे सवालों से जूझते रहे. कथानक और तटस्थ ट्रीटमेंट उनकी कहानियों को ख़ास बनाता है. कहानी ‘युद्ध’ भय और विषाद के मिश्रित माहौल से शुरु होती है और आख़िर में पाठकों के सामने कई सवाल छोड़ जाती है. इस कहानी के अंत में क़िरदारों के मार्फत वह कुछ नहीं कहते. और वह विलक्षण अंत भला कौन भूल सकता है – ‘दालान में टंगे आईने पर बैठी एक गौरैया हमेशा की तरह अपनी परछाईं पर चोंच मार रही थी.’

शानी जज़्बाती अफ़सानानिगार थे. विसंगतियों के प्रति उनका आक्रोश निजी ज़िंदगी में और लेखन में बराबर झलकता रहा. अपनी आत्मा की आवाज़ दबाकर उन्होंने कभी कोई समझौता नहीं किया. उनकी एक और चर्चित कहानी ‘जली हुई रस्सी’ का केन्द्रीय विचार यही है. इंसानियत और भाई-चारे को उन्होंने अपनी कहानियों के ज़रिये आगे बढ़ाया. ‘बिरादरी’ कहानी में वे बड़ा मौजू सवाल उठाते हैं, ‘बिरादरी केवल जात वालों की होती है?  इंसानियत की बिरादरी क्यों नहीं बन सकती? और क्यों नहीं बननी चाहिए?’ शानी आदिवासी अंचल में पैदा हुए और उनका शुरुआती जीवन जगदलपुर में बीता लेकिन उन्होंने आंचलिक कहानियां सिर्फ़ पांच लिखीं – ‘चील’, ‘फांस’, ‘बोलने वाले जानवर’, ‘वर्षा की प्रतीक्षा’ और ‘मछलियां’. इन कहानियों में वे आदिवासी जीवन के अभावों, विषमताओं और तकलीफ़ को पूरी संवेदनशीलता से उकेरते हैं.

संस्मरण ‘शाल वनों के द्वीप’ शानी की बेमिसाल कृति है. हिन्दी में यह अपने ढंग की बिल्कुल अल्हदा और अकेली रचना है. इस रचना को पढ़ने में उपन्यास और रिपोर्ताज दोनों का मज़ा आता है. किताब की प्रस्तावना में शानी इसे न तो यात्रा वर्णन मानते हैं और न ही उपन्यास. बल्कि इसे कथात्मक विवरण बताते हैं. समाज विज्ञान और नृतत्वशास्त्र से अपरिचित होने के बावजूद उन्होंने जिस तरह मनुष्यता की पीड़ा और उल्लास का जैसा चित्रण किया है,  वह पाठकों को चमत्कृत करता है. हिन्दी साहित्य में आदिवासी जीवन को इतनी समग्रता से शायद ही किसी ने इस तरह देखा हो. ‘

शाल वनों का द्वीप’ यदि शानी की बेमिसाल रचना बन पाई, तो इसकी वजह भी है. शानी ने अमेरिकन नृतत्वशास्त्री एडवर्ड जे के साथ एक साल से ज्यादा अरसा अबुझमाड़ के बीहड़ जंगलों में आदिवासियों के बीच बिताया और आदिवासियों की ज़िंदगी को करीब से देखा. जिसका नतीजा, ‘शाल वनों का द्वीप’ है. डॉ. एडवर्ड जे आदिवासी जीवन का समाजशास्त्रीय अध्यन करने भारत आए थे. इस किताब की तारीफ़ में उन्होंने लिखा है, ‘शानी की यह रचना शायद उपन्यास नहीं, एक अत्यंत सूक्ष्म संवेदनायुक्त सृजनात्मक विवरण है. जो एक अर्थ में भले ही समाज विज्ञान न हो लेकिन दूसरे अर्थ में यह समाज विज्ञान से आगे की रचना है. एक सृजनशील रचनाकार के रूप में घटनाओं तथा चरित्रों के निरुपण में शानी की स्वतंत्रता से मुझे ईर्ष्या होती है. शानी द्वारा प्रस्तुत मानव जाति के एक भाग का यह अध्ययन,  समस्त मानव जाति को समझने की दिशा में एक योगदान है.’ ‘शाल वनों का द्वीप’ की इन तारीफ़ों के बावजूद शानी मुतमईन नहीं थे. उनका मानना था कि, ‘आदिवासी जीवन पर वही प्रामाणिक लिखेगा, जो खुद उनके बीच से आएगा.’

प्रकृति की अनुपम छटाएं उनकी कथाओं में ख़ूब मिलती हैं, प्रकृति के ज़रिये वे मन के तमाम भावों की अभिव्यक्ति करते हैं. कहानी ‘युद्ध’ में इसकी बानगी देखिए,  ‘पाकिस्तान से युद्ध के दिन थे, हवा भारी थी. लोग डरे हुए और सचमुच नीमसंजीदा. क्षणों की लंबाई कई गुना बढ़ गई थी. आतंक, असुरक्षा और बैचेनी से लंबा दिन वक्त से पहले निकलता और शाम के बहुत पहले यक-ब-यक डूब जाता था. फिर शाम होते ही रात गहरी हो जाती थी और लोग अपने घरों में पास-पास बैठकर भी घंटों चुप लगाए रहते थे.’

उनकी हिन्दुस्तानी ज़बान की रवानी की एक वजह तो शायद यही कि हिन्दी में उर्दू-फ़ारसी के अल्फाज से उन्होंने परहेज़ नहीं किया. स्वभाविक रूप से जो शब्द आते हैं, उन्हें वे वैसे का वैसा रख देते हैं. हिन्दी-उर्दू भाषा के सवालों पर उनका कहना था, ‘हिन्दी-उर्दू में मुझे कोई ज्यादा फ़र्क नज़र नहीं आता. अलबत्ता इसके कि यह दो विशिष्टताओं वाली भाषा हैं. मैं यहां जाति की बात नहीं बल्कि दो विशिष्ट संस्कृति की बात करना चाहूंगा. इनकी पैदाइश निःसंदेह हिंदुस्तान है. एक स्याह हो सकती है और दूसरी सफ़ेद, इन्हें भिन्न-भिन्न रंग दिए जा सकते हैं. आंखों में फ़र्क हो सकता है, कहने में फ़र्क को सकता है, लेकिन वे बहनें हैं. वे इसी मिट्टी में उपजी हैं. यह बात जुदा है कि उनकी लिपि में फर्क है, उनके व्यवहार में भिन्न शेड्स हैं. प्रत्येक भाषा, प्रत्येक जनसमुदाय और प्रत्येक मानसिकता का एक अपना विन्यास होता है. इन दोनों भाषाओं में यह विन्यास मौजूद है, यह मेरी अपनी समझ है. लेकिन ये एक दूसरे के बहुत समीप हैं.’’

शानी ने छह उपन्यास लिखे- ‘कस्तूरी’, ‘पत्थरों में बंद आवाज़’, ‘काला जल’, ‘नदी और सीपियां’, ‘सांप और सीढ़ियां, ‘एक लड़की की डायरी’. हिन्दी साहित्य में भारतीय मुस्लिम समाज और संस्कृति को बेहतर समझने के लिए जिन उपन्यासों का ज़िक्र अक्सर होता है, ‘काला जल’ उनमें से एक है. इस उपन्यास को पाठकों और आलोचकों ने एक सुर में सराहा. शानी के जिगरी दोस्त आलोचक धनंजय वर्मा ने लिखा है, ‘काला जल हिन्दी कथा परम्परा की व्यापक सामाजिक जागरूकता और यथार्थवादी चेतना की अगली और नई कड़ी के रुप में उल्लेखनीय है. वह अतीत-वर्तमान-भविष्य के संबंधों का एक महा नाटक है. जिसका रंगमंच है – एक मध्यवर्गीय भारतीय मुस्लिम परिवार. एक विशाल फलक पर यह सामाजिक यथार्थ का गहरी सूझ-बूझ और पारदर्शी अनुभूति के साथ मार्मिक अंकन है. पूरा उपन्यास आधुनिक भारतीय जीवन के विविध स्तरीय संघर्षों का चित्र है, जो अपनी घनीभूत और केन्द्रीय संवेदना में भारतीय जनता के आर्थिक और भौतिक संघर्ष का दस्तावेज़ है, जिसका कथा सूत्र समाज की तीन-तीन पीढ़ियों का दर्द समेंटे है.’ काला जल की व्यापक अपील और लोकप्रियता के चलते ही बाद में इस पर टेलीविज़न धारावाहिक बना, जो उपन्यास की तरह ही काफी मकबूल हुआ. इस उपन्यास का भारतीय भाषाओं के साथ ही अंग्रेज़ी और रूसी भाषा में भी अनुवाद हुआ.

शानी की कहानियां दो खंडो में ‘सब एक जगह’ संग्रह में संकलित हैं. ‘एक शहर में सपने बिकते हैं’ उनका निबंध संग्रह है. बहुत कम लोगों को इल्म होगा कि फ़िल्म ‘शौकीन’ के संवाद शानी के लिखे हुए हैं. शानी अपनी आत्मकथा भी लिखना चाहते थे, मगर वह अधूरी ही रह गई. अलबत्ता, आत्मकथा का एक हिस्सा ‘सारिका’ में ‘गर्दिश के दिन’ नाम से छपा. साल 1972 से लेकर मार्च 1978 तक ‘मध्यप्रदेश साहित्य परिषद्’ के सचिव के तौर पर उन्होंने कई नवाचार किए, नई योजनाएं बनाई और तत्परता से लागू कीं.

वह ‘साक्षात्कर’, ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ पत्रिकाओं के संस्थापक संपादक रहे, ‘कहानी’ पत्रिका का भी संपादन किया. नए रचनाकारों को वह हमेशा तवज्जो देते रहे और नए-पुराने सभी रचनाकारों से उनका सामंजस्य बहुत अच्छा था. शानी के मानी भले ही दुश्मन हो,  लेकिन सही मायने में वे अवाम दोस्त लेखक थे. उनके पूरे कथा साहित्य का पैग़ाम इंसानियत और मुहब्बत है. हिन्दी कथा साहित्य में इंसानी जज़्बात को पूरी संवेदनशीलता और ईमानदारी से पेश करने के लिए शानी हमेशा याद किए जाएंगे.

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