चुन्नी गोस्वामी | उस्ताद फुटबॉलर जो बेहतरीन क्रिकेटर भी रहे

1962 के जकार्ता एशियाड में फुटबॉल स्वर्ण विजेता, इज़राइल में हुए 1964 के एएफ़सी एशियन कप की रनर्स-अप रही और 1964 में मर्डेका कप में रनर्स-अप रही भारतीय फुटबॉल टीम के कैप्टन रहे थे चुन्नी गोस्वामी. और एशियाड खेलों के इतिहास, एएफ़सी एशियन कप के इतिहास और मर्डेका कप के इतिहास में यह प्रदर्शन आज तक भारतीय फुटबॉल टीम के श्रेष्ठतम प्रदर्शन रहे हैं.

1962 जकार्ता एशियाड से सेमी-फाइनल में अपने ग्रुप में शीर्ष पर रही दक्षिण विएतनाम की टीम के ख़िलाफ़ कड़ी टक्कर में चुन्नी गोस्वामी के ब्रेस (दो गोल) से ही भारतीय टीम 3-2 से जीत सकी थी. चुन्नी गोस्वामी ने मैच का पहला और आख़िरी गोल किया था. ग्रुप मैचों में भारतीय टीम ने जापान को 2-0 से हराया था और फ़ाइनल में एक लाख दर्शकों के सामने दक्षिण कोरिया की मज़बूत टीम को 2-1 से हराकर स्वर्ण पदक हासिल किया था. चुन्नी गोस्वामी उस भारतीय टीम के भी सदस्य थे, जिसने 1960 के रोम ओलिंपिक्स में फ्रांस की टीम को ड्रॉ खेलने पर मजबूर कर दिया था.

किशोरगंज (अब बांग्लादेश) में 15 जनवरी 1938 को जन्मे सुबिमल गोस्वामी को प्यार से चुन्नी (जिसका मतलब माणिक – रूबी होता है) बुलाया जाता था. आठ वर्ष की कच्ची उम्र से ही एशिया के सबसे पुराने फुटबॉल क्लब – मोहन बागान – की जूनियर टीम से जुड़ गए चुन्नी गोस्वामी ने मरीनर्स के प्रति आजीवन निष्ठा निभाई. यहाँ तक कि एक बार (संभवतः 1966 में) उन्होंने इंग्लिश प्रीमियर लीग के श्रेष्ठतम क्लब में से एक – टॉटेनम होस्टपर – का ऑफर भी ठुकरा कर भारत,  मोहन बागान और अपने परिवार के साथ रहना चुना था. कुशल बॉल-कंट्रोल और ड्रिबलिंग स्किल्स के लिए मशहूर रहे चुन्नी गोस्वामी ने मोहन बागान के लिए 1954 से 1968 तक कुल 437 मैच खेलकर 264 गोल किए.

पीके बैनर्जी और तुलसीदास बलराम के साथ चुन्नी गोस्वामी भारतीय फुटबॉल टीम की अग्रणी आक्रामक पंक्ति बनाते थे, जो विपक्षी टीम में खलबली मचा देती थी. भारतीय टीम के तत्कालीन कोच सैयद अब्दुल रहीम के निर्देशन में इस तिकड़ी ने जरनैल सिंह, पीटर थंगराज जैसे माहिर खिलाड़ियों के साथ मिलकर भारतीय फुटबॉल इतिहास का (अब तक का) स्वर्णिम अध्याय लिखा.

टीममेट पीके बैनर्जी की तरह चुन्नी गोस्वामी को भी अर्जुन पुरस्कार (1963) और पद्मश्री (1983) से सम्मानित किया गया था. चुन्नी गोस्वामी को 1962 में एशिया का सर्वश्रेष्ठ स्ट्राइकर घोषित किया गया था. 2005 में उन्हें मोहन बागान रत्न से भी सम्मानित किया गया. अभी सवा महीने पहले ही पीके बैनर्जी का निधन हुआ और कल यानी बृहस्पतिवार को चुन्नी गोस्वामी के जाने से भारतीय फुटबॉल और ज्यादा गरीब हो गया.

बचपन से ही चुन्नी गोस्वामी की दिलचस्पी क्रिकेट में भी थी और वे नियमित रूप से क्रिकेट खेलते भी थे. फुटबॉल प्राथमिकता होने की वजह से क्रिकेट को समय नहीं दे पाते थे, लेकिन एक बार अंतर्राष्ट्रीय फुटबॉल और क्लब फुटबॉल को अलविदा कहने के बाद 1968 से अपना पूरा समय क्रिकेट को दिया. चुन्नी मध्यक्रम में बल्लेबाजी करते थे और दाहिने हाथ के मध्यम-तेज गति के स्विंगर गेंदबाज थे. वे न सिर्फ 1972-73 तक बंगाल की रणजी टीम से खेलते रहे, बल्कि उनकी कप्तानी में बंगाल की टीम 1971-72 के रणजी ट्रॉफी फ़ाइनल तक पहुँची भी. यह दीगर बात है कि अजित वाडेकर, दिलीप सरदेसाई, एकनाथ सोलकर, पद्माकर शिवालकर और युवा सनसनी सुनील गावस्कर जैसे खिलाड़ियों से सज्जित लगातार 13  (इस वर्ष और इसके अगले वर्ष मिलाकर 15)  रणजी खिताब जीतने वाली अपराजेय बॉम्बे की टीम से पार पाना संभव नहीं हो सका. चुन्नी गोस्वामी खुद केवल 0 और 5 रनों का योगदान कर सके. लेकिन तीन वर्ष पूर्व इन्हीं टीमों के बीच हुये एक और रणजी फ़ाइनल में बंगाल की तरफ से दोनों ही पारी में सर्वोच्च स्कोर चुन्नी गोस्वामी ने ही बनाया था – 96 और 84. हालांकि उस वर्ष भी ट्रॉफी बॉम्बे ने ही जीती थी, लेकिन पहली पारी की बढ़त के आधार पर, न कि सीधे हराकर, ज़ाहिर है कि चुन्नी गोस्वामी की दोनों पारियाँ बॉम्बे की सीधी जीत की राह में सबसे बड़ा अवरोध रहीं.

प्रथम श्रेणी के 46 मैचों में चुन्नी गोस्वामी ने एक शतक और सात अर्धशतकों के साथ 1592 रन बनाए और अपनी माध्यम गति की स्विंग गेंदबाजी से कुल 47 विकेट लिए. वैसे ये औसत रिकॉर्ड तब महत्वपूर्ण हो जाता है जब हमें पता चलता है कि फुटबॉल से सन्यास लेने के बाद ये मैच खेले गए थे.

एक ख़ास क्रिकेट मैच के ज़िक्र के बिना चुन्नी गोस्वामी की कहानी अधूरी रह जाएगी. सन् 1966 की सर्दियों में गैरी सोबर्स की वेस्ट इंडीज टीम भारत दौरे पर थी तो एक टूअर मैच में पूर्व और मध्य क्षेत्र की सम्मिलित टीम से तीन-दिवसीय मैच इंदौर में रखा गया. हालाँकि सोबर्स इस मैच में नहीं खेले, लेकिन रोहन कन्हाई, क्लाइव लॉयड, सेमूर नर्स, ग्रिफिथ, हॉल जैसे खिलाड़ियों वाली वेस्ट-इंडीज़ की टीम किसी भी तरह कमज़ोर नहीं थी. बंगाल की टीम के बीस वर्षीय युवा तेज़ गेंदबाज सुब्रत गुहा के साथ चुन्नी गोस्वामी ने बॉलिंग शुरू की. पहला विकेट गुहा के हिस्से आया. क्रीज़ पर आने के बाद रोहन कन्हाई ने पहली दो गेंदें चुन्नी गोस्वामी की खेलीं और बुरी तरह बीट हुए. “टू हेल विद इट. इंडियन बॉल्स आर स्विंगिंग टू मच. गिव मी द ऑफ-स्टम्प.” कहते हुये रोहन कन्हाई ने फिर से गार्ड लिया. फिर भी कन्हाई केवल चार रन ही बना सके और चुन्नी गोस्वामी की ही गेंद पर आउट हुए. पूरी वेस्ट इंडीज की टीम 136 के स्कोर पर सिमट गई. चुन्नी गोस्वामी का बॉलिंग एनॉलिसिस था – 19.5-7-47-5, जबकि सुब्रत गुहा ने 4 विकेट लिए थे. पूर्व-मध्य क्षेत्र की टीम ने जवाब में 283 का स्कोर बनाया जिसमें चुन्नी गोस्वामी ने निम्न-मध्यक्रम में बल्लेबाजी करते हुये 25 और सुब्रत गुहा ने 46 रनों का योगदान दिया. 147 रनों से पिछड़ चुकी वेस्टइंडीज़ की टीम दूसरी पारी में भी गुहा और गोस्वामी की घातक बॉलिंग के सामने लाचार नजर आई और 30.1 ओवर्स में महज 103 रन पर ढेर हो गई. बॉलिंग सिर्फ दो गेंदबाजों ने की थी – गुहा ने 7 विकेट लिए जबकि चुन्नी गोस्वामी ने 3. वेस्ट इंडीज की शक्तिशाली टीम पूर्व-मध्य क्षेत्र की टीम से सिर्फ तीन दिनों में एक पारी और 44 रनों से हार गई थी.  आपको कितने ऐसे मैच याद हैं, जिसमें भारतीय दौरे पर आई कोई टेस्ट टीम घरेलू टीम से टूअर मैच तीन दिनों में हार गई हो, और वो भी पारी से.

बताता चलूँ कि वेस्टइंडीज़ ने उस दौरे पर तीन टेस्ट मैचों की सिरीज़ में भारतीय टीम को 2-0 से हराया था. उन दिनों भारतीय टीम में तेज गेंदबाजों की जगह सिर्फ बॉल की चमक खत्म करने के लिए हुआ करती थी, चलती स्पिनर्स की ही थी. अगले वर्ष गर्मियों में इंग्लैंड जाने वाली टीम में सुब्रत गुहा को शामिल किया गया और आगे जाकर गुहा के हिस्से चार टेस्ट मैच आए लेकिन भारतीय क्रिकेट टीम में चुन्नी गोस्वामी के लिए कभी जगह नहीं बन सकी.


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