थिएटर | दयाशंकर उर्फ़ अजय चौहान की डायरी
बरेली | रंगविनायक रंगमंडल ने कल शाम नादिरा ज़हीर बब्बर के नाटक ‘दयाशंकर की डायरी’ का मंचन किया. विंडरमेयर स्टुडियो थिएटर में यह मोनोलॉग अजय चौहान ने प्रस्तुत किया.
नाटक के किरदार दयाशंकर की यह कहानी अकेले उसी की नहीं है, यह उत्तर भारत के सैकड़ों-हज़ारों ऐसे नौजवानों की कहानी भी है, मुंबई जिनके सपनों का शहर है, फ़िल्मी दुनिया में शोहरत जिनकी अदम्य आकांक्षा है और नाकामी जिनकी क़िस्मत. यह हसरतों और हक़ीक़त के द्वंद्व की कहानी है, जिसमें सपने बार-बार यथार्थ की सख़्त चट्टान से टकराते और बिखरते रहते हैं. इस बिखराव का अंत अगर किसी पागलख़ाने की चहारदीवारी में हो तो हैरानी कैसी! ज़िंदगी की सच्चाइयां और विद्रूप नाटक में वक्रोक्तियों, व्यंग्य और कई बार परिहास की शक्ल में सामने आती हैं. चकाचौंध की दुनिया के बीच आदमी का अदनापन रेखांकित करती हैं.
दयाशंकर का ख़्वाब भी हीरो बनना था. गांव की रामलीला में वानरसेना में शामिल होने का तजुर्बा और उसका आत्मविश्वास क्लर्क की मामूली नौकरी करते हुए हर रोज़ छीजता था मगर उसके सपने और प्रेम ने उसे थामे रखा था. नौकरी जीने की ज़रूरत थी, मगर आंखों का क्या. सपने तो आते ही थे. मगर इंसानी दिमाग़ की बर्दाश्त की भी तो हद होती है और दयाशंकर यह हद पार कर गया तो फिर पागलख़ाने जा पहुंचा.
एक घंटा दस मिनट के नाटक में अजय चौहान ने देखने वालों को हर क्षण चमत्कृत किया. अंग संचालन और भावों के साथ उनकी आवाज़ के उतार-चढ़ाव ने ख़ूब प्रभावित किया. निर्देशक अम्बुज कुकरेती ने इस नाटक में तीन प्रयोग किए. नाटक शुरू होने के पहले ही दर्शकों को मंच के एक हिस्से में एक युवती की मूर्ति दिखाई देती है. नाटक देखते हुए कई बार उस पर ध्यान जाता. नाटक के आख़िर में लोगों ने उस मूरत को सजीव होते देखा. यह प्रभावशाली अभिनय काव्या ने किया. दयाशंकर के मनोभावों, उसके डर और आशंकाओं की अभिव्यक्ति के लिए नक़ाबपोश यानी शोभित और उसके सपनों की मूरत के तौर पर फ़रीन.
शुभा भट्ट भसीन, स्पर्श और शोभित ने प्रकाश संयोजन किया. लव तोमर और ऋषभ ने संगीत और ध्वनि-संयोजन तथा मंच सज्जा फ़रीन, स्पर्श और ऋषभ ने की. वेशभूषा फ़रीन और ऋषभ के ज़िम्मे थी.
आभार वक्तव्य में डॉ.बृजेश्वर सिंह ने कहा कि पंद्रह साल पहले जब उन्होंने आशीष विद्यार्थी अभिनीत यह नाटक दिल्ली में देखा था, उन्हें लगा था कि अजय चौहान इसके लिए सबसे उपयुक्त अभिनेता होंगे. अजय ने उसकी बात सही करके दिखाई भी.
रंगविनायक रंगमंडल की नियमित गतिविधियों की वजह से शहर में गंभीर थिएटर पसंद करने करने वालों का छोटा ही सही, मगर एक वर्ग तैयार ज़रूर हुआ है. हालांकि कवि-सम्मेलन या मुशायरों के वीडियो देखकर बड़े हुए तमाम चीयरलीडर्स टाइप दर्शकों को जाने क्यों लगता है कि मंच पर ‘फ़ेड आउट’ कलाकारों की ज़रूरत की वजह से नहीं होता, बल्कि यह उनके लिए तालियां बजाने का इशारा है. तो जैसे ही मंच पर रौशनी मद्धिम होनी शुरू होती है, दो-चार लोग पहल करते हैं और फिर ढेर सारे लोग उनका अनुसरण. बीच-बीच में स्नाइपर की तरह अपने मोबाइल का इस्तेमाल करने वालों को भी शऊर सीखना अभी बाक़ी है.
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