काश! शेक्सपियर ने इंद्रेश की ज़िंदगी की किताब पढ़ी होती
हर नाम का कोई अर्थ होता है और नाम रखने वाले के लिए उसका ख़ास महत्व भी. बेचन, सनीचर, घुरई, हवलदार, वकील सरीखे नाम ऐसे ही महत्व का नमूना हैं. ‘नाम में क्या रखा है’ का जुमला शेक्सपियर के नाटक के लिए ठीक हो सकता है, असल ज़िंदगी में नाम मानी-ख़ेज़ होते ही हैं.
डेटलाइन | महोबा.
पनवाड़ी ब्लॉक. हैवतपुरा गांव.
और गांव में कुम्हारों की बस्ती.
साधना, स्वेच्छा, अनिच्छा और रेनू…
हां, ये ही नाम सुने थे. तब भी मन में हलचल हुई और आज भी. जिज्ञासा ने फिर से इंद्रेश के डेरे पर लाकर खड़ा कर दिया. उनके चेहरे पर वही मुस्कान, बातों में वैसी ही मिठास. मन भी अबकी बार हल्का लगा. देखते ही बोले – पांव पखारूं सा’ब जी. अब घड़े-सुराहियां बिक रही हैं. लोगों ने फ़्रिज बंद कर दिए हैं न! कुल्हड़ भी बिकने लगते तो ज़िंदगी थोड़ी पटरी पर आ जाती. अंग्रेजी में वो कहते हैं न कि कुल्हड़ यूज एंड थ्रो होता है. बस मनाइए कि होटल-सोटल खुल जाएं.
मैंने पूछा – बेटियां कहां हैं तो इंद्रेश ने बताया – पड़ोस में. फिर कहा – अभी बुलाता हूं. और आवाज़ दी – इशिका रे! जल्दी आ.
जो लड़की दौड़ी-दौड़ी आई, उसे देखकर मैं चौंक गया – यह तो साधना है. इशिका कौन है?
इशिका तो यही है, साधना कौन?…वह बोले – ज़रूर कोई ग़लतफ़हमी हुई है आपको. फिर उन्होंने बाक़ी तीनों बेटियों के नाम बताए – दूसरी तर्जना, तीसरी स्वेच्छा और चौथी अनिच्छा है.
मैं फिर चकराया, रेनू कहां गई. फिर सोचा, बहस करना बेकार. जो है, यही है.
इशिका तो ठीक पर तर्जना, स्वेच्छा और अनिच्छा !! ये नाम थोड़े अजीब नहीं लगते?
मेरे इस सवाल पर इंद्रेश ने जो कुछ बताया, आप भी जान लीजिए,
जब पंद्रह साल का था तभी मेरी शादी हो गई. ब्रजकुंवर भी तब शादी लायक़ नहीं थी. लेकिन घर में घुसने के बाद उसने मेरी ज़िंदगी बदलनी शुरू कर दी. मैं कुछ करता-धरता न था. खाता था और घूमता था. वह बोली – कुछ करो, बैठने से क्या होगा.
उसकी बात ठीक लगी. मैंने मार्बल पत्थर की मशीन पर काम पकड़ लिया. कुछ पैसे आने लगे तो जी उछलने लगा. और कमाने की धुन सवार हो गई. कभी-कभी शादी-ब्याह में लाइट के काम पर जाने लगा. कुम्हारी भी सीखने लगा. इसी बीच ब्रजकुंवर उम्मीद से हो गई.
बच्ची जन्मी तो पूरा घर झूम उठा. ब्रजकुंवर बोली – पहली बेटी के रूप में लक्ष्मी दिखी हैं. फिर उसी ने ख़ूब सोचकर इसका नाम इशिका रखा. कहने लगी – भगवान की बेटी को इशिका कहते हैं. यह भगवान की बेटी ही तो है. मैंने भी उसका मान रखा. यह भी सोचा, बेटा आ जाए तो हम दो-हमारे दो, बस.
ब्रजकुंवर फिर उम्मीद से हुई तो जो ख़ुशी हुई, क्या बताऊं. ढोल-मंजीरे से लेकर नाच-गाना सब हो गया. लेकिन फिर लड़की ही हुई. माथा भन्ना गया. तब ब्रजकुंवर ने समझाया – यह हमें तारने आई है. इसी से तरन-तारण होगा. ब्रजकुंवर ने इसका नाम तर्जना रख दिया.
मैं बेटे के लिए पागल हुआ जा रहा था. हम दो-हमारे दो का ख़याल ही उतर गया. ब्रजकुंवर भी अबकी बेटा चाहती थी, पर ऐसा हुआ नहीं. हम दोनों ही बेटी नहीं चाहते थे, इसलिए जब नामकरण की बारी आई तो हम दोनों ने ही बेटी का नाम स्वेच्छा रख दिया.
ऐसे ही अनिच्छा का नाम रखा गया सा’ब जी. इंद्रेश ने कहा – इच्छाएं सारी मर चुकी थीं इसलिए अनिच्छा रख दिया.
लेकिन बात ख़त्म करते ही इंद्रेश के चेहरे पर मुस्कान तैर उठी – नाम-वाम में क्या रखा, असल तो काम है. इन बेटियों ने ही मेरा हौसला बना रखा है. इस कोरोना कर्फ्यू में टूट गया था. इन चारों ने ही दिन-रात लगकर मेरा साथ दिया है. अब तो ये कलेजे का टुकड़ा हैं. इनको बड़ा करके ससुराल भेजूंगा तो पता नहीं कैसे रह पाऊंगा.
सम्बंधित
इंद्रेश कुमार | जैसे-तैसे निवाले का इंतज़ाम, यह भी कोई ज़िंदगी है
अपनी राय हमें इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.
अपना मुल्क
-
हालात की कोख से जन्मी समझ से ही मज़बूत होगा अवामः कैफ़ी आज़मी
-
जो बीत गया है वो गुज़र क्यों नहीं जाता
-
सहारनपुर शराब कांडः कुछ गिनतियां, कुछ चेहरे
-
अलीगढ़ः जाने किसकी लगी नज़र
-
वास्तु जौनपुरी के बहाने शर्की इमारतों की याद
-
हुक़्क़ाः शाही ईजाद मगर मिज़ाज फ़क़ीराना
-
बारह बरस बाद बेगुनाह मगर जो खोया उसकी भरपाई कहां
-
जो ‘उठो लाल अब आंखें खोलो’... तक पढ़े हैं, जो क़यामत का भी संपूर्णता में स्वागत करते हैं