चिरयौवन के पहाड़ पर लुप्त होते लोक-व्यवहार की औषधि

हरियाणा के महेंद्रगढ़ ज़िले का मुख्यालय नारनौल. शहर से क़रीब सात किलोमीटर दूर ढोसी आश्रम. बरेली में बैठकर भी मेरे लिए अंदाज़ लगाना मुश्किल नहीं है कि नए साल की सुबह ढोसी की पहाड़ियों पर कितनी ख़ुशनुमा होगी. हो सकता है, कोहरा लपेटे जनवरी की कड़कड़ाती ठंड में चोटी की ओर चढ़ती उन सर्पाकार सीढ़ियों पर कम लोग दिखें, लेकिन उनकी गर्मजोशी ज़रूर मौसम को चुनौती दे रही होगी. साल का पहला दिन जो होगा.
सामान्यतः खाने-पीने की चीज़ों और पानी की बोतलों के साथ आने वालों के थैले इस ख़ास दिन तो ज़रूर थोड़े और भारी होंगे. कुल जमा यह कि यदि एक बार आपने उन हरी-भरी पहाड़ियों की ऊंचाइयां नापी हों तो उन्हें भूल नहीं सकते. सुभाष अग्रवाल मिल गए हों तो, न भूलने की गारंटी पक्की है. औरों का पता नहीं, पर मेरे लिए उन पथरीली सीढ़ियों पर एक ज़िंदादिल बुज़ुर्ग से मिलने से कहीं ज़्यादा था. अजनबियों से भी ‘राम-राम’ करके ख़ुद से जोड़ने की आदरपूर्ण परंपरा दिखी, जो कभी भारतीय लोकजीवन में सामान्य बात थी. अब तेज़ रफ़्तार ज़िंदगी में दुर्लभ हो गई है.
दक्षिणी हरियाणा और उत्तरी राजस्थान के बीच, अरावली पर्वतमाला की इन पहाड़ियों से मेरा परिचय बीते अगस्त के शुरुआती दिनों में हुआ. प्राणेश पांडेय के साथ नारनौल की यात्रा पर था. उन्होंने कुछ स्थानीय साथियों संग सुबह-सुबह ढोसी आश्रम जाना तय किया. मुझसे इतना भर कहा- थोड़ी चढ़ाई है पर अच्छा लगेगा. अगली सुबह हम पहाड़ के नीचे पहुंचे तो वहां तमाम गाड़ियां पहले से खड़ी थीं. पता चला, घूमने की गरज़ से आने वाले तो हैं ही, तमाम ऐसे लोग भी हैं जो यहां रोज़ आते हैं. दूर-दूर से आने वाले परिवार थे तो दोस्तों की टोलियां भी. मंदिरों और च्वयन ऋषि का आश्रम होने के कारण तमाम लोग श्रद्धाभाव से भरे थे. सबके क़दम पत्थर की चौड़ी सीढ़ियों वाले रास्ते से गुज़रते शिखर की ओर बढ़ रहे थे.
रास्ते से लोगों को सुविधा तो थी, यह दम-खम की परीक्षा भी ले रहा था. क़रीब 460 सीढ़ियां चढ़नी थीं. समुद्रतल से 740 मीटर ऊंची पहाड़ी पर सांसों को साधे रखने के लिए बीच-बीच में रुकना भी पड़ रहा था. सुकून यह कि हल्की धूप, मंद हवा और बीच-बीच में उगी झाड़ियां…ऊर्जा भर देने वाला माहौल रच रही थीं. शिखर कुछ ही दूर रह गया था कि हम सुस्ताने के लिए रुक गए. स्थानीय पत्रकार पुनीत भारद्वाज ने अपने थैले से पानी की बोतलें और नमकीन के पैकेट निकाल लिए. अभी सब बारी-बारी से पानी के घूंट भर ही रहे थे कि किसी झाड़ी से तोड़ी हुई टहनी को एक हाथ में छड़ी की तरह घुमाते बुज़ुर्गवार ऊपर से आए. यह सुभाष अग्रवाल थे. उनकी उपस्थिति ने अचानक पहाड़ की रंगत ही बदल दी. पहले राम-राम और फिर उनकी उन्मुक्त हंसी-बतकही पहाड़ चढ़ने की थकान दूर करने की औषधि भी हो सकती है, ऐसा महसूस हुआ.
कुंड किनारे पकौड़ी
वहीं तय हुआ कि अब सभी नीचे शिवकुंड तक चलेंगे पकौड़ी खाने के बाद लौटेंगे. पकौड़ी और इस वीराने में? अभी मेरी हैरानी दूर नहीं हुई थी कि लोक व्यवहार का एक दुर्लभ अध्याय मेरे सामने खुला. लड़खड़ाते-संभलते उतर रहे सुभाष अग्रवाल ऊपर आते हर आदमी-औरत, किशोर-किशोरियों से राम-राम कहते. कुछ के हाव-भाव पर वह ऐसी चुटकी भी लेते कि हर ओर हंसी फूट पड़ती. कई से तो उनका नाम-गांव तक पूछते और उस गांव की ख़ासियतों पर चर्चा भी करने लगते. अचानक मिले अजनबी से राह चलते अपनापा जोड़ने वाले राम-राम मंत्र का यह जादू देखते हम शिवकुंड तक आए. यहां भगवान शिव का प्राचीन मंदिर है और सोमवती अमावस्या पर कुंड में स्नान की बड़ी महत्ता है. कुछ लोग स्नान कर रहे थे. जो स्नान कर चुके थे, वह कुंड किनारे युवक सेवक संघ की ओर से बांटी जा रही चाय की चुस्कियां ले रहे थे.
चाय बांट रहे शख़्स से मालूम हुआ कि हर रविवार को पिछले 15 साल से यह क्रम जारी है. वीराने में खड़ी पहाड़ी पर आने वाले श्रद्धालुओं की थोड़ी-सी ‘कंठ-सेवा’ कर यह संगठन अपने को धन्य मानता है. यहां थोड़ा हटकर भोलेनाथ ग्रुप के लोगों का जमावड़ा था. एक ओर कड़ाहा चढ़ा था. आलू, पनीर और पालक की गर्मागर्म पकौड़ियां वहां आने वालों को परोसी जा रही थीं. और पेठा भी. पता चला कि सावन भर चलने वाला ग्रुप का यह आयोजन भी लंबे समय से चल रहा है.
औषधियों का पहाड़
कहते हैं, ढोसी की पहाड़ी के शिखर पर कभी च्वयन ऋषि ने लंबी तपस्या की थी. उन्होंने यहां पाई जाने वाली जड़ी-बूटियों से स्वास्थ्य-यौवन बनाए रखने वाली दवा भी बनाई थी, जिसे आयुर्वेद में च्वयनप्राश कहा गया. कथा यह भी है कि तपस्यारत ऋषि के शरीर पर मिट्टी का आवरण चढ़ गया था. सूर्यवंशी राजा शर्याति के साथ वहां आई उनकी बेटी सुकन्या ने मिट्टी के ढेर में सरकंडे घुसाए जो ऋषि की आंखों में चुभ गए. खून बहता देख राजा ने मिट्टी हटवाई तो सभी सन्न रह गए. पश्चातापस्वरूप सुकन्या पत्नी बनकर च्वयन की सेवा में वहीं रह गईं. यह भी कहा जाता है कि देवताओं के वैद्य अश्विनी कुमारों ने ऋषि को पुनः युवा कर दिया था. यह भी कहा जाता है, यह चमत्कार उस दवा के सेवन से हुआ जो ऋषि ने स्वयं तैयार की थी. हालांकि, एक तथ्य यह भी है कि च्वयन ऋषि के आश्रम मैनपुरी, गोंडा, कन्नौज, अयोध्या और औरंगाबाद आदि जगहों पर भी बताए जाते हैं. संभव है, ऋषि भ्रमणशील रहे, इसलिए जगह-जगह आश्रम बन गए हों. बहरहाल, हरियाणा सरकार ढोसी को पर्यटनस्थल के रूप में विकसित करने की योजना बना रही है.
सुप्त ज्वालामुखी का संदेह
ढोसी का ज़िक्र महाभारत- पुराणों आदि में मिलता है. महाभारत में इस पहाड़ी की तीन अलग-अलग चोटियों और तीन बारहमासी झरनों का वर्णन है. कहते हैं कि अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने यहां कुंड के पास कुछ वक्त गुजारा था. ढोसी जिसे आग्नेयगिरि भी कहा जाता था. मान्यता है कि इस स्थान पर सुप्त ज्वालामुखी भी है. इसके शीर्ष पर पहुंचने पर वहां समतल मैदान और अनेक प्रकार के पत्थरों के मिलने के कारण भी ऐसा माना जाता है. यहीं महर्षि च्यवन आश्रम, मंदिर के अलावा चंद्रकूप भी है. कूप के बारे में कहा जाता है कि सोमवती अमावस्या को उसमें से पानी अपने आप बाहर आ जाता था. ज्वार-भाटा भी चंद्रमा के प्रभाव से होता है. कूप पर भी वही प्रभाव रहा होगा. अब भी यहां सोमवती अमावस्या के दिन मेला लगता है और स्नान के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं.
पहाड़ी से अपने होटल लौटने तक कही-सुनी बातों की सच्चाइयों से इतर, मैं एक ही बात सोच रहा था. क्या पाई जाने वाली औषधियों का असर यहां की हवा में घुला हुआ तो नहीं? सुभाष अग्रवाल जैसे जीवन के सातवें दशक में पहुंचे व्यक्ति के युवाओं सरीखा व्यवहार, जीवनशैली पर कहीं उसी हवा का असर तो नहीं? नया साल ही नहीं, साल दर साल….काश, ऐसा ही असर यहां आने वाले हर व्यक्ति पर हो. आमीन!
फ़ोटो | शरद मौर्य
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