तंत्र कथा | एक सरकारी मुलाज़िम की मुख़्तसर जीवनी
जैसी कि पहले चर्चा हो चुकी है सरकारी कार्यालयों में केवल चालाक, चापलूस और जल्दी अमीर बनने की चाहत रखने वाले कर्मचारी ही नहीं होते, कुछ सीधे सादे, मेहनती और संतोषी कर्मचारी भी चयन प्रकिया की ख़ामियों का लाभ उठा कर सरकारी नौकरी में भरती हो जाते हैं. इनकी ज़िंदगी की कभी कोई कहानी नहीं बन पाती है. अगर इनकी जीवनी लिखी जाए तो कुल तीन लाइनों में आ जाती है –‘श्री छगनलाल सन् 1960 में एक गर्म दुपहरिया को शासकीय सेवा में आए. सन् 1995 में इनको पेंशन मिलना शुरू हुई. पेंशन लेते हुये सन् 2015 की एक सुहानी भोर को ये मर गये. यानि खेल खतम/ पैसा हजम. इनकी घरेलू ज़िंदगी का ग्राफ भी एक सरल रेखा में होता है. घरेलू ज़िंदगी की जीवनी भी तीन लाइन में आ जाती है… ‘श्री छगनलाल का विवाह सन् 1961 में श्रीमती फूलवती के संग संपन्न हुआ. इस दंपत्ति की आठ संतानें हुईं. छगनलाल जी अपने पीछे अपनी पत्नी, आठ बेटे-बेटियों और अठारह पोते-पोतियां छोड़ गये.’ ये लोग अपने परिवार के अलावा किसी और के लिए उपयोगी नहीं होते. साहित्य और सिनेमा के लिए कच्चा माल कभी नहीं बन पाते. गुमनामी में आते हैं और गुमनामी में ही चले जाते हैं.
इस उपन्यास के लेखक को इन लोगों की कहानी और सिनेमा में हो रही घोर उपेक्षा से सख़्त एतराज है. चूंकि लेखक ने इस उपन्यास के माध्यम से उपेक्षित व्यक्तियों के उत्यान का प्रयास करने का निश्चय किया है इसलिए उपन्यास में इन उपेक्षित जनों का प्रतिनिधित्व करने वाला एक नया पात्र लाया जा रहा है.
मुख्यालय में विनय प्रकाश नाम का एक सहायक आयुक्त पदस्थ था. इसे विभाग में आधे लोग जानते ही नहीं थे और बाकी आधे जो जानते थे वो इसका उल्लेख एक विशेषण के साथ करते थे जिसके अंत में ‘तिया’ आता है. इस आदमी के चरित्र में कुछ गंभीर ख़ामियां थीं जो किसी आदमी को सरकारी नौकरी के लिए अनफिट बना देती हैं. पहली यह कि ये सज्जन समय पर ऑफ़िस आकर समय पर ही वापस घर जाना पसंद करते थे. दूसरी यह कि दीवाली और न्यू इयर के अवसर पर फूल और ड्राय फ्रूट लेकर ये वरिष्ठ अधिकारियों के घर और ऑफ़िस के चक्कर नहीं लगाते थे. तीसरी यह कि इनकी कबीर दास जी से कोई पुरानी अदावत थी और ये उनकी कोई बात नहीं मानते थे. उदाहरण के लिए कबीर दास जी ने हिदायत दी है –
“ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोय
औरन को शीतल करे खुद भी शीतल होए.”
विनय प्रकाश मन का आपा खो कर ऐसी वाणी बोलते थे जिससे सामने वाला गरम हो जाता था और प्रतिक्रिया स्वरूप विनय प्रकाश को भी गरम होना पड़ता था. इनके अधिकारी रहीम दास जी के समर्थक थे और विनय प्रकाश के मामले में रहीम दास जी की इस हिदायत का पालन करने की इच्छा रखते थे.
“खीरा सिर ते काट के, मलियत नौन लगाये
रहिमन कड़वे मुखन को, चहिये यही सजाए.”
यद्यपि कुछ व्यवहारिक कठिनाइयों के कारण इस हिदायत का पूरा पालन संभव नहीं था. पहली कठिनाई तो यह थी कि विनय प्रकाश कोई खीरा नहीं थे और दूसरी यह कि कोई उनको नमक लगाये ये उन्हें बिलकुल पसंद नहीं था. विनय प्रकाश की सबसे गंभीर खामी यह थी कि वे अर्थशास्त्र के मामले में पूरी तरह विफल थे और आय के नियमित स्रोत यानि वेतन के अलावा पूंजी निर्माण के अन्य विविध स्रोत सृजित करने में पूरी तरह असफल रहे थे. इस विफलता के कारण न केवल इनके निजी परिवार की प्रति व्यक्ति आय कम थी बल्कि इनके अधिकारियों की आर्थिक स्थिति भी विपरीत रूप से प्रभावित हो रही धी. अधिकारी लोग इनकी अन्य कमियों को नज़र अंदाज करने को तैयार थे लेकिन आर्थिक मोर्चे पर इनकी नाकामी माफी योग्य नहीं थी. और इन्हें माफी आसानी से मिलने वाली भी नहीं थी. सौभाग्य या दुर्भाग्य से दीपक आहूजा और विनय प्रकाश दोनों एक ही कक्ष में पदस्थ थे जो मैडम रितु के अधीन था. दीपक आहूजा ने कसम खाई थी कि विनय प्रकाश जो भी आचरण करेगा वो उसके विपरीत ही करेगा. जैसे विनय प्रकाश मैडम द्वारा बुलाने पर ही उनके कमरे में पैर रखता था जबकि दीपक आहूजा किसी न किसी बहाने मैडम के आसपास मंडराता रहता था. विनय प्रकाश मैडम से केवल काम की बात करता था जबकि दीपक आहूजा मौके बे मौके मैडम की तारीफों के पुल बांधता था. विनय प्रकाश को मैडम अमूमन कोई व्यक्तिगत काम बताती नहीं थी और कभी बता दे तो काम पर व्यय होने वाले पैसे विनय प्रकाश पहले मांगता था. दीपक आहूजा मैडम के बताने के पहले ही उनका काम करने पर विश्वास करता था और खर्च हुये पैसे मांगना तो दूर यदि मैडम पैसा देना भी चाहें तो नहीं लेता था. विनय प्रकाश अपने काम से काम रखता था और दूसरे अधिकारियों के मामलों में दखल नहीं देता था. दीपक आहूजा को अपने काम से ज्यादा फिकर दूसरों के काम की होती थी और ऑफिस के हर मामले में नाक घुसाना उसको पसंद था. कुल मिला कर विनय प्रकाश और दीपक आहूजा एक दूसरे को वही समझते थे जिसके अंत में ‘तिया’ आता है और एक दूसरे को पसंद नहीं करते थे.
विनय प्रकाश किसी का भला या बुरा करने के मामले में वो थे जिसके बारे में माना जाता है कि वो न लीपने के काम आता है, न पोतने के. दीपक आहूजा इसके बिलकुल विपरीत वो थे जो लीपने, पोतने के साथ-साथ उपले बनाने के भी काम आता है. अपनी इसी बहु उपयोगिता का लाभ उठाते हुये दीपक आहूजा ने मैडम रितु को विनय प्रकाश की हरकतों और गतिविधियों के बारे में ऐसी खौफनाक रिपोर्ट दी थी उसके चलते मैडम विनय प्रकाश से बहुत नाराज़ थी.
एक दिन मैडम ने विनय प्रकाश को अपने कमरे में बुला कर निर्देश दिया – “विनय मुझे आज शाम तक जिलेवार योजनाओं में व्यय राशि की जानकारी चाहिए, शाम से पहले बना कर दीजिये.” विनय प्रकाश ने सहमति में सर हिलाया और अपनी सीट पर जाकर सभी जिलों मेँ फोन लगा कर जानकारी मंगवाना आरंभ कर दिया. लेकिन जानकारी अधिक थी और अगले दिन सुबह से पहले आना संभव नहीं थी. मैडम को दीपक आहूजा ने आज सुबह ही सूचित किया था कि विनय प्रकाश मेहनत से काम नहीं करता है और रोजाना शाम को छह बजे तक घर चला जाता है. इसके अलावा अपनी तरफ से यह भी जोड़ दिया था कि जब उसे कहा गया कि बिना काम पूरा किये घर जाओगे तो मैडम नाराज़ हो जाएगी तो उसने ज़वाब दिया था – “मैं अपना काम मेहनत से करता हूं. समय पर ऑफिस आता-जाता हूं. मैडम मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती.” रितु मैडम ने शाम को घर जाने से पहले विनय प्रकाश को बुला कर पूछा- “जानकारी तैयार हो गई?” विनय प्रकाश ने जवाब दिया – “जानकारी तो कल तक ही तैयार हो पायेगी.” मैडम बिफर गयी – “मुझे जानकारी मिली है कि तुम मन लगा कर काम नहीं करते हो. ये काम बहुत जरूरी है. जब तक ये काम पूरा नहीं हो तुम ऑफ़िस में ही रहोगे. घर नहीं जाओगे.” विनय प्रकाश ने आपत्ति व्यक्त की – “लेकिन मैडम मैं रात को यहां अकेला रुक कर क्या करूंगा?” “मुझे कुछ नहीं मालूम. तुम्हारी मदद के लिए सहायक आयुक्त जैन और निरीक्षक खरे को भी रोक लो लेकिन काम पूरा होने तक घर नहीं जाओगे.”
इसी काली रात को ऑफिस में रजिस्टर सर के नीचे रखकर टेबिल पर लेट कर सोने की कोशिश करने हुए विनय प्रकाश ने सहायक आयुक्त जैन से पूछा – “यदि एक वरिष्ठ, ताकतवर और अहंकारी अधिकारी की तानाशाही का छोटा अधिकारी विरोध करे तो बड़ा अधिकारी उसका क्या बिगाड़ सकता है?” जैन ने जवाब दिया – “वो छोटे अधिकारी की जान भी ले सकता है.”
“उसके बाप का राज है? जान कैसे ले लेगा? फांसी हो जाएगी उसको!”
“‘फांसी कैसे हो जाएगी?”
“अभी तो तुम ने कहा कि वो जान ले लेगा?”
“वो जान तो लेगा लेकिन सुबूत नहीं छोड़ेगा.”
“वो कैसे?”
“साफ-साफ़ समझाने के लिए मैं तुम्हें एक सच्ची घटना सुनाता हूं. पुलिस का एक इन्सपेक्टर मेरे शासकीय आवास के पास ही क्वार्टर में रहता था. हमारी जान पहचान थी और परिवारों का एक दूसरे के यहां आना-जाना भी था. कुछ दिनों पहले मैंने नोटिस किया कि इंसपेक्टर बहुत तनाव में दिख रहा है. मैंने एक दिन उसकी पत्नी से पूछा – “भाभी जी क्या बात है? इंस्पेक्टर साहब आजकल परेशान क्यों दिखते हैं?”
“इनकी ड्यूटी आजकल एस.पी. ऑफिस में हैं. एस.पी. बहुत घमंडी और दुष्ट है. इन्हें छोटी-छोटी बात पर डांटता है. कार्यवाही की धमकी देता है. इस कारण इनका मन उदास रहता है. आजकल इनका बी.पी. भी ज्यादा रहने लगा है.”
इंस्पेक्टर की पत्नी ने बताया.
“एक दिन दोपहर को मैं अपने आवास पर खाना खाने आया था. एकाएक सामने इंस्पेक्टर के आवास पर कुछ भागदौड़ होने लगी. मैं तुरंत पहुंचा. पता लगा कि इंस्पेक्टर जब आज खाना खाने आया तो उसकी तबियत ठीक नहीं थी. उसने अपनी पत्नी को बताया कि आज उसे एस.पी. साहब ने बहुत धमकाया है. खाना खाते-खाते ही इंस्पेक्टर का जी घबराया और एक उल्टी हो गई. घर के लोग तुरंत अस्पताल ले गये जहां उसकी मौत हो गई. मैं तो मानता हूं कि इस इंस्पेक्टर की मौत वरिष्ठ अधिकारी द्वारा दी गयी प्रताड़ना से ही हुई.”
सुन कर विनय प्रकाश गंभीर होकर कुछ सोचने लगा .
थोड़ी देर बाद उसके बोल फूटे.
“देखिये जैन साहब हर आदमी इतना बेशरम नहीं होता कि इस तरह के घमंडी अधिकारी के व्यवहार से प्रभावित न हो. मैं तो अपनी जानता हूं कि मैं इस तरह के अधिकारियों को नहीँ झेल सकता और किसी दिन मेरा हाल उस इंस्पेक्टर की तरह का हो जाएगा. मैं सोचता हूँ कि अब यह चुनाव करने का समय आ गया है कि मुझे पेंशन सहित जिंदगी चाहिए या नौकरी में रहते हुये बेमौत मरना है. मै जितना विचार करता हूं उतना मेरा निर्णय पक्का होता जा रहा है कि एक साल बाद जब मेरी नौकरी के बीस साल पूरे हो जाएंगे तो मै स्वैच्छिक सेवानिवृति ले लूंगा.”
जैन ने मुस्कराकर उत्तर दिया – “विनय प्रकाश भाई तुम्हारे पास नौकरी छोड़ने के अलावा एक आप्शन और है.”
“वो क्या है?” विनय प्रकाश ने जिज्ञासा व्यक्त की. “वो ये है कि तुम अपना स्वभाव बदल कर बेशरम बन जाओ फिर आराम से नौकरी करो.” विनय प्रकाश ने कहा – “क्या जमाना आ गया है. जब मैं नौकरी करने के लिए निकला था तब पिताजी ने कहा था – बेटा नौकरी के लिए जा रहे हो. नौकरी हमेशा मेहनत ओर ईमानदारी से करना. इससे नौकरी मेँ तरक्की होगी. लेकिन नये जमाने में नौकरी करने की नयी आचार संहिता आई है कि बेशरम बन कर रहो तो तरक्की होगी.” जैन ने कहा – “सुनो विनय प्रकाश अभी थोड़े दिन पहले सोशल मीडिया पर सफलता से सरकारी नौकरी करने के लिए कुछ सूत्र बताये गये थे वो मैं तुम्हें पढ कर सुनाता हूं.”
जैन ने अपने मोबाइल में संदेश ढूंढ कर पढ़ा –
“बने रहो पगला/ काम करेगा अगला.
बने रहो लुल/ सेलेरी मिलेगी फुल.
जिसने ली टेंशन / उसकी बीवी पायेगी पेंशन.
काम से डरो नहीं और/ काम को करो नहीं.
काम करो या न करो /काम की फिकर जरुर करो
और फिकर करो ना करो पर/ फिकर का जिकर जरूर करो.
जो काम करे उसके उंगली करो/ जो न करे उसकी चुगली करो.
संदेश सुन कर विनय प्रकाश के चेहरे पर मुस्कराहट फैल गई. उसने कहा – “सही है नौकरी में सफलता का आधुनिक मंत्र यही है. लेकिन यह सब करने का मिजाज और योग्यता सब में नहीं होती है.
“विनय प्रकाश जब तुमने तय कर लिया है कि तुम स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति लोगे तो कुछ पैसा तो कमा लो.”
जैन ने महत्वपूर्ण सलाह दी.
“सोचता तो मैं भी हूं जैन साहब लेकिन किसी से पैसा लेने की मेरी हिम्मत हीं नहीं होती. डर लगता है कि इधर पैसा लिया उधर फंस जाऊंगा.” विनय प्रकाश ने अपनी असमर्थता बताई.
जैन हंसने लगा – “यार तुम गलती से सरकारी नौकरी में आ गये हो. न तुम पैसा कमा सकते हो न ठीक से नौकरी कर सकते हो.”
विनय प्रकाश ने कहा – “सच्चाई यही है जैन साहब कि दूसरों को पैसा लेते देख कर मेरी भी इच्छा पैसा लेने की होती है. जब दूसरों के घर में मंहगे फ्रिज और टी. व्ही. देखता हूं तब भी पैसा लेने की इच्छा होने लगती है. जब किसी को मंहगी कार में घूमते देखता हूं तब भी पैसा लेने की इच्छा होती है लेकिन ईमानदार अफ़सर की मेरी छवि मुझे पैसा लेने नहीं देती.”
इसी समय निरीक्षक खरे जिसे दोनों अधिकारियों के साथ रात को ऑफिस में रुकने का फरमान मिला था, चर्चा में शामिल हो गया.
“सर एक बात बताइये. सरकारी नौकरी में कोई ईमानदार कर्मचारी होता भी है या जिनको मौका नहीं मिलता वो ही ईमानदार रहते है?”
(कुमार सुरेश के व्यंग्य उपन्यास ‘तंत्र कथा’ से साभार)
आवरण फ़ोटोः प्रभात की ‘इरोज़न’सीरीज़ से.
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