लोग-बाग | नेशनल बेकरी वाले अतीक़ ख़ान
(पिछली सदी के शहर बरेली और यहाँ के लोगों की तमाम दास्तानें ऐसी हैं, जो इतिहास की किताबों में नहीं मिलने वाली हैं. कुछ ऐसी हैं, जो पुराने लोगों की यादों में रह गई हैं और बहुतेरी लोप चुकी हैं. क़ायदे से तो इस क़िस्से की शुरुआत भी इस तरह होनी चाहिए – एक समय की बात है, हमारा शहर तब स्मार्ट सिटी नहीं हुआ था. लोगों को स्मार्ट होने का ख़्याल तक न आता था…. तो पहला क़िस्सा नेशनल बेकरी का, जो कब की ख़त्म हुई. उसकी जगह पर अब चल रही दो दुकानों में से एक में कोरमे का सालन और रोटियां बिकती हैं. अख़बार में छप चुकी रिपोर्ट्स की क़तरनों के हवाले से इस श्रृंखला में हम कुछ ऐसी ही भूली-बिसरी यादों को दर्ज करने की कोशिश करेंगे. -सं)
समय के साथ न जाने कितना कुछ बदल जाता है – जगह, नाम और लोग भी, पर हुनर अगर सच्चा है तो उसके क़द्रदान हर ज़माने में हर जगह मिल ही जाते हैं. वरना रानीखेत, चौबटिया और बरेली के बी.आई.बाज़ार में भला कोई साम्य ढूंढा जा सकता क्या? यह हुनर ही है, जो रियो रेस्तरां, अतीक़ रेस्तरां, किटकैट और कैंट बेकरी के अतीत को एक पहचान देता है. हालाँकि आज इन तीनों में से कोई नाम वजूद में नहीं है, मगर बदरंग दीवारों के साये में महफ़ूज़ एक अलबम के पन्नों में ये नाम और इन्हें पहचान देने वाले, दोनों ही सहेजकर रखे हुए हैं, साथ ही मोहम्मद अतीक़ ख़ान के ज़ेहन में भी. तभी तो अतीक़ ख़ान अपने विलायती उस्ताद से मिले हुनर पर अपने वालिद के देसी नुस्ख़ों को ज़्यादा तरजीह देकर अपनी ‘नेशनल बेकरी’ की पहचान बनाए हुए हैं.
तहसील के बाहर चाय-पान की दुकानों की भीड़ में पोशीदा-सी एक कोठरी के बाहर कुछ उड़ी- सी रंगत वाले एक बोर्ड पर नाम की जो इबारत चमकती है, कोशिश करके उसे नेशनल बेकरी पढ़ा जा सकता है. भले ही यह बेकरी मौजूदा ठिकाने पर सन् 1948 में शुरू हुई, मगर इसकी नींव 34 साल पहले यानी सन् 1914 में पड़ी थी, जब अतीक़ ख़ान के ताया अमीर ख़ान ने बी.आई. बाज़ार मे कैंट बेकरी शुरू की. ख़ुद अतीक़ के वालिद मोहम्मद सिद्दिक़ चौबटिया में किटकैट के नाम से और रानीखेत में बर्लिंग्टन और अतीक़ रेस्तरां चलाते थे. यों तो इस तरह के रेस्तरां पलटन की ज़रूरतों को पूरा करने के लिहाज़ से ही खुलते थे, मगर इस कुनबे ने बड़े फ़ौजी अफ़सरों का मिज़ाज भाँपकर उनके मन मुताबिक़ ‘कन्फ़ेक्शनरी’ मुहैया कराने की ठानी तो वे सुनकर गुनते और ‘साहबों’ के ख़ानसामों से भी सीखते. अतीक़ ख़ान के पास सुरक्षित बचे रह गए कुछ काग़ज़ों में किसी कैप्टन जेम्स का वह ख़त भी है, जिसमें पढ़ने के क़ाबिल बची इबारत कुछ इस तरह है— आई कैन जस्टीफ़ाई से- दैट इन ऑल माय ट्रेवल्स इन इंडिया, कैफ़े द पेरिस’ इज़ वन ऑफ़ फ़ाइनेस्ट ऑफ़ ऑल द कैफ़े’ज़, प्रोवाइडेड फ़ॉर द ट्रूप्स, आय हैव कम अक्रॉस. यह कैफ़े कैंट बेकरी का ही एक हिस्सा था.
बात क़रीब सन् 1932 की हैं, जब अपने ख़ानदानी धंधे में उतरने की तैयारी में बाक़ायदा ट्रेनिंग के लिए अतीक़ ख़ान ने कैंट के रॉयल होटल की स्वीस कन्फ़ेक्शनरी में विलायती उस्ताद की शार्गिदी की और तब से उनके हुनर की नुमाइश का सिलसिला जो शुरू हुआ, वो आज छह दशकों बाद भी बरक़रार है.
तमाम किस्म के केक, पेस्ट्री से लेकर ख़ासतौर पर आदमक़द ‘वेडिंग केक’ बनाने की उनकी रेसिपी औरों से अलग है. यही वजह है कि ख़ास स्वाद के क़द्रदान बरसों से उनके इन हुनर के मुरीद हैं. ब्याह चाहे बरेली के बजाय इलाहाबाद, आगरा या गोरखपुर में हो, केक अतीक़ ख़ान ही बनाते हैं और कुछ इस तरह बनाते हैं कि पचास-साठ किलो का केक भी बड़े आराम से और हिफ़ाजत से मंज़िल तक पहुंच जाता है.
अतीक़ ख़ान के बुर्राक़ सफ़ेद दाढ़ी वाले चेहरे पर लिखी तर्जुबे की इबारत पढ़ना आसान नहीं है, लेकिन उनके हाथ की बनी चीज़ का स्वाद हज़ारों में पहचानना कोई मुश्किल बात नहीं है. फ्रूट केक, प्लम केक या फिर क्रिसमस का ख़ास केक उनके हुनर, लगन और मेहनत का मिलाजुला ज़ाइक़ा लिए होते हैं.
आज के ज़माने में जब केक और बिस्कुट ऑटोमेटिक मशीनों के बीच दस्ताने वाले हाथों से संभाले जाते हैं, अतीक़ मियां एक सदी पुराने तरीक़े पर ही अमल करते हैं. रेसिपी की ख़ासियत पूछने पर मुस्कराते हैं, जवाब में कहते हैं, ‘सामान जो भी इस्तेमाल हो असली हो, किसी एक चीज़ के बदले दूसरी चीज़ डालकर ज़ाइक़ा थोड़े ही बनाये रखा जा सकता है. अपने उस्ताद और वालिद से यही सीखा है और इस पर कभी कोई समझौता नहीं करता – बस.’ बरसों की अपनी ईमानदारी का सिला वह इसी को मानते हैं कि उनके ग्राहक कहीं चले जाएं, ख़ास मौक़ों पर उन्हें ही याद करते हैं. उनके पास अनुभवों और यादों का समृद्ध ख़ज़ाना है.
केक में डालने के लिए रात भर रम में भिगोकर रखे गए ड्राई फ़्रूट्स में से मुट्ठी भर निकालकर उन्होंने मुझे चखने के लिए दिए. और फ़्रूट्स के मुक़ाबले वह किशमिश मुझे बहुत भायी थी. वेडिंग केक की सजावट का ढेर सारा सामान दिखाया, जिसमें फूलों के साथ ही दूल्हा-दुल्हन का पता देने वाली छोटी-छोटी गुड़ियाँ भी थीं.
मुल्क के बंटवारे के वक़्त कैंट बेकरी की नीलामी और फिर रानीखेत और चौबटिया के रेस्तरां सिमटने की तल्ख़ यादों पर अच्छे दिनों की यादें मरहम का काम करती हैं. ज़्यादा पूछने पर दुकान की अलमारी के एक कोने से एक फ़ोटो अलबम निकालकर बैठ जाते हैं बुज़ुर्गवार और सफ़ा दर सफ़ा यादें ज़िन्दा हो उठती हैं. यूरोपियन ढंग के फ़र्नीचरों से सजे रेस्तरां में सूट-बूट पहने अतीक़ ख़ान और उनके वालिद की तस्वीरें, रेस्तरां की ब्रिटिश वेट्रेस की तस्वीरें, पहाड़ की घुमावदार सड़कों के बीच किसी बरतानी हुक्मरां के साथ ख़ान परिवार की तस्वीीरें, हिन्दुस्तानी गोदने से अभिभूत गोरों की गोदने से भरी देह, कैंट बेकरी, पलटन को लेकर रवाना होती ट्रेन और भी न जाने क्या-क्या. अतीत के इस मुख़्तसर से सफ़र से लौटे अतीक़ मियां की आंखों में अनोखी चमक दिखाई देती है और चलने के वक़्त ख़ास ऑक्सफ़ोर्डियन लहजे में कहते हैं, ‘थैंक यू फ़ॉर युअर टाइम एण्ड युअर विज़िट.’
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