लेखक-आलोचक शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी नहीं रहे
इलाहाबाद | उर्दू अदब के जाने-माने साहित्यकार शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी नहीं रहे. आज सवेरे उनका इंतकाल हो गया था. वह 85 वर्ष के थे. शाम को अशोकनगर के उनके पारिवारिक क़ब्रिस्तान में उन्हें दफ़्न किया गया.
पिछले महीने दिल्ली में कोविड से संक्रमित होने के बाद श्री फ़ारुकी 23 नवंबर को अस्पताल से डिस्चार्ज हो गए थे और दिल्ली में ही अपनी बेटी के घर पर रह रहे थे. आज सवेरे ही उनकी बेटी और भतीजा एयर एंबुलेंस से उन्हें लेकर इलाहाबाद पहुंचे थे. घर पहुंचने के क़रीब आधे घंटे बाद उन्होंने आख़िरी सांस ली.
उनकी बेटी के मुताबिक दिल्ली में रहते हुए भी चिड़ियों की चहचहाहट सुनकर वह ख़ुश होते मगर साथ ही इलाहाबाद की याद उन्हें बेचैन कर देती. उनके क़रीबी जानते हैं कि न्याय मार्ग के उनके घर का लॉन चिड़ियों से हमेशा आबाद रहता, बहुत-सी चिड़ियाँ उन्होंने पाल भी रखी थीं.
उर्दू अदब के नामवर आलोचक और अफ़सानानिगार शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी उर्दू, हिन्दी और अंग्रेज़ी भाषाओं पर समान अधिकार रखते थे. उनकी लिखी किताबें, ख़ासतौर पर फ़िक्शन तीनों ही ज़बानों में ख़ूब पढ़ी और सराही गई हैं. ‘कई चाँद थे सरे आस्माँ’ का शुमार ऐसी ही किताबों में होता है. वह अंग्रेज़ी साहित्य के विद्यार्थी रहे और 19वीं सदी के उर्दू अदब और रवायत को ढंग से समझने के लिए पहले आलोचना में पैठ बनाई, फिर कहानीकार बने.
उनकी रचनाओं में ‘शेर, ग़ैर शेर, और नस्र’, ‘गंजे-सोख़्ता (कविता संग्रह)’, ‘सवार और दूसरे अफ़साने (फ़िक्शन)’ और ‘जदीदियत कल और आज’ शामिल हैं. मीर तक़ी ‘मीर’ के कलाम पर उन्होंने आलोचना लिखी है, जो ‘शेर-शोर-अंगेज़’ नाम से तीन भागों में छपी.
सन् 2009 में पद्मश्री के साथ ही उन्हें साहित्य अकादमी और सरस्वती सम्मान मिला. पाकिस्तान का ‘सितारा-ए-इम्तियाज़’ भी उन्हें मिला है. वह जब कहीं बाहर नहीं होते, तो इलाहाबाद में ही मिलते थे.
30 सितंबर 1935 को इलाहाबाद में उनकी पैदाइश हुई. सन् 1955 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उन्होंने अंग्रेजी में एमए किया था.
संवाद से उनकी लंबी बातचीत के अंश आप यूट्यूब पर सुन सकते हैं.
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