यादों की बरात | धुंधलके का राग, ढलती शाम का सुहाग

  • 12:05 am
  • 22 February 2021

जोश मलीहाबादी का अदबी सरमाया जितना शानदार है, उतनी ही जानदार-ज़ोरदार उनकी ज़िंदगी थी. जोश साहब की ज़िंदगी में गर हमें दाखिल होना हो, तो सबसे बेहतर तरीका यही होगा कि हम उन्हीं की मार्फ़त उसे देखें-सुनें-जानें. जिस दिलचस्प अंदाज़ में उन्होंने ‘यादों की बरात’ में अपनी कहानी बयान की है, उस तरह का कहन देखने-सुनने को कम ही मिलता है. उर्दू में लिखी गई इस किताब का पहला एडिशन 1970 में आया था. तब से इसके कई एडिशन आ चुके हैं, लेकिन पाठकों की इसके जानिब मुहब्बत और बेताबी कम नहीं हुई है.

‘यादों की बरात’ की मक़बूलियत के मद्देनज़र, कई ज़बानों में इसके तजुर्मे हुए और हर ज़बान के पढ़ने वालों ने इसे पसंद किया. हिन्दी में भी सबसे पहले इसका अनुवाद हिन्दी-उर्दू ज़बान के मशहूर लेखक हंसराज रहबर ने किया. एक अरसे के बाद इसका एक और अनुवाद आया है. इस मर्तबा यह अनुवाद युवा लेखक-अनुवादक नाज़ ख़ान ने किया है. यों अनुवाद के बजाय इसे लिप्यंतरण कहें, तो ज्यादा बेहतर ! उर्दू ज़बान के लबो-लहज़े से ज़रा भी छेड़छाड़ न करते हुए उन्होंने ‘यादों की बरात’ का हिन्दी में जो तर्जुमा किया है, उसे पढ़कर उर्दू की लज़्ज़त आ जाती है. अच्छे अनुवाद की पहचान भी यही है कि मूल ज़बान का लहज़ा बरकरार रहे. वरना ‘मुताबिक’ को भी ‘अनुसार’ कर देने वाले अनुवादक पढ़ने वालों में खीझ ही पैदा करते हैं.

जोश मलीहाबादी ने यह किताब अपनी ज़िंदगी के आख़िरी वक़्त में लिखी थी. आज हम इस किताब के गद्य पर फ़िदा हैं, लेकिन शायर-ए-इंकलाब के लिए यह काम आसान नहीं था. ख़ुद किताब में उन्होंने यह बात तस्लीम की है कि अपने हालाते-ज़िंदगी क़लमबंद करने के सिलसिले में उन्हें छह बरस लगे और चौथे मसौदे में जाकर वे इसे मुकम्मल कर पाए. हांलाकि, चौथे मसौदे से भी वे पूरी तरह से मुतमईन नहीं थे. लेकिन जब किताब आई, तो उसने हंगामा कर दिया.

अपने बारे में इतनी ईमानदारी और साफ़गोई से शायद ही किसी ने इससे पहले लिखा हो. अपनी ज़िंदगी के बारे में वे पाठकों से कुछ छिपाते नहीं लगते. अपने इश्क के ब्योरे भी उन्होंने तफ़्सील से लिखे हैं. अलबत्ता ऐसे नामों का ख़ुलासा करने के वह ज़रूर बचते हैं, और तभी ये नाम उन्होंने ‘कोड वर्ड’ की तरह लिखे हैं – एस.एच., एन. जे., एम. बेगम, आर.कुमारी. 510 पन्नों की यह किताब पांच हिस्सों में बंटी हुई है. पहले हिस्से में जोश की ज़िंदगी के अहम वाक़ये शामिल हैं, तो दूसरे हिस्से में वे अपने ख़ानदान के बारे में बतलाते हैं.

किताब के सबसे दिलचस्प हिस्से वह हैं, जिनमें जोश अपने दोस्त, अपने दौर की अज़ीम हस्तियों और अपनी इश्कबाज़ियों का ख़ुलासा करते हैं. जिन दोस्तों, मसलन अबरार हसन खां ‘असर’ मलीहाबादी, मानी जायसी, ‘फ़ानी’ बदायूंनी, आग़ा शायर कजलबाश, वस्ल बिलगिरामी, कुंवर महेंन्द्र सिंह ‘बेदी’, जवाहरलाल नेहरू, सरोजिनी नायडू, सरदार दीवान सिंह ‘मफ्तूं’, ‘फिराक’ गोरखपुरी, ‘मजाज’ वगैरह का उन्होंने अपनी किताब में ज़िक्र किया है, ख़ुद की जात में वे मामूली हस्तियां नहीं हैं, लेकिन जिस अंदाज़ में जोश उन्हें याद करते हैं, वे कुछ और ख़ास हो जाते हैं. उनकी शख़्सियत और निखर जाती है. उन शख़्सियत को जानने-समझने के लिए दिल और भी तड़प उठता है.

किताब में सरोजनी नायडू का तआरुफ़ वह कुछ इस तरह से कराते हैं, ‘‘शायरी के ख़ुमार में मस्त, शायरों की हमदर्द, आज़ादी की दीवानी, लहज़े में मुहब्बत की शहनाई, बातों में अफ़सोस, मैदाने जंग में झांसी की रानी, अमन में आंख की ठंडक, आवाज़ में बला का जादू, गुफ़्तगू में मौसिक़ी, जैसे-मोतियों की बारिश, गोकुल के वन की मीठी बांसुरी और बुलबुले-हिन्दुस्तान, अगर यह दौर मर्दों में जवाहरलाल और औरतों में सरोजिनी की-सी हस्तियां न पैदा करता, तो पूरा हिन्दुस्तान बिना आंख का होकर रह जाता.’’ (पेज 367)

अक्सर यह सवाल पूछा जाता है कि जोश मलीहाबादी पाकिस्तान क्यों गए? और सिर्फ़ इस एक बिना पर कुछ अहमक उनकी वतनपरस्ती पर सवाल उठाने से भी बाज़ नहीं आते. वे पाकिस्तान क्यों गए? किताब के कुछ अध्याय ‘मुबारकबाद! कांटों का जंगल फिर’, ‘जाना, शाहजादा गुलफ़ाम का, चौथी तरफ और घिर जाना उसका आसेबों के घेरे में’, में जोश मलीहाबादी ने इस सवाल का तफ़्सील से जवाब दिया है. उनके क़रीबी दोस्त सैयद अबू तालिब साहब नकवी चाहते थे कि वे हिन्दुस्तान छोड़कर पाकिस्तान आ जाएं. जब भी जोश मुशायरा पढ़ने पाकिस्तान जाते, वे उनसे इस बात का इसरार करते. आख़िरकार उन्होंने जोश मलीहाबादी के दिल में यह बात बैठा ही दी कि हिन्दुस्तान में उनके बच्चों और उर्दू ज़बान का कोई मुस्तक़बिल नहीं है.

अपनी इस उलझन को लेकर वे मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के पास पहुंचे और इस बाबत उनसे राय मांगी. तो उनका जवाब था,‘‘नकवी ने यह सही कहा है कि नेहरू के बाद आपका यहां कोई पूछने वाला नहीं रहेगा. आप तो आप, ख़ुद मुझे कोई नहीं पूछेगा.’’ (पेज-196) फिर भी उन्होंने उनसे पंडित नेहरू से मिलकर अपना आख़िरी फ़ैसला लेने की बात की. नेहरू ने जब जोश की पूरी बात सुनी, तो वे बेहद दुःखी हुए और उन्होंने उनसे इस मसले पर सोचने के लिए दो दिन की मोहलत मांगी.

दो दिन के बाद जोश जब उनके पास पहुंचे, तो उन्होंने कहा,‘‘जोश साहब, मैंने आपके मामले का एक ऐसा अच्छा हल निकाल लिया है, जिसे आप भी पसंद करेंगे. क्यों साहब, यही बात है न कि आप अपने बच्चों की माली हालात व तहजीबी भविष्य को संवारने और उर्दू ज़बान की ख़िदमत करने के वास्ते पाकिस्तान जाना चाहते हैं?’’ मैंने कहा, ‘‘जी हां, इसके सिवा और कोई बात नहीं हैं.’’ उन्होंने कहा, ‘‘तो फिर आप ऐसा करें कि अपने बच्चों को पाकिस्तानी बना दें, लेकिन आप यहीं रहें और हर साल पूरे चार महीने आप पाकिस्तान में ठहर कर उर्दू की ख़िदमत कर आया करें. सरकारे-हिन्द आपको पूरी तनख़्वाह पर हर साल चार महीने की रुखसत दे दिया करेगी.’’ (पेज-196)

नेहरू का दिल बड़ा था, और वह अपने दोस्त और मुल्क के महबूब शायर को किसी क़ीमत पर खोना नहीं चाहते थे. लेकिन पाकिस्तान के हुक़्मरानों और वहां उनके चाहने वालों को यह बात बिल्कुल पसंद नहीं आई और उन्होंने जोश से एक मुल्क चुनने को कहा. और इस तरह से 1955 में जोश मलीहाबादी मजबूरी में पाकिस्तानी हो गए. जोश मलीहाबादी पाकिस्तान जरूर चले गए, मगर इस बात का पछतावा उन्हें ताउम्र रहा. जिस सुनहरे मुस्तक़बिल के वास्ते उन्होंने हिन्दुस्तान छोड़ा था, वह ख़्वाब चंद दिनों में ही टूट गया. उन्होंने पाकिस्तान में जिस पर भी एतबार किया, उससे उन्हें धोखा मिला. और उर्दू की जो हालत पाकिस्तान में है, वह भी सबको मालूम है.

लेकिन पाकिस्तान जाने का फ़ैसला ख़ुद जोश मलीहाबादी का था, लिहाज़ा वह ख़ामोश रहे. वहां घुट-घुट के जिये. पाकिस्तान में रहकर भी हिन्दुस्तान की मुहब्बत में डूबे रहे. चाहकर भी अपने पैदाइशी मुल्क़ को वह कभी नहीं भुला पाए. उनकी बाक़ी ज़िंदगी पाकिस्तान में निराशा और गुमनामी के हाल में बीती. ‘मेरे दौर की चंद अजीब हस्तियां’ किताब में जोश मलीबादी ने उन लोगों पर अपनी क़लम चलाई है, जो अपनी अजीबो-ग़रीब हरकतों और न भुलाई जाने वाली बातों की वजह से उन्हें ताउम्र याद रहे और जब वह क़लम लेकर बैठे, तो उनको पूरी शिद्दत और मज़ेदार ढंग से याद किया. जोश ने किसी क़िस्सागो की तरह इन हस्तियों का ख़ाका इस तरह खींचा है कि तस्वीरें आंखों के सामने तैरने लगती हैं. जैसे विलक्षण क़िरदार, वैसा ही उनका वर्णन. कई क़िरदार तो ऐसे हैं कि पढ़ने के बाद भी यक़ीन नहीं होता कि हाड़-मांस के ऐसे भी इंसान थे, जो अपनी ज़िद और अना के लिए क्या-क्या हरकतें नहीं करते थे!

‘यादों की बरात’ की ताक़त इसकी ज़बान है, जो कहीं-कहीं इतनी शायराना हो जाती है कि शायरी और नज़्म का ही मज़ा देती है. मिसाल के तौर पर सर्दी के मौसम की अक्कासी वे कुछ इस तरह से करते हैं, ‘‘आया मेरा कंवार, जाड़े का द्वार. अहा ! जाड़ा-चंपई, शरबती, गुलाबी जाड़ा-कुंदन-सी दमकती अंगीठियों का गुलज़ार, लचके-पट्टे की रज़ाइयों में लिपटा हुआ दिलदार, दिल का सुरूर, आंखों का नूर, धुंधलके का राग, ढलती शाम का सुहाग, जुलेखा का ख़्वाब, युसुफ का शबाब, मुस्लिम का क़ुरान, हिन्दू की गीता और सुबह को सोने का जाल, रात को चांदनी का थाल.’’ (पेज -49)

यह तो एक बानगी भर है, वरना पूरी किताब इस तरह के लाजवाब जुमलों से भरी पड़ी है. किताब पढ़ते हुए कभी दिल मस्ती से झूम उठता है, तो कभी लबों पर आहिस्ता से मुस्कान आ जाती है. ‘यादों की बरात’ को पढ़ते हुए, यह एहसास होता है कि जैसे हम भी जोश मलीहाबादी के साथ इस बरात में शरीक हो गए हों. हिन्दोस्तान के उस गुज़रे दौर, जब मुल्क़ की आज़ादी की जद्दोजहद अपने चरम पर थी, तमाम हिन्दुस्तानी कद्रें जब अपने पूरे शबाब पर थीं, इन सब बातों को अच्छी तरह से जानने-समझने के लिए, इस किताब को पढ़ने से उम्दा कुछ नहीं हो सकता.

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