टिन की छाजन वाली उन वर्कशॉप में देवता, दानव और मनुष्य एक साथ, एक ही जगह मिल जाते हैं, जैसे कि मनुष्य के किरदार से बाहर निकलकर छवियों का रूप धर लिया हो. फूस-मिट्टी, रंग-रसायन की महक से भरे उन टपरों में किसी बाहरी आदमी के लिए दरअसल कोई जगह नहीं होती मगर पूजा के दिनों में कुम्हार टोली फ़ोटोग्राफ़र्स के लिए अदम के बाग़ीचे से कम हैसियत नहीं रखती. झुंड के झुंड फ़ोटोग्राफ़र वहाँ पहुंचते हैं. यों कैमरे की निगाह से लाइट और फ़ॉर्म के अध्ययन का यह बेहतरीन मौक़ा होता भी है. पूजा के दिनों में कलकत्ते में था तो मैं भी वहाँ पहुंच गया.
जमींदार बाड़ी में कम्पनी बहादुर की आमद से शुरू हुआ पंडाल बनाने का सिलसिला और दुर्गा प्रतिमाओं की भव्यता समय के साथ इस क़दर विस्तार पा गई कि पूजा की धूम अब बंगाल तक सीमित नहीं, पूरे देश में फैल चुकी है. कुम्हार टोली के शिल्पी इन दिनों रात-दिन काम कर रहे होते हैं, उनकी थकान और उदासी धीरे-धीरे उन टपरों का आवरण बन गई है, जहाँ सृजन और कल्पना से कहीं ज्यादा मशीनी ढंग से काम उनकी प्रेरणा बन चुका है. उनकी बस्ती से दूर-दूर सजने वाले पंडालों की प्रतिस्पर्धा परोक्ष में उनकी अपनी हो जाती है. कुछ जगहों पर कला के विद्यार्थी डिज़ाइन पर काम करते हुए मिले मगर उनकी सोच और उनका नज़रिया परम्परा से एकदम अलग नज़र आया.
ये तस्वीरें उन तीन घंटों में बनाईं हैं, जो मैंने धूप-छांव, मिट्टी की गंध में मिली रंगों की महक और यंत्रवत् काम करते शिल्पियों के साथ बिताए. हां, वे इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि उन्हें डिस्टर्ब किए बग़ैर आप दिन-रात उनके बीच बने रहें, आपकी मौजूदगी का उन पर कोई असर नहीं होता, वे निस्पृह बने रहते हैं.
फ़ोटो | सुनील उमराव