लोकश्रुति में शेरगढ़ के भाँड़ों की बहुत अहमियत रही है. भाँड़ का मतलब यों तो विदूषक या मसख़रा ही होता है मगर भूरे यानी ग़ुलाम हसन को इस लफ़्ज़ से ही परहेज़ है. ज़माने ने भाँड़ लफ़्ज़ कुछ इस तरह बरता है कि अब उन्हें यह अपमानजनक लगता है, [….]
लोकनाट्य और मनोरंजन की पुरानी परंपराओं में भाँड़ों का शुमार भी हुआ करता था. और वे हाव-भाव की नक़ल करने वाले नक़्क़ाल भर नहीं थे, उनके फ़िकरों और उनकी ज़बान की लज़्ज़त लोगों को लुभाती भी थी. लखनऊ के भाँड़ों पर श्री जुगुल किशोर का यह लेख सन् 1996 में इलाहाबाद के कैंपस थिएटर की पत्रिका में छपा था, [….]