किसी भी देश की कला वहां के लोगों के मनोविज्ञान की प्रतिच्छाया होती है. उस कला की गुणवत्ता का स्तर उसकी राजनीतिक शक्ति की समृद्धि और दारिद्रय, दोनों का प्रतिबिंब होती है और उस देश के लोगों की बौद्धिकता और सौंदर्यबोध के विकास का एक संकेत होता है. [….]
कथक गुरु बिरजू महाराज से प्रवीण शेखर की यह बातचीत 17 मई, 1995 को अमर उजाला के इलाहाबाद संस्करण में छपी. इसे पढ़कर संस्कृति के प्रति उनके सरोकार और नज़रिये की झलक तो मिलती ही है, यह भी मालूम होता है कि टेलीविज़न के ज़रिये फैल रही अपसंस्कृति के बारे में तो वह फ़िक्रमंद थे ही, संगीत सभाओं में ताली भर पीटने वाले श्रोताओं पर भी उनकी निगाह लगी हुई थी. [….]
बरेली की लिटरेरी सोसाइटी के उस जलसे में फ़िराक़ गोरखपुर शरीक हुए थे. उन्होंने अपना क़लाम पेश किया, उसके पहले वसीम बरेलवी की ग़ज़लों के संग्रह ‘आंसू मेरे दामन तेरा’ का विमोचन किया. इसकी ऑटोग्राफ़ की हुई प्रति की नीलामी हुई और रक़म जवानों की भलाई के कोष में दी गई. ख़ासतौर पर बुलाए गए महेंद्र कपूर ने वसीम बरेलवी की दो ग़ज़लें भी गाईं. [….]
वामिक जौनपुरी के ख़्वाब के तजुर्बे बहुत दिलचस्प भी हुआ करते. उन्होंने कई ऐसे ख़्वाबों के बारे में लिखा है जो हर रोज़ रात को वहाँ से शुरू होते, जहाँ सुबह आँख खुलने पर छूट गए थे. उनकी मशहूर नज़्म ‘भूका बंगाल’ के नज़्म होने के पहले कलकत्ते के होटल में भी उन्होंने ख़्वाब देखा था – एक ख़ौफ़नाक ख़्वाब. [….]