पिछली सदी की तमाम महत्वपूर्ण घटनाओं को हम जिन तस्वीरों की मार्फ़त जानते-समझते आए हैं, और जो हमारे अवचेतन का हिस्सा भी हैं, उनके फ़ोटोग्राफ़र के तौर पर सुनील जाना का नाम मगर बहुतों की स्मृति में नहीं मिलता. [….]
राहुल सांकृत्यायन के विपुल लेखन में फोटोग्राफी का ज़िक्र अलग-अलग तरह से बार-बार आया है, ख़ास तौर पर उनके यात्रा साहित्य में. वह फ़ोटोग्राफ़ी कौशल पर ज़ोर देते और यात्राओं में इसकी ज़रूरतों को रेखांकित करते. [….]
नई दिल्ली | सत्तर के दशक में आपातकाल लगाने के पीछे इंदिरा गांधी की सत्ता में बने रहने की चाह एक बड़ा और तात्कालिक कारण था लेकिन और भी ऐसे अनेक कारण थे जिनकी वजह से उन्होंने यह क़दम उठाया. उन कारणों को समझने के लिए हमें इतिहास में और पीछे जाने की ज़रूरत है. क्योंकि देश में उस आपातकाल की पृष्ठभूमि बहुत पहले से ही तैयार हो रही थी,जिस पर पहले हमारा ध्यान नहीं गया. यही बात देश के वर्तमान हालात पर भी लागू होती है. आज जिस तरह की स्थितियां हमारे सामने हैं वे सिर्फ़ कुछ बरसों में नहीं बनी है. दरअसल, इनके लिए इतिहास में पहले घट चुकी अनेक तरह की घटनाएं ज़िम्मेदार हैं. इतिहासकार और प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर ज्ञान प्रकाश ने अपनी किताब ‘आपातकाल आख्यान : इंदिरा गांधी और लोकतंत्र की अग्निपरीक्षा’ के लोकार्पण के दौरान यह बात कही.
राजकमल प्रकाशन से छपी ज्ञान प्रकाश की किताब का लोकार्पण कल शाम को इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में हुआ. इस दौरान अशोक कुमार पांडेय और सीमा चिश्ती ने लेखक से किताब पर बातचीत की. किताब के अनुवादक मिहिर पंड्या ने अनुवाद के अपने अनुभव साझा किए और किताब से कुछ रोचक अंशों का पाठ किया.
अनुवादकीय वक्तव्य में मिहिर पंड्या ने कहा कि मुझे आधुनिक इतिहास के बीस और सत्तर के दशक में विशेष रुचि रही है. इसका कारण यह है कि इन दोनों दशकों में अनेक ऐसी घटनाएँ घटित हुई जो कई चीजों को बना रही थी और बदल रही थी. उनमें से कई चीजों को हम आज भी पूरी तरह से व्याख्यायित नहीं कर पाए हैं. दूसरा, उस समय देश के नौजवान बहुत सक्रिय रूप से चीजों को बनाने और बदलने में अपनी भूमिका निभा रहे थे. इन्हीं चीजों में मेरी दिलचस्पी ने इस किताब के अनुवाद के लिए मुझे आकर्षित किया.
आपातकाल के ऐतिहासिक कारणों पर बात करते हुए ज्ञान प्रकाश ने कहा, नेहरू के निधन के बाद का जो काल था, उस समय दुनियाभर में राजनीतिक रूप से असंतोष की एक लहर चल रही थी. क्योंकि पिछले कुछ दशकों में आज़ाद हुए अनेक राष्ट्रों ने लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनाकर अपने नागरिकों से बराबरी का वादा किया था. लेकिन दो-तीन दशक बीत जाने के बाद भी सामाजिक और आर्थिक असमानता उसी तरह बरकरार थी. भारत की राजनीति भी उससे अछूती नहीं रही और इसी से इंदिरा गांधी की सत्ता का संकट पैदा हुआ. व्यवस्था के प्रति इस असंतोष ने देश के युवाओं को आंदोलित किया और आज़ादी की लड़ाई के सिपाही ‘जेपी’ ने उन्हें नेतृत्व दिया. आख़िर वह दौर लंबा नहीं चल सका लेकिन आपातकाल से हमें जो सीख लेनी चाहिए थी वो हमने नहीं ली. ज्यादातर लोगों का यही सोचना था कि इंदिरा गांधी को सत्ता से हटाते ही सारी चीजें ठीक हो जाएगी. मेरा मानना है कि इस तरह की घटनाओं को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखे बगैर केवल व्यक्ति केंद्रित कर देना हमें कोई समाधान नहीं दे सकता.
उन्होंने कहा कि हमारे समाज में, राजनीति में, मीडिया में और पूंजीवादी व्यवस्था में जो बदलाव हो रहे हैं उनके साथ-साथ हमें लोकतंत्र में होने वाले बदलावों को भी नज़र में रखना चाहिए. इस किताब में आपातकाल के ठीक पहले की स्थितियों और लोकतंत्र में आ रहे इन्हीं बदलावों के ऐतिहासिक संदर्भ को समझने की कोशिश की है. मुझे उम्मीद है कि यह किताब पाठकों को देश की वर्तमान स्थितियों के पीछे के ऐतिहासिक संदर्भों को भी समझने के लिए प्रेरित करेगी.
लेखक से बातचीत के दौरान अशोक कुमार पांडेय ने कहा कि इस किताब का अनुवाद बहुत अच्छा हुआ है. इसे पढ़कर ऐसा लगा कि जैसे यह किताब हिन्दी में ही लिखी गई है. अनुवादक ने लेखक की शैली को पहचानकर जैसा अनुवाद किया है, वह वाकई काबिले तारीफ़ है.
इससे पहले, राजकमल प्रकाशन समूह के अध्यक्ष अशोक महेश्वरी ने अपने स्वागत वक्तव्य में कहा, आपातकाल भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक अप्रत्याशित घटना थी. अवांछित भी. आपातकाल की घोषणा वैधानिक प्रावधानों के जरिये ही की गयी थी. लेकिन तत्काल इसके जो प्रभाव नज़र आए, उनसे स्पष्ट हो गया कि महज तीन दशक पहले आज़ाद होकर, लोकतंत्र की राह पर आगे बढ़ने वाले देश के लिए यह हतप्रभ और हताश करने वाला कदम था. दरअसल, हमारे युवा लोकतंत्र के लिए आपातकाल एक चेतावनी साबित हुआ. ज्ञान प्रकाश की किताब आपातकाल आख्यान हमारे हालिया इतिहास की इसी परिघटना की बारीक विवेचना करती है.
आगे उन्होंने कहा, वैसी किताबों को प्रकाशित करना हमारी प्राथमिकता में रहा है जो बौद्धिक उन्नति में सहायक हो. ऐसी किताबें जो समाज, देश और दुनिया को बेहतर बनाने का जरिया बनें. यह भी एक ऐसी ही किताब है. हमें पूरा विश्वास है कि इस किताब से हमें सोचने-समझने की नई ऊर्जा मिलेगी, अपने समय-समाज को देखने-परखने की सम्यक दृष्टि मिलेगी, और एक सजग नागरिक के रूप में समाज, देश और दुनिया के प्रति बेहतर भूमिका निभाने की प्रेरणा मिलेगी.
किताब के बारे में
लोकतांत्रिक भारत के इतिहास के सबसे अँधेरे पलों में से एक का प्रभावी और प्रामाणिक अध्ययन, जो हमारे वर्तमान दौर में, लोकतंत्र पर मँडरा रहे वैश्विक संकटों पर भी रौशनी डालता है.
—सुनील खिलनानी; इतिहासकार, राजनीति विज्ञानी
एक ऐसे दौर में, जब दुनिया एक बार फिर अधिनायकवाद के ज़लज़लों से रू-ब-रू हो रही है, ज्ञान प्रकाश की किताब ‘आपातकाल आख्यान’ आपातकाल (1975-77) को बेहतर ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए हमें इतिहास के उस दौर में ले जाती है, जब भारत ने स्वतंत्रता हासिल की थी. यह किताब इस मिथक को तोड़ती है कि आपातकाल एक ऐसी आकस्मिक परिघटना थी जिसका एकमात्र कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री का सत्तामोह था, इसके बरक्स यह तर्क देती है कि आपातकाल के लिए जितनी ज़िम्मेदार इन्दिरा गांधी थीं, उतने ही ज़िम्मेदार भारतीय लोकतंत्र और लोकप्रिय राजनीति के बनते-बिगड़ते नाज़ुक सम्बन्ध भी थे. यह ऐसी परिघटना थी जो भारतीय राजनीति के इतिहास में निर्णायक मोड़ साबित हुई.
ज्ञान प्रकाश आपातकाल के ठीक पहले के वर्षों में घटी घटनाओं का विस्तार से लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हुए बताते हैं कि लोकतांत्रिक बदलाव के वादे के अधूरे रह जाने ने कैसे राज्य सत्ता और नागरिक अधिकारों के बीच मौजूद नाज़ुक सन्तुलन को हिला दिया था. कैसे उग्र होते असन्तोष ने इन्दिरा गांधी की सत्ता को चुनौती दी और कैसे उन्होंने वैध नागरिक अधिकारों को निलम्बित करने के लिए क़ानून को ही अपना हथियार बनाया. जिसने भारत की राजनीतिक व्यवस्था पर कभी न मिटने वाले घाव के निशान छोड़े और निकट भविष्य में जाति और हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति के लिए द्वार खोल दिए.
लेखक के बारे में
ज्ञान प्रकाश प्रिंसटन विश्वविद्यालय में इतिहास विषय के ‘डेटन-स्टॉकटन’ प्रोफ़ेसर हैं. वे प्रभावशाली समूह ‘सबाल्टर्न स्टडीज़ कलेक्टिव’ के 2006 में विघटित होने से पहले तक उसके सदस्य रहे हैं और ‘गुग्गेनहेम’ एवं ‘नेशनल एंडॉवमेंट ऑफ़ ह्यूमैनिटीज़ फ़ेलोशिप’ जैसी अध्येतावृत्तियाँ हासिल कर चुके हैं. उन्होंने कई किताबें लिखी हैं, जिनमें ‘बॉन्डेड हिस्ट्रीज़’ (1990), ‘अनदर रीज़न’ (1999) और बहुप्रशंसित ‘मुम्बई फ़ेबल्स’ (2010) शामिल हैं.चर्चित फ़िल्म-निर्देशक अनुराग कश्यप ‘मुम्बई फ़ेबल्स’ पर ‘बॉम्बे वेलवेट’ (2015) नाम से फ़ीचर फ़िल्म बना चुके हैं. ज्ञान प्रिंसटन, न्यू जर्सी में रहते हैं.
(विज्ञप्ति)
सोचिये, 17वीं सदी के मुग़ल बादशाह शाहजहां और महारानी मुमताज महल की बड़ी बेटी, होने वाले मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब की बड़ी बहन, छोटे भाई दारा शुकोह की प्यारी जहाँआरा बेगम अगर उन दिनों खो गई होतीं, अगवा कर ली गई होतीं तो क्या-क्या होता. मेरा मानना है कि अव्वल तो ये हो नहीं सकता [….]
पिछले दशक में आई फ़िल्मों पर ग़ौर करें तो ऐसी उत्तर-कृति (सीक्वल) बहुत कम याद कर सकेंगे जो क़ामयाब हुई हों और साथ ही मनोरंजक भी. सीक्वेल अपनी पहली कड़ी की बदौलत चर्चा में रहते हैं, भीड़ खींचते हैं लेकिन रुपहले पर्दे पर उनका सफ़र वैसा दिलचस्प नहीं होता है, आमतौर पर चारों तरफ़ जितना शोरगुल [….]
खेल मैदान खिलाड़ियों के कौशल और प्रतिभा प्रदर्शन के मंच होते हैं. और इसका सबसे बड़ा मंच है ओलम्पिक खेल. ओलम्पिक खेलों का लक्ष्य ही सिटियस, अल्टियस, फोर्टियस है. क्या ही कमाल है कि और तेज़, और ऊँचा, और मज़बूत बनने के इस यज्ञ में आहुति देते हुए भी खिलाड़ियों के हृदय में बहती प्रेम की [….]
वक़्त गुज़र जाता है. घटनाएं बीत जाती हैं. उनकी स्मृतियां बाक़ी रह जाती हैं. पेरिस ओलम्पिक भी पूरा हुआ. पर इसमें शामिल रहे खिलाड़ियों के प्रदर्शन से, इसके भीतर बनी संवेगों की रंग-बिरंगी छवियां और उनके जुनून, साहस, ताक़त और कौशल से किए गए हैरतंगेज और रोमांचक कारनामों की बेहद ख़ूबसूरत [….]
दीमक लगे चार बांसों और पीछे की दीवार से सटाकर तने हुए नीले रंग के तिरपाल से पानी की कई मोटी धार उसके दोनों तरफ़ गिर कर नाली तक का सफ़र तेज़ी से पूरा कर रही हैं… बाएं हाथ पर बने मिट्टी के चूल्हे से हल्का धुआं उठ कर नीले आसमान पे भटक रहे बादलों-सा दिखता है…एल्युमिनियम की पतीली से [….]
पेरिस ओलम्पिक अब तेज़ी से समाप्ति की ओर अग्रसर है. ओलम्पिक में परछाइयां बढ़ने लगी हैं. वातावरण में जीत और ख़ुशी की तमाम चहचहाटों के बीच उदासी की हल्की-सी नमी महसूस होने लगी है. भारत के लिए ओलम्पिक लगभग समाप्त हो चुका है. इंतज़ार है तो बस विदा की बेला का. [….]
कल यानी आठ अगस्त की रात को पेरिस के स्टेड डी फ़्रांस में पुरुषों की जेवलिन स्पर्धा के अपने पहले प्रयास में जब पाकिस्तान के अरशद नदीम रनअप से चूके और फ़ाउल कर बैठे, तो लगा कि वे दबाव में हैं. लेकिन नियति ने उनके लिए कुछ और सोच रखा था. उनके दूसरे प्रयास में उनके हाथ से निकले भाले ने एक ऐसी [….]
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इसे आप एक अद्भुत संयोग कह सकते हैं. दो अलग खेल. दो अलग देश. दो अलग महाद्वीप. दो अलग कहानियां. और कहानियों के दो अलग किरदार. लेकिन उन दो कहानियों में गजब की समानता. जो एक जगह पेरिस में, एक खेल आयोजन ओलंपिक में आकर अपने उत्कर्ष को प्राप्त होती हैं. बाकी ये क़िस्से किसी अंजाम को [….]