इब्न बतूता ने इसे कजारा बताया है, ह्वेनसांग ने इसे ‘चि: चि: तौ’ लिखा, और अलबरूनी ने ‘जेजाहुति’. हालांकि संस्कृत में यह ‘जेजाकभुक्ति’ भी पुकारा जाता रहा है. चंद बरदाई की कविताओं में इसे ही ‘खजूरपुर’ कहा गया. कभी यह खर्जुरवाहक भी कहलाया. किवदंति है कि गांव में घुसने के रास्ते पर दोनों तरफ़ स्वर्ण-खजूर के दो पेड़ थे. स्वर्ण खजूर का तो पता नहीं और अतीत में इसे कितने ही नामों से पुकारा गया हो मगर खजुराहो नाम का यह गांव अब चन्देल राजाओं के बनवाये हुए मंदिरों की वजह से पहचाना जाता है. सन् 950 से 1050 के बीच यहां 85 मंदिर बने और बारहवां सदी तक वे हुआ भी करते थे. फिर कितनी ही तरह की सोच वालों के हमलों का निशाना बने. हमलावरों की तलवारों और नेज़े और वक़्त की मार से बच गए 25 मंदिर तो अब भी वहां हैं.
बलुआ पत्थरों और ग्रेनाइट से बने ये मंदिर अपनी भव्यता, स्थापत्य, मूर्तियों और मंदिरों पर उकेरे गए शिल्प की वजह से विश्व धरोहर का दर्जा पाते हैं. मनुष्य की कल्पना और सृजन के नमूने यही शिल्प कितनी ही कविता-कहानी और आख्यानों की प्रेरणा हैं. मंदिर के शिल्पियों को समर्पित कविता ‘खजुराहो के निडर कलाधर’ में हरिवंश राय बच्चन कहते हैं,
धधक रही थी कौन तुम्हारी
चौड़ी छाती में वह ज्वाला,
जिससे ठोस कड़े पत्थर को
मोम गला तुमने कर डाला,
और दिए आकार, किया श्रृंगार-
नीति जिन पर चुप साधे,
किन्तु बोलता खुलकर जिनसे, शक्ति सुरुचिमय प्राण तुम्हारा.
खजुराहो के निडर कालाधर, अमग शिला में गान तुम्हारा.
फ़ोटोः प्रभात