बुधवार , 16  अक्टूबर  2024

कुल्लू | इस बार कुल्लू का दशहरा उत्सव 15 अक्टूबर से शुरू हो रहा है. सात दिनों तक चलने वाले इस उत्सव का स्वरूप देश के दूसरे हिस्सों में मनाए जाने वाले दशहरे से एकदम अलग है. देश भर में दशहरा बीत जाने के बाद यहाँ शुरुआत होती है. और रावण या कुंभकर्ण-मेघनाथ के पुतले जलाने का रवायत यहाँ नहीं है. हफ़्ते भर पहले से इसकी तैयारियाँ शुरू हो जाती है. ख़ास परिधानों में सजे-धजे महिला-पुरुष तुरही, बिगुल, ढोल, नगाड़े, बाँसुरी या जिसके जो वाद्य है, उसे लेकर निकलते हैं. अपने ग्राम्य देवता का पूजन करते हैं, धूमधाम से उन्हें पालकियों और रथ में लेकर चलते हैं. मुख्य देवता रघुनाथ जी की भी पूजा होती है. शोभायात्रा में नाटी नृत्य होता हैं. पूरे नगर की परिक्रमा करके रघुनाथजी की वंदना के साथ दशहरे का उत्सव शुरू होता है.
हिमाचल के लोगों की संस्कृति और धार्मिक आस्था के प्रतीक इस उत्सव की शुरुआत 17वीं सदी में तत्कालीन राजा जगत सिंह के समय हुई. कहा जाता है कि राजा जगत सिंह को कुछ दरबारियों ने बहका दिया कि मणिकर्ण घाटी के क़रीब टिप्परी गाँव के ब्राह्मण दुर्गादत के पास मोती हैं. राजा अपने सैनिकों के साथ ब्राह्मण के घर पहुंचा और मोती माँगा. ग़रीब ब्राह्मण के पास मोती होता तब न राजा को देता. राजा की माँग से डरे हुए ब्राह्मण ने अपने घर को आग लगा ली. वह और उसका पूरा परिवार आग में जल मरे. ब्रह्महत्या के इस दोष के निवारण के लिए राज पुरोहित कृष्णदास ने अपने शिष्य दामोदर दास को अयोध्या से रघुनाथ की मूर्ति लाने भेजा. अयोध्या में सेवक बनकर रहता रहा दामोदर मौक़ा मिलते ही मूर्ति लेकर लौट आया. यह सन् 1660 की बात है. वैदिक मंत्रों के उच्चारण के साथ मूर्ति को स्नान कराया गया और वह जल राजा जगत सिंह को पिलाया गया. इसके बाद अपना राजपाट रघुनाथ को सौंपकर छड़ीबरदार बनकर वह रघुनाथ के सेवक बन गए. इस मौक़े पर राजा ने कुल्लू सहित मंडी के भी 360 देवी-देवताओं को बुलाया. इस तरह महादेव संगम कुल्लू दशहरा की परंपरा शुरू हुई. 361 साल पुरानी परंपरा के मुताबिक इस बार भी 332 देवी-देवताओं को निमंत्रण भेजा गया है.
उत्सव के छठे दिन सभी देवी-देवता इकट्ठे आ कर मिलते हैं जिसे ‘मोहल्ला’ कहते हैं. रघुनाथ जी के इस पड़ाव पर उनके आसपास अनगिनत रंगबिरंगी पालकियों का दृश्य बहुत अनूठा होता है. सारी रात लोगों का नाच-गाना चलता है. यहां सात दिनों तक रघुनाथ अपने अस्थायी शिविर में विराजमान होते है. सातवे दिन रथ को ब्यास नदी के किनारे ले जाते हैं, जहाँ कंटीले पेड़ को लंका के प्रतीक के तौर पर जलाने के बाद रघुनाथ जी को रघुनाथपुर के मंदिर में पुर्नस्थापित किया जाता है.

रिपोर्ट | रोशन ठाकुर. फ़ोटो | अजय कुमार.

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