गुरूवार , 25  अप्रैल  2024

चमड़े की किताबों पर चोट करती हथौड़ियों की वह समवेत आवाज़ ऐसी लय पैदा करती थी कि उसे सुनना अच्छा लगता. शाहगंज से जौनपुर आते-जाते हुए बाज़ार से होकर गुज़रते वक़्त वह लय बस उतनी देर को मिलती, बस वहाँ से गुज़र जाने में जितना वक़्त लगता. यह फ़ोटो फ़ीचर अवचेतन में बसी हुई बचपन की उसी लय का नतीजा है. अलबत्ता जब इस आवाज़ को ढूंढता घूम रहा था, नए सरकारी क़ायदे के नतीजे में यह कब की ख़ामोश हो चुकी थी. लखनऊ, बनारस, जौनपुर, मुरादाबाद में नाकामी के बाद बरेली के पुराना शहर की बेहद तंग गली के एक घर में वह मिल ही गई, मद्धिम और कुछ दबी-दबी सी.
मिठाई, पान और फल से लेकर देव प्रतिमाओं तक पर इस्तेमाल होने वाले चाँदी के वरक़ अब सिर्फ़ मशीन से बनाने की इज़ाजत है. हाथ से बने वरक़ के इस्तेमाल पर पाबंदी है. उस घर में रहने वाले आलम और उनके भाई ने अपने पिता से यह हुनर सीखा था. उनके यहाँ काम करने वाले बुज़ुर्ग चाँद मियाँ की पूरी उम्र यही करते बीत गई. अब इस उम्र में कुछ नया सीखने-करने के बारे में सोच नहीं पाते तो कभी-कभार आलम की वर्कशॉप में चले आते हैं. ख़ुद आलम की समझ में कुछ और नहीं आता तो कभी-कभार बना लेते हैं, छोटे दुकानदार ख़रीद लेते हैं. कुछ हथौड़ियां और अपने हुनर के बूते ज़िंदगी गुज़ार लेना उन सबके लिए ख़्वाब हुआ – ‘मिरी ज़िंदगी की किताब का है वरक़ वरक़ यूँ सजा हुआ…’

फ़ोटो | प्रभात

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