कहने वालों ने उन्हें ‘आर्ट मशीन’ कहा. उन्होंने क़रीब बीस हज़ार पेंटिंग बनाई हैं, यानी हर रोज़ दस पेंटिंग. मगर जामिनी राय ख़ुद को पटुआ कहकर ख़ुश होते थे. कलकत्ता के गवर्नमेंट आर्ट स्कूल से पढ़ाई की लेकिन कुछ वर्षों तक अपनी ट्रेनिंग के मुताबिक पश्चिम की शैली में लैंडस्केप और पोर्ट्रेट बनाते हुए वह ऊब गए. नए कला रूपों की तलाश और अपनी मिट्टी से प्रेरणा पाने की कोशिश में वह लोक कलाओं और आदिवासी कलाओं के क़रीब गए तो कालीघाट पेंटिंग की शैली से प्रभावित हुए. अगले कुछ सालों में उन्होंने संथाल स्त्रियों के तमाम चित्र बनाए, जिनमें वे रोजमर्रा के काम करते दिखाई देती थीं.
1920 के दशक के आख़िर तक जामिनी राय स्थानीय लोक कलाओं-शिल्प परम्पराओं से प्रेरणा लेने लगे, पशुओं को ख़ासे विनोदपूर्ण तरीक़े से पेश किया. ईसा मसीह के जीवन से जुड़ी कथाओं को उन्होंने इस तरह से चित्रित किया कि वह साधारण बंगाली ग्रामीण को भी आसानी से समझ में आए. रामायण की कथा का चित्रण उनका एक और महत्वपूर्ण काम है. कालीघाट पट शैली में 17 कैनवस पर उन्होंने यह काम शारदा चरन दास के लिए किया था, जो उनके घर ‘रोसोगुल्ला भवन’ में यह अब भी संरक्षित है. वह हमेशा मानते थे कि कला को आम आदमी की पहुंच होना चाहिए. यही वजह है कि देश और दुनिया की तमाम प्रतिष्ठित गैलरियों के साथ ही उनके चित्र बहुत से लोगों के व्यक्तिगत संग्रह में भी मिलते हैं. बांग्ला लोक कला को अपनी शैली बनाकर अद्भुत संसार रचा.
जामिनी राय 11 अप्रैल, 1887 को पश्चिम बंगाल के बांकुड़ा ज़िले के बेलियातोर गांव में जन्मे थे और अपनी ज़िंदगी का बहुत सारा समय उन्होंने कलकत्ता में बिताया.