लंबे इंतज़ार के बाद परी सरीखी हॉकी की वापसी

अशोक कुमार कहते हैं कि यह एक सम्पूर्ण मैच था जिसे हॉकी कोच आगे रेफेरेंस के तौर पर अपने पास रखेंगे. हॉकी की दुनिया में भारत की प्रतिष्ठा की वापसी और कांस्य पदक जीतने की बधाई. यह देखना भी रोचक होगी कि हॉकी की यह वापसी कितनी टिकाऊ होती है!!

“…मेरे लिए उसका प्रेम शाश्वत था. हमारा ये प्रेम लंदन में फला फूला, हेलसिंकी में हमने शादी की और मेलबोर्न में हनीमून मनाया. 11 साल के लंबे अरसे के बाद जब एक बार फिर वो मेरे पास आई तो पहले जैसी ही ताज़गी से भरी और आकर्षक थी. इस बार वो मुझे कुआलालंपुर लेकर आई और हम एक बार फिर आसमां पर थे. लेकिन वो एक बार फिर ग़ायब हो गई. इस आश्वासन के साथ कि वो वापस लौटेगी. मैं उसका इंतज़ार कर रहा हूँ – ओ मेरी परी सरीखी हॉकी…”

हॉकी के महान खिलाड़ी बलबीर सिंह सीनियर ने यह अपनी आत्मकथा में लिखा. हम जानते हैं कि हॉकी के इस प्रेम में वे अकेले नहीं थे. आज भी पूरी एक पीढ़ी है जो उनकी तरह ही हॉकी के अनन्य प्रेम में है. इस पीढ़ी के लोगों ने भले ही उनकी तरह हॉकी न खेली हो मगर उसे देखते हुए, उसका अनुसरण करते हुए और उसे जीते हुए यह पीढ़ी बड़ी हुई है और बलबीर सिंह सीनियर की तरह इंतज़ार में थी कि ‘परी सरीखी हॉकी’ कभी तो लौटेगी.

और एक बार फिर हॉकी वाया टोक्यो वापस लौट आई, जैसे 1975 में कुआलालंपुर के रास्ते बलबीर की ज़िंदगी में लौटी थी और अपने चाहने वाले करोडों के दिलों में लौटी थी. उसका इस तरह आना मानो आपके बचपन के किसी ख़ूबसूरत क्रश का जीवन की तीसरी बेला में अचानक सामने आ जाना है, जिसे देखकर मारे ख़ुशी के आप किंकर्तव्यविमूढ़ हुए जा रहे हैं.

जो लोग प्रेम में हैं या रहे हैं वे जान सकते हैं कि प्रतीक्षा प्रेम की वो सबसे ख़ूबसूरत शय है जो मन को जितना गुदगुदाती है, उतना बेचैन भी करती है. एक प्रतीक्षारत प्रेमी जान सकता है कि प्रतीक्षा से उपजी बेचैनियां इसलिए ख़ूबसूरत होती हैं कि आप अपने वांछित यथार्थ को तसव्वुर में जीते हैं और जीते जाते हैं. तसव्वुर की चीज़ें अक्सर यथार्थ से बेहतर, कोमल और ख़ूबसूरत होती हैं.

हॉकी के प्रेम में डूबी ये पूरी पीढ़ी पिछले 41 सालों से उसकी प्रतीक्षा में थी और उसकी बेचैनियों को तसव्वुर में जी रही थी. ये एक लंबी प्रतीक्षा थी. इतनी लंबी कि बचपन और किशोरवय की उस संधिबेला की कनपटी अब चांदी-सी सफेद होने लगी है या हो चुकी है.

यह 41 साल लंबी नहीं बल्कि उससे कहीं ज़्यादा 45 साल लंबी प्रतीक्षा थी. दरअसल हम उसकी गणना 1980 से मास्को ओलंपिक करते हैं. लेकिन वो तो 1976 में मॉन्ट्रियल ओलंपिक से ग़ायब हो चुकी थी. 1980 की स्वर्णिम आभा दरअसल आभासी थी. वो सोने की नहीं पीतल की चमक थी. पश्चिमी देशों के बहिष्कार के कारण हॉकी की बड़ी शक्तियां वहां थी ही नहीं. छह दोयम टीमों में भी आप बमुश्किल जीत पाए थे.

आप इसकी क्रोनोलॉजी को समझिए. 1972 के म्यूनिख ओलंपिक में हम तीसरे नंबर थे. 1975 में कुआलालंपुर में विश्व कप जीतते हैं. लेकिन अगले साल ही 1976 में मॉन्ट्रियल में लुढ़क कर 7वें स्थान पर आ जाते हैं. हॉकी हमसे लगातार दूर होती जाती है. और 2008 में बीजिंग ओलंपिक के आते-आते वो हमारी आंखों से पूरी तरह ओझल हो जाती है, विस्मृत हो जाती है.

हम बीजिंग के लिए क्वालीफ़ाई नहीं कर पाते. एक चक्र पूरा होता है. 1928 में एम्स्टर्डम में गोल्ड से 2008 बीजिंग में अनुपस्थिति तक. यहां से चक्र उल्टा घूमता है. 2012 लंदन में 12वां, 2016 रियो में 8वां और 2021 टोक्यो में तीसरा स्थान.

ये आपके आत्ममंथन का बायस है कि जिसे आप दिलो जान से चाहते हैं, टूटकर प्यार करते हैं और राष्ट्रीय खेल का दर्जा देकर अपने माथे बिठाते हैं तब भी वो आपसे दूर होती जाती है और आप असहाय से उसे दूर जाते हुए देखते जाते हैं.

दरअसल ये आपकी ग़लती थी. आप समय के बहाव को रोकना चाहते थे और हॉकी थी कि समय के साथ बहना चाहती थी, समय के साथ क़दमताल करना चाहती थी. वो आधुनिक होना चाहती थी और आप थे कि उसे वहीं रोक देना चाहते थे. वो पश्चिमोन्मुखी हो जाती है.

पश्चिम के तौर-तरीक़े उसे लुभाने लगते हैं. वहां की तेज़ी और ताक़त लुभाती है और साथ ही कृत्रिमता भी. कृत्रिम एस्ट्रो टर्फ़ पर गति और ताक़त बहुत फबते हैं और हॉकी है कि उस चकाचौंध पर फ़िदा हो हो जाती है. अब वो घास और मिट्टी के मैदान को देखकर नाक-भौं सिकोड़ने लगती है. अब उसे आपकी कलात्मकता नही रुचती, वो तकनीक से प्रभावित होती है.

आप उस परिवर्तन को पहले तो देख नहीं पाते और जब देख भी लेते हो तो स्वीकार नहीं करते. आप आगे के बजाए पीछे की और देखते हो. आप उसे प्यार तो करते हो पर उसे चेरी की तरह रखना चाहते हो. आप ख़ुद के तौर-तरीक़े नहीं बदलना चाहते और उसे बदलने से रोक देना चाहते हो.

इतना हो तो भी सब्र कर ले. आप बीसवीं सदी में 18वीं सदी की तरह काम करते हो. बजाय इसके कि आप उसकी चाहतों को समझो आप उस पर जागीर की तरह आधिपत्य जमाना चाहते हो. आपस में लड़ते हो और उसकी पूरी तरह उपेक्षा कर देते हो.

ज़ब तक आप ये समझो कि वो आपसे दूर जा चुकी है तो आप अपने को बदलना शुरू करते हो. लेकिन बदलाव को लेकर अभी आप उहापोह की स्थिति में हो. आपको अभी भी पुराने तौर-तरीक़ों पर विश्वास है. इस उहापोह और आपकी सीमाओं के कारण परिवर्तन वांछित तरीक़े से और वांछित तेज़ी से नहीं कर पाते. इस बीच वो आपसे इतनी दूर जा चुकी होती है कि आंखों से ओझल हो जाती है.

तब जाकर आपकी नींद टूटती है. आपकी ख़ुमारी उतरती है. अब आप आमूलचूल परिवर्तन के लिए तैयार होते हो. आप उसे अपनी और खींचने के लिए गति, पावर और तकनीक अपनाते हो. कोचिंग के तौर-तरीक़े बदलते हो. बाज़ार की ज़रूरत के हिसाब से ख़ुद को ढालते हो. और लीग सिस्टम लाते हो. अपने यहां भी पश्चिमी खिलाड़ियों के एक्सपोज़र देने का वादा करते हो. और उसमें धन का आकर्षण पैदा करते हो. अंततः आपके प्रयास सफल होते है और तब कहीं जाकर आप उसे वापस ला पाने में समर्थ होते हो.

आप हॉकी की क्रिकेट से तुलना कीजिए. आप 1975 में हॉकी का विश्व कप जीतते हैं. मगर उसमें हो रहे बदलावों की आहट नहीं सुन पाते और इसीलिए उसमें तीव्र उतार आता है. 1983 में क्रिकेट का विश्व कप जीतते है. वे उसमें आ रहे परिवर्तनों को बहुत शीघ्रता से और सहजता से अपनाते हैं और उठान पर होते हैं.

आख़िर इन दो खेलों की विपरीत प्रवृत्तियों का कारण क्या होता है. दरअसल तमाम कारणों के अलावा सबसे बड़ा कारण एक व्यक्ति होता है. इसका नाम होता है जगमोहन डालमिया. वह एक उद्योगपति थे. वह बीसीसीआई अध्यक्ष बनते हैं और उसके प्रबंधन में कॉरपोरेट कल्चर की शुरुआत और बहुत ही पेशेवर ढंग से वित्तीय प्रबंधन करते हैं. देखते ही देखते बोर्ड सबसे अमीर बोर्ड बन जाता है और ताक़तवर भी. अब क्रिकेट में पैसा आता है और उसी अनुपात में क्रिकेट प्रगति करता है.

दरअसल हॉकी को भी एक डालमिया की ज़रूरत है.

हॉकी संघ पिछले कुछ सालों से अधिक सक्रिय हुआ और हॉकी को बढ़ाने के लिए हरसंभव प्रयास कर रहा है. निःसन्देह इसमें अंतर्राष्ट्रीय हॉकी संघ भी बहुत सहयोग कर रहा है. पिछले कुछ सालों से एक और व्यक्ति है, जिसने इसमें दखल दिया है. ये ओडीशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक हैं.

इस मामले में उनका दृष्टिकोण साफ़ है. डालमिया क्रिकेट में कॉर्पोरेट कल्चर लाए. पटनायक भी पैसे की अहमियत समझते हैं लेकिन उनका ज़ोर आधारभूत ढांचे और सुविधाओं के विकास पर है. यह दरअसल एक राजनेता और एक उद्योगपति होने का अंतर है. 2018 में जब सहारा ने अपनी क्राइसिस के चलते हॉकी इंडिया की स्पॉन्सरशिप से हाथ खींचा तो ओडीशा सरकार ने हॉकी इंडिया से 5 सालों का 150 करोड़ रुपये का करार किया और पुरुष-महिला और जूनियर टीम की स्पॉन्सरशिप दी.

इसके अलावा भी ओडीशा सरकार न केवल हॉकी को बल्कि खेलों के समुचित विकास के काम कर रही है. उसने 2018 में टाटा ग्रुप के साथ भुवनेश्वर में हॉकी हाई परफॉर्मेन्स सेंटर स्थापित किया ताकि विश्व स्तरीय खिलाड़ी तैयार हो सकें. और जमशेदपुर में देश का सबसे बड़ा हॉकी स्टेडियम भी बना रही है. ऐसे समय में जब कोरोना महामारी से उपजे वित्तीय संकट के चलते केंद्र सरकार सहित अनेक राज्य सरकारों ने खेलों का बजट कम किया है, वहीं ओडीशा सरकार ने इस साल खेलों का बजट 250 करोड़ का रखा, जिसे अगले साल 350 करोड़ करने का वादा किया है.

पिछले दिनों भारत में जितनी भी बड़ी हॉकी प्रतियोगिताएं हुई उन सब की मेजबानी ओडीशा ने ही की. इनमें 2014 की चैंपियन्स ट्रॉफी, 2017 में हॉकी वर्ल्ड लीग फ़ाइनल और विश्व कप 2018 हैं और 2023 विश्व कप भी यहीं आयोजित किया जाएगा.

यह देखना रोचक होगा कि नवीन पटनायक हॉकी के डालमिया बन पाते हैं या नहीं. पर यह पक्का है कि टोक्यो में भारत ने शानदार हॉकी खेली बावजूद इसके कि वे ऑस्ट्रेलिया और बेल्जियम से हारे. और भारतीय हॉकी की पुनर्वापसी के लिए आज के मैच से बेहतर मैच नहीं हो सकता था. 1-3 से पिछड़ने के बावजूद भारत ने शानदार वापसी की और 5-4 से मैच जीता.

इस मैच में वह सब कुछ था जो आधुनिक हॉकी में होने की अपेक्षा की जाती है या की जा सकती है. तभी अशोक कुमार कहते हैं कि ये एक सम्पूर्ण मैच था जिसे हॉकी कोच आगे रेफेरेंस के तौर पर अपने पास रखेंगे.

फिलहाल तो भारत की वापसी और कांस्य पदक जीतने की बधाई. और ये देखना भी रोचक होगी कि हॉकी की यह वापसी कितनी टिकाऊ होती है!!

कवर | हॉकी इंडिया

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