और दस नंबर की जर्सी वाले जादूगर का जाना

फुटबॉल इतिहास के दो सिरों – पेले और मेसी के बीच अपनी तमाम कमज़ोरियों और अवगुणों के साथ एक मानुस – माराडोना सीना ताने खड़ा है जो सीना ठोककर फुटबॉल के देवताओं को चुनौती देता है.

फुटबॉल खेल का पूरा इतिहास दो देव तुल्य खिलाड़ियों के बीच का इतिहास है जो एक से शुरू होकर दूसरे पर आकर रुका हुआ है. इसका प्राचीनतम छोर ब्राज़ील के पेले से शुरू होता है और अर्जेंटीना के लियोनेस मेस्सी पर आकर रुकता है. ये दोनों फुटबॉल के देवता हैं, लेजेंड हैं और मिथक हैं. लेकिन क्या मानव सभ्यता का इतिहास बिना मानव के लिखा जा सकता है? नहीं न ! देवताओं का हो या मनुष्यों का – इतिहास किसी का भी लिखा जाए उसके केंद्र में होगा आदमी ही जो अपनी तमाम कमज़ोरियों के बावजूद सीना तानकर शान से सिर ऊंचा करके खड़ा होगा. फुटबॉल इतिहास के दो सिरों – पेले और मेसी के बीच अपनी तमाम कमज़ोरियों और अवगुणों के साथ एक मानुस-माराडोना सीना ताने खड़ा है जो सीना ठोककर फुटबॉल के देवताओं को चुनौती देता है और कहता है कि आप चाहे जितने बड़े देवता हो जाओ, पर फुटबॉल खेल का, उसके इतिहास का केंद्रीय बिंदु मैं ही रहूंगा. दरअसल डिएगो आरमाण्डा माराडोना फुटबॉल के महान देवताओं के बीच एक असाधारण मनुष्य सरीखा है. जिसने 60 साल की उम्र में कल इस दुनिया-ए-फ़ानी को अलविदा कहा और पूरा खेल जगत ख़ालीपन के अहसास के गहरे समंदर में डूब गया.

सन् 1986 के विश्व कप में इंग्लैंड के ख़िलाफ़ क्वार्टर फाइनल मैच के बाद मशहूर फ़्रेंच अख़बार ला एक्विपे ने माराडोना को ‘आधा देवदूत, आधा दानव’ के रूप में व्याख्यायित किया था. दरअसल ये उसके अदभुत खेल कौशल के साथ-साथ उसकी स्वभावगत कमज़ोरियों की ओर संकेत था. वो एक अद्भुत खिलाड़ी था; सार्वकालिक महान खिलाड़ियों में एक; अद्भुत खेल कौशल और चातुर्य वाला ऐसा खिलाड़ी जिसने एक बार नहीं तीन-तीन बार गोल करने या बचाने में हाथ का प्रयोग किया हो, जो व्यक्तिगत जीवन में मादक पदार्थों का व्यसनी हो और अपनी कृत्यों से कई बार शर्मसार भी कर देता हो. पर क्या ही कमाल है कि उसके पास अद्भुत खिलाड़ी होने का एक ऐसा आभामंडल था जिसके प्रकाश की चकाचौंध में उसके जीवन की कालिख, उसका अंधेरा विलीन हो जाता था. लोगों पर उसके खेल का जादू सर चढ़ कर बोलता था.

सच में वो फुटबॉल का जादूगर था. फुटबॉल का ध्यानचंद. वो सर्वश्रेष्ठ ड्रिबलर जो था. जब वो ड्रिबल करता तो द्रुत में क्लासिक नृत्य करता प्रतीत होता. गेंद उसकी चेरि प्रतीत होती और उसकी थाप पर झूमती. गेंद लेकर जब आगे बढ़ता तो वो ‘वन मैन आर्मी’ होता था, जिसके विरुद्ध विपक्षी हिंसक समूह के रूप में एकजुट हो जाते. पर वो था कि अपने अद्भुत खेल रणकौशल और खेल चातुर्य से लय और गति का एक ऐसा मनमोहक जाल फैलाता कि उसके सम्मोहन से मंत्रमुग्ध हुए विपक्षी खिलाड़ी खेत होते जाते और वो किसी विजेता-सा अपने लक्ष्य गोलपोस्ट पर खड़ा मुस्कुराता और गेंद गोलपोस्ट के अंदर चैन की सांस लेती.

गेंद और उसके एक जोड़ी पैरों की कमाल की जुगलबंदी थी. वे एक दूसरे के प्रेम में थे. मानो वे एक दूसरे का बिछोह सहन ही नहीं कर पाते. गेंद जब दखो उन पैर चूमने आ जाती. इस प्रेम का एक और कोण था – वे मैदान जहां वे एक जोड़ी पैर जाते. दरअसल वे मैदान भी उसके प्यार में पड़ जाते. मैदान उन पैरों को गति प्रदान करते तो गेंद उस गति में लय भर देती. धरती गेंद को बार-बार उन पैरों से अलगाती और गेंद उन पर न्योछावर हो हो जाती. जहां वे पैर जाते वहां दो टीमों के संघर्ष से अलहदा उस मैदान, गेंद और पैरों की त्रिकोणीय जुगलबंदी का एक अद्भुत संगीत निसृत होता रहता जो देखने वालों को मदहोश करता रहता.

वो 5 फुट 5 इंच का छोटे कद का खिलाड़ी था. उसका छोटा कद उसका बैलेंस बनाने में बहुत सहायक होता और वो बहुत ही तीव्र गति से गेंद पर पूरे नियंत्रण के साथ ड्रिबल कर पाता था. उसका कद ही छोटा था पर खेल उतना ही ऊंचा. वो फुटबॉल का डॉन ब्रैडमैन था, सचिन तेंदुलकर था और सुनील गावस्कर भी. जो जादू डॉन, सचिन या गावस्कर अपने बल्ले से रचते वो माराडोना अपने पैरों से रचता.

वो 10 नंबर की जर्सी पहनता था. पेले और मेस्सी भी 10 नंबर की पहनते हैं. माने वो फुटबॉल का अतीत भी था, वर्तमान भी और भविष्य भी. सचिन भी 10 नम्बर की जर्सी पहनता था. ध्यान से देखिए ये सारे अपनी प्रतिभा से उत्कृष्टता का एक कोमल संसार रचते. किसी कविता की तरह. ला डेसिमा की तरह. क्या ही संयोग है न कि स्पेनिश कविता में भी 10 पंक्तियों का स्टेन्ज़ा होता है. वो फुटबॉल का जॉन मैकनरो भी था. उसी की तरह बिगड़ैल चैंपियन.

1986 के विश्व कप का इंग्लैंड के विरुद्ध क्वार्टर फाइनल का मैच उसके व्यक्तित्व का मानो आईना हो, उसके जीवन का शाहकार हो. उस मैच में उसने दो गोल दागे. पहला गोल उसने हाथ से किया. यह एक फ़ाउल था पर उस समय पकड़ में नहीं आया. बाद में उसने इसे ‘हैंड ऑफ़ गॉड’ कहा. लेकिन इस गोल के ठीक पांच मिनट बाद एक गोल किया. ये अद्भुत गोल था. फुटबॉल खेल के कौशल का सर्वश्रेष्ठ निर्देशन. जिसे बाद में सदी का सर्वश्रेष्ठ गोल माना गया. उसने अपने हाफ़ में गेंद ली और इंग्लैंड के पांच खिलाड़ियों को मात देते हुए गोल किया. यहां तक कि गोलकीपर सेल्टन भी उसके पीछे रह गया था जब वो गेंद गोलपोस्ट के भीतर भेज रहा था. एक बेईमानी से नियम विरुद्ध और दूसरा असाधारण खेल कौशल से. ऐसे ही दो विरुद्धों से उसका जीवन बना था. एक खिलाड़ी के रूप में वो लेटिन अमेरिकी फुटबॉल की पेले और मेस्सी के बीच की कड़ी और फुटबॉल परंपरा और दीवानेपन का प्रतिनिधि खिलाड़ी ही नहीं है बल्कि उन दोनों के साथ उस महाद्वीप के फुटबॉल की महान प्रतिभाओं की त्रयी भी बनाता है. आप फुटबॉल के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ियों के लिए विश्व भर की परिक्रमा कीजिए और फिर गणेश परिक्रमा की तरह केवल इन तीनों की. परिणाम एक ही होना है. लेटिन अमेरिका की सबसे बड़ी चंद पहचान आख़िर क्या हैं – साम्यवाद, फुटबॉल, कलात्मकता, मादक द्रव्य और आमजन का जीवन संघर्ष ही न! तो लेटिन अमेरिका का माराडोना से बड़ा प्रतिनिधि चरित्र और क्या हो सकता है.

माराडोना संघर्षों को जीता था. उसका जीवन ही संघर्षों से गढ़ा हुआ था. उसे अपने भीतर के चारित्रिक विरुद्धों से ही संघर्ष नहीं करना था बल्कि ग़रीबी और अभावों से ही लड़ना था. शायद संघर्ष उसकी नियति थी. उसे मैदान में भी सबसे कठिन और बहुत ही रफ़ टेकलिंग का सामना करना पड़ा. उसके विरुद्ध विपक्षी डिफेंडर उस पर टूट पड़ते. पर वो संघर्षों से तपा था. किसी भी ताप से झुलस नहीं सकता था. संघर्ष उसके जीवन की नियति थी तो क्लासिक प्रतिद्वंद्विताएँ उसके खेल जीवन की थाती थीं. फिर वो चाहे अर्जेंटीना की ‘सुपर क्लासिको’ हो, स्पेन की ‘एल क्लासिको’ हो या डर्बी डी इटेलिया की ‘डर्बी डेल सोल’ प्रतिद्वंद्विता. उसने 16 साल की उम्र में 16 नम्बर की जर्सी से अपने प्रोफ़ेशनल खेल की शुरुआत की अर्जेंटीनो जूनियर्स से. पर उसका सपना बोका जूनियर्स था. पूरा 1981 में हुआ. बोका से पहला सुपरक्लासिको मैच रिवर प्लेट के ख़िलाफ़ उसी साल 10 अप्रैल को खेला. पहले ही मैच में 3-0 से जीत हुई जिसमें एक गोल माराडोना का था. ये शुरुआत भर थी.

1982 के विश्व कप के बाद वो बार्सिलोना का हिस्सा हो गया तो बोका और रिवर प्लेट,बार्सिलोना और रियाल मेड्रिड में तब्दील हो गए. बस अगर कुछ नहीं बदला तो माराडोना का खेल. उसके खेल का जादू प्रतिद्वंद्वी प्रशंसकों पर भी इस कदर छा गया कि मेड्रिड समर्थकों से तारीफ़ पाने वाला पहला खिलाड़ी बन गया. 1984 में स्पेन से इटली आया नेपल्स में तो ये बार्सिलोना और मेड्रिड की प्रतिद्वंद्विता अब नेपोली बनाम रोमा में तब्दील हो गयी. पर श्रेष्ठता माराडोना की टीम की ही बनी रही. उसने सेरी ए का नेपोली को सिरमौर बना दिया. यहां उसने नेपोली को ही चरम पर नहीं पहुंचाया बल्कि ये ख़ुद माराडोना का भी सर्वश्रेष्ठ समय था.

वो सार्वकालिक फुटबॉल खिलाड़ी की फीफा वोटिंग में कई बार पेले के बाद दूसरे नंबर पर आया. पर बिना किसी संदेह के वो विश्व कप फुटबॉल का सार्वकालिक सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी था. 1986 का विश्वकप इसका प्रमाण है. 1986 में उसने अर्जेंटीना को चैंपियन बनाया. ये उसने अपने दम पर किया. ये टीम से ज़्यादा उसकी अकेले की, उसकी प्रतिभा, उसकी योग्यता की जीत थी. ये उसका अद्भुत प्रदर्शन था. उसने इस प्रतियोगिता में 5 गोल और 5 असिस्ट की और हर मैच में पूरे समय खेला. ये साधारण मानव का एक असाधारण खिलाड़ी के रूप में असाधारण प्रदर्शन था.

दरअसल माराडोना का होना केवल एक महान खिलाड़ी का होना भर नहीं था,बल्कि फुटबॉल खेल की उत्कृष्टता का होना था. उसका होना प्रेरणा का अजस्र स्रोत होना था. उसका होना फुटबॉल के जादुई संसार का होना था. उसका होना फुटबॉल की मुहब्बत में डूब-डूब जाना था. वो था तो फुटबॉल थी, फुटबॉल का खेल था, उसका संसार था, उसका ख़ुमार था. अब वो नहीं है तो क्या ये सब न होगा. होगा, ज़रूर होगा. किसी के जाने से दुनिया थोड़े ही न रुक जाती है. पर यक़ीन मानिए वैसा बिल्कुल नहीं होगा जैसा उसके होने पर होता था.

अलविदा ‘एल पिबे डी ओरो’!

फ़ोटो | विनोद दिवाकरन/ विकीमीडिया कॉमन्स


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