राष्ट्रमंडल खेल | सपनों और उम्मीदों की उड़ान का राउण्डअप
इंग्लैंड के बर्मिंघम शहर में 28 जुलाई से 08 अगस्त तक हुए 22वें राष्ट्रमंडल खेल में 72 देशों के 5054 खिलाड़ियों ने 20 खेलों की 280 स्पर्द्धाओं में भाग लिया. इन खेलों में 67 स्वर्ण पदकों सहित कुल 178 पदकों के साथ ऑस्ट्रेलिया पहले स्थान पर, इंग्लैंड दूसरे और कनाडा तीसरे स्थान पर रहा. भारत की और से कुल 210 खिलाड़ियों ने 16 खेलों में भाग लिया, जिनमें से 106 पुरुष और 104 महिला खिलाड़ी थे. भारत कुल 61 पदकों के साथ चौथे स्थान पर रहा. इन 61 पदकों में 22 सोने के,16 चांदी के और 23 कांसे के पदक शामिल हैं.
आप किसी भी नज़रिये से देखें, भारत का प्रदर्शन कमोबेश वैसा ही है, जैसा कि अब तक भारत करता आया है. इस बार भारत पदक तालिका में चौथे स्थान पर रहा. 2010 में दिल्ली में भारत दूसरे और 2018 में तीसरे स्थान पर था. 2002 में मैनचेस्टर में और 2006 में मेलबर्न में चौथे स्थान पर रहा था. अगर कुल पदकों की दृष्टि से देखा जाए तो भारत ने 2010 दिल्ली में सर्वाधिक 101 पदक जीते थे. 2002 में मैनचेस्टर में 69 पदक, 2018 में गोल्ड कॉस्ट में 66 और ग्लास्गो 2014 में 64 पदक. अगर केवल स्वर्ण पदकों की बात करें तो सर्वाधिक स्वर्ण पदक 2010 नई दिल्ली खेलों में कुल 38 पदक आए. 2002 मैनचेस्टर में 30 स्वर्ण, 2006 मेलबर्न में 22 और 20018 गोल्ड कॉस्ट में 26 स्वर्ण पदक आए थे.
लेकिन जब हम इस बार के प्रदर्शन की तुलना पिछले प्रदर्शनों से करते हैं तो निशानेबाज़ी को ध्यान में रखना चाहिए. यह केवल दूसरा अवसर था कि इन खेलों में निशानेबाज़ी को शामिल नहीं किया गया था. इन खेलों में सर्वाधिक पदक भारत ने निशानेबाज़ी में ही जीते हैं. गोल्ड कॉस्ट में निशानेबाजी में सात स्वर्ण सहित कुल 16 पदक जीते थे. दिल्ली में जीते गए 101 पदक में से 39 पदक उन खेलों से आए थे, जो इस बार बर्मिंघम में शामिल नहीं थे. निशानेबाजी में 30, ग्रीकोरोमन कुश्ती में 7, तीरंदाज़ी में 8 और टेनिस में 4 पदक.
इस बार के खेलों का सबसे बड़ा हासिल एथलेटिक्स में प्रदर्शन रहा. यहाँ एथलेटिक्स में भारत ने 1 स्वर्ण, 4 रजत और 3 कांस्य सहित कुल 8 पदक जीते. स्टीपलचेज में अविनाश मुकुंद साबले का प्रदर्शन विशेष कहा जा सकता है, जिन्होंने इस स्पर्धा पर केन्याई वर्चस्व को तोड़ा. वे विश्व एथलेटिक्स में भी फ़ाइनल तक पहुंचे थे. दरअसल एथलेटिक्स के इस प्रदर्शन को विश्व एथलेटिक्स में भारत के प्रदर्शन की अगली कड़ी के रूप में ही देखना चाहिए. इस बार अमेरिका के यूजीन में आयोजित विश्व एथलेटिक्स प्रतियोगिता में भारत ने एक रजत पदक जीता था और भारतीय एथलीट 6 स्पर्धाओं के फ़ाइनल दौर में पहुंचे. और ये भी कि नीरज चोपड़ा यहां अनुपस्थित थे.
राष्ट्रमंडल खेलों के औचित्य को लेकर अक्सर बात होती है. आलोचकों का मानना है कि ये खेल गुलामी का प्रतीक है. यहां ये बात जानना ज़रूरी है कि जितने भी खेल आयोजन होते हैं उनका स्वरूप भौगोलिक होता है. लेकिन ये ही एकमात्र ऐसे खेल हैं, जिसमें भौगोलिक सीमाओं के पार सभी महाद्वीपों के वे देश शामिल होते हैं जो कभी ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन रहे. सामान्यतः प्रयास यही होता है कि गुलामी के, उपनिवेशवाद के सारे चिह्न मिटा दिए जाएं, लेकिन बहुत से अवशेष उस समाज और राष्ट्र की ज़िंदगी में इतने घुलमिल जाते हैं कि उन्हें मिटाना या ख़त्म करना असंभव हो जाता है. ये माना जा सकता है कि राष्ट्रमंडल खेल भी हमें उपनिवेशवाद और ग़ुलामी की याद दिलाते हैं. लेकिन ये हमारी खेल ज़िन्दगी का अब अहम हिस्सा बन चुके हैं. इसलिए ऐसी आलोचना बेमानी लगती है. फिर आलोचकों के इसी तर्क पर के आधार पर अपनी हर जीत को शासक राष्ट्र के ऊपर श्रेष्ठता भी तो मानी जा सकती है और उसका प्रतिकार भी.
ये भी कहा जाता है कि इस खेल आयोजन में प्रतिस्पर्धा का स्तर ऊंचा नहीं है और इसमें अर्जित सफलता कोई मायने नहीं रखती. लेकिन यहां ये समझना ज़रूरी है कि इस तरह तो राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं को तो छोड़िए महाद्वीपीय प्रतियोगिताएं भी बेमानी हैं. दरअसल प्रतियोगिताओं का, स्पर्द्धाओं का एक अनुक्रम होता है. खिलाड़ी सीढ़ी दर सीढ़ी आगे बढ़ता है और सबसे ऊंची पायदान पर पहुंचने का प्रयास करता है. हर प्रतियोगिता का खिलाड़ी के लिए समान महत्व होता है और उसमें मिली सफलता और असफलता का भी.
सच तो ये हैं कि प्रतियोगिताओं को किसी देश के प्रदर्शन और उसके स्तर और जीत-हार की दृष्टि भर से नहीं देखा जा सकता. जीतने वाले खिलाड़ियों के चेहरे की ख़ुशी और हारने वाले के चेहरे की उदासी को पढ़ेंगे तो पता चलेगा कि किसी खिलाड़ी के लिए इसमें प्रतिभाग का क्या महत्व है. वे सालों-साल इसके लिए कड़ी मेहनत और परिश्रम करते हैं. उसके पीछे उनकी कठिन तपस्या और साधना है. उनके वर्षों से संजोए सपने है, उम्मीदें हैं. और सिर्फ़ उन्हीं के नहीं उनसे कहीं ज़्यादा उनके घरवालों के भी. देश और देशवासियों के तो हैं ही.
खिलाड़ियों की ज़िंदगी के पन्नों को पलटिए. उनके बीते समय को रिवाइंड कीजिए. उनकी पृष्ठभूमि को खंगालिए. तब पता चलता है किसी संकेत महादेव के पिता पान की दुकान से गुज़र बसर करते हैं. किसी पी.गुरुराजा के पिता ट्रक ड्राइवर है. किसी प्रियंका के पिता मामूली से किसान हैं. किसी नवीन के पिता पूरा जीवन बेटे के लिए होम कर देते हैं. किसी ज़रीन का परिवार बेटी की ख़ातिर धर्म को दरकिनार कर देता है. हरियाणा की कोई साक्षी या विनेश या पूजा लड़की होने की विडंबना को सौभाग्य में तब्दील करने की जद्दोजहद करती पाई जाती हैं. कोई 14 साल की अनाहत और 19 साल का ललरिंनुगा अपने अंकुरित होते सपनों को विस्तृत फलक देने के प्रयास में रत मिलेंगे. तो उम्र को धता बताते 40 साल के सौरव घोषाल और 45 साल की पिंकी चौबे उम्र को सिर्फ एक अंक साबित करते मिलेंगे.
पूर्वोत्तर भारत की कोई मीरा बाई चानू, बिदयादेवी, सुशीला देवी अपने अभावों से जूझने के अलावा देश मुख्यधारा में समझे जाने की आकुलता से भी दो-चार हो रही होंगी. कोई भाविना पटेल या सोनलबेन पटेल हिम्मत और जिजीविषा से शारीरिक अक्षमता को बौना साबित कर रही होंगी. और तब ये भी पता चलेगा कि अमूमन ये सारे खिलाड़ी निम्न और निम्न-मध्य वर्ग से आते हैं जिनके लिए खेल केवल खेल नहीं हैं बल्कि ज़िन्दगी हैं.
यहां कठिन भौगोलिक और जातीय द्वंद्वों से जुझता पूर्वोत्तर मिलेगा. दमदार हरियाणा और पंजाब सहित उत्तर मिलेगा. स्किलफुल दक्षिण मिलेगा और सपनों का सौदागर पश्चिम मिलेगा. यहां पूरा का पूरा भारत मिलेगा.
दरअसल इन खिलाड़ियों के लिए खेल केवल हार-जीत नहीं है, पदकों को जीत लेना भर नहीं है बल्कि ज़िन्दगी से दो-दो हाथ कर लेने का सवाल है. खेल और खेल में हार-जीत उनके सपनों, उनकी आकांक्षाओं को उड़ान देने का माध्यम है. खेल उनके अभावों और जीवन संघर्षों को धार देने का साधन हैं.
जब ये खिलाड़ी ट्रैक पर दौड़ लगाते हैं तो अपने दुखों और अभावों को पछाड़ कर आगे बढ़ते हैं. जब वे हवा में छलांग लगाते हैं तो वे नहीं उनके सपने उड़ान भरते हैं. वे फ्लोर पर केवल वजन भर नहीं उठाते, बल्कि अपने कंधों पर आन पड़ी ज़िम्मदारियों का गुरुतर भार भी उठाते हैं. रिंग में वे प्रतिपक्षी से कहीं अधिक सिस्टम को धराशायी करते हैं. और मैट पर प्रतिद्वंद्वी को ही नहीं बल्कि रास्ते के हर अवरोध को चित करने का प्रयास करते हैं.
फिर परिणाम आते हैं. कुछ जीत कर आगे बढ़ जाते हैं कुछ हारकर या तो वहीं रुक जाते हैं या फिर से जद्दोजहद में लग जाते हैं. खेल ऐसे ही चलते रहते हैं और ज़िन्दगी भी.
बर्मिंघम एक पड़ाव भर है.
जो जीते उनको मुबारक. जो नहीं जीते उनको सुनहरे भविष्य के लिए शुभकामनाएं.
अपनी राय हमें इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.
खेल
-
और उन मैदानों का क्या जहां मेस्सी खेले ही नहीं
-
'डि स्टेफानो: ख़िताबों की किताब मगर वर्ल्ड कप से दूरी का अभिशाप
-
मुक्केबाज़ी का मुक़ाबलाः अहम् के फेर में खेल भावना को चोट
-
श्रद्धांजलिः कोबे ब्रायंट की याद और लॉस एंजिलिस की वह ऐतिहासिक पारी
-
ऑस्ट्रेलियन ओपन: जोश पर जीत तजुर्बे की
-
फुटबॉल | पूरा स्टेडियम ख़ाली, सिर्फ़ नवार्रो अपनी कुर्सी पर
-
चुन्नी गोस्वामी | उस्ताद फुटबॉलर जो बेहतरीन क्रिकेटर भी रहे
-
चुनी दा | अपने क़द की तरह ही ऊंचे खिलाड़ी