14वाँ फ़्रेंच ओपन जीतने पर राफा को एक मुरीद का ख़त

एक ख़बर | वह 28 मई 2022 का दिन था. पेरिस के स्टेडियम फ्रांस में चैंपियंस ट्रॉफ़ी का फ़ाइनल लिवरपूल और रियाल मेड्रिड के बीच खेला जा रहा था. उस मैच में रियाल ने लिवरपूल को 1-0 से हराकर 14वीं बार चैंपियंस ट्रॉफ़ी जीती थी. रियाल राफेल नडाल की पसंदीदा टीम है और उस दिन राफा अपनी पसंदीदा टीम का समर्थन करने के लिए वो मैच देख रहे थे. ठीक आठ दिन बाद अपनी पसंदीदा टीम की तरह वे भी 14वीं बार मस्केटियर ट्रॉफ़ी जीत रहे थे. संयोग ऐसे ही होते हैं.

आज शाम रोलां गैरों के फिलिप कार्टियर अरीना में 36 वर्षीय राफेल नडाल अपने से 13 साल छोटे 23 वर्षीय नॉर्वे के कैस्पर रड को बहुत आसानी से 6-3,6-3,6-0 से हराकर अपना 22वां ग्रैंड स्लैम ख़िताब जीत रहे थे. रड अपना पहला ग्रैंड स्लैम फ़ाइनल खेल रहे थे. वे राफा की टेनिस अकादमी के पूर्व छात्र थे. यानी ये गुरु शिष्य के बीच मुक़ाबला था. और गुरु ने बताया कि गुरु, गुरु ही होता है.

इस साल जब जनवरी में राफा ऑस्ट्रेलियाई ओपन खेल रहे थे तो 21 नंबर की चर्चा सबसे ज़्यादा थी. उन्होंने वो नंबर अविश्वसनीय ढंग से प्राप्त किया. लेकिन इस बार 22 से ज़्यादा 14 नंबर महत्वपूर्ण था. 2005 में उन्होंने पहला फ्रेंच ओपन जीता था और वे ग्रैंड स्लैम जीतने वाले सबसे कम उम्र के खिलाड़ी थे. इन 18 सालों में वे 14वां फ्रेंच ओपन जीत रहे थे तो वे सबसे अधिक उम्र फ्रेंच ओपन जीतने वाले खिलाड़ी बन रहे थे. यह अविश्वसनीय है. लेकिन महान खिलाड़ी वही होता है जो असंभव को इतना आसान बना देता है कि अविश्वसनीय उपलब्धि भी साधारण प्रतीत होने लगती है.

दरअसल एक प्रतियोगिता को 18 में से 14 बार जीतना उन्हें टेनिस का ‘गोट’ नहीं बनाती बल्कि सम्पूर्ण खेल जगत का ‘गोट’ भी बनाती है. यह असाधारण उपलब्धि है.

दरअसल लाल मिट्टी पर राफा खेलते नहीं बल्कि वे अपने खेल से किसी राग की बंदिश रचते है, कोई प्रेम में पगा पत्र लिखते है, जादू का कोई खेल दिखाते है और आप हैं कि उसके खेल के सम्मोहन में पड़ जाते हैं.

आज राफा पर क्या लिखना बल्कि उसको लिखना है. एक पत्र राफा के नाम.

एक पाती
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प्रिय राफा,

मैं जानता हूँ कि तुम ‘मस्केटियर ट्रॉफ़ी’ के अनन्य प्रेम में हो. और मैं तुम्हारे खेल के प्रेम में आपादमस्तक डूबा हूँ.

शायद तुम जानते हो प्रेम में दो चीज़ें सबसे अनोखी और ज़रूरी होती हैं जिनकी वजह से प्रेम में सघनता और तरलता दोनों एक साथ बनी रहती है?

एक प्रतीक्षा!

और दूसरा प्रेम-पत्र!

प्रेम में प्रतीक्षाएँ होती हैं. और खूब होती हैं. प्रतीक्षाएँ बेचैनियां पैदा करती हैं. और इन बेचैनियों में अलग सुख है. अपने यथार्थ को तसव्वुर में जीने का सुख. लोग जो प्रेम में हैं,वो समझते हैं कि तसव्वुर में जीना यथार्थ को कितना बेहतर, कोमल और ख़ूबसूरत बना देता है. यह प्रेम को घनीभूत करता, सघन बनाता है.

और प्रेम में पत्र भावनाओं की अभिव्यक्ति को उड़ान देता है. प्रेम में पत्र मन की अंतरतम भावनाओं को ज़बान देता है. पत्र जिसमें भावनाएं किसी नदी की तरह बह निकलती हैं, बारिश की तरह बरसने लगती हैं, ख़ुशबू की तरह महकने लगती हैं, धूप की तरह चमकने लगती हैं. पत्र जो अंतर्मन को भिगो-भिगो देता है. प्रेम में पत्र प्रेम को सूखने से बचाते हैं. उसे बदरंग होने से बचाते हैं. दरअसल ‘प्रेम पत्र’ प्रेम को तरल बनाये रखते हैं.

हम जानते हैं, तुम चाहे दुनिया के किसी भी कोने में खेलते रहो, किसी भी मैदान पर अपने खेल से संगीत के और निसृत करते रहो, प्रतीक्षारत रहते ही हो कि कब वो घड़ी आए कि तुम रोलां गैरों की लाल मिट्टी पर अपने प्रेम के सुर छेड़ सको, ‘मस्केटियर’ को रिझा सको और उसका स्पर्श पा सको. अपने हाथों में उठाकर अपने अंक में समेट सको, उसको चूम सको, उसके प्रेम में रो सको, अपने आंसुओं से बहे प्रेम से उसे सराबोर कर सको. कितनी ख़ूबसूरत होती है न ऐसी प्रतीक्षाएं. तुमसे बेहतर और कौन जान सकता है.

और फिर प्रतीक्षा ख़त्म होती है. तुम किसी पागल दीवाने से रोलां गैरों चले आते हो, अपने रैकेट और बॉल से लाल माटी पर एक ऐसा ख़ूबसूरत प्रेम में पगा पत्र लिखते हो कि उसे बांचने ‘मस्केटियर’ किसी दीवानी-सी तुम्हारे पास चली आती है. यूं उसे रिझाने तो न जाने कितने चले आते हैं. पर तुम-सा संगीत कौन छेड़ पाता है. तुम-सा पत्र लिखने की सलाहियत किसी में कहां आ पाती है. तुम-सा प्रेमी कौन हो पाता है. साल दर साल यही चला होता चला आता है. हैं न.

तुम्हारी तरह हम भी साल भर प्रतीक्षारत रहते हैं. तुम्हारे खेल को जीने की प्रतीक्षा में, लाल मिट्टी पर तुम्हारे खेल के जादू से सम्मोहित होने प्रतीक्षा में, तुम्हारे रैकेट से निकले संगीत को सुनने की प्रतीक्षा में, तुम्हारे प्रेम पत्र को पढ़ने की प्रतीक्षा में, ‘मस्केटियर’ को तुम्हारे हाथों में देखने की प्रतीक्षा में, उसके मिलन से निकले खुशी के आंसुओं में डूब जाने की प्रतीक्षा में, तुम्हें उसे चूमता हुए देखने की प्रतीक्षा में. ये तुम्हारी जीत की गंध इतनी मादक होती है न कि साल भर मदहोशी बनी रहती है.

तुम साल दर साल आते हो और एक प्रेम पत्र लिख जाते हो. तो तुम्हारे खेल के प्रेम में पड़कर इस बार मैंने भी एक चिट्ठी तुम्हारे नाम लिखी है. जानते हो पहली बार बचपन में पहले क्रश को लिखा था ‘तुम बहुत ख़ूबसूरत हो’. दूसरी बार, जवानी में प्रेमिका को लिखा ‘तुम मुझे ख़त लिखना’. तीसरा, जीवन के तीसरे पहर तुम्हारे खेल की दीवानगी में, तुम्हारे नाम ‘तुम-सा कोई नहीं’.

पर इस बार ये दीवानगी चार शब्दों में कहां समा पाएगी. और इस लंबी पाती में भी कहाँ समा पाएगी भला!

तुम जानते हो कितने ही लोग दुनिया भर में कितनी कितनी जगहों पर जाते हैं किसी ख़ास मकसद से. राहुल खोये हुए ज्ञान को खोजने के लिए दुनिया भर की यात्रा करते हैं. असगर वजाहत अपनी जड़ों को खोजने और पांच सौ साल पहले भारत आए अपने पूर्वजों के निशान ढूंढने ईरान के दुर्गम इलाकों की यात्रा करते है. अमृत लाल बेगड़ भक्ति भाव से नर्मदा के सौंदर्य लोक में अवगाहन करने के लिए नर्मदा परिक्रमा करते हैं. ओमा शर्मा अपने अनन्य प्रेरणा स्रोत और गुरु स्टीफेन स्वाइग की आत्मा को महसूसने को ऑस्ट्रिया के चप्पे-चप्पे को छान मारते हैं. मानव कौल खुद को ढूंढने यूरोप की ख़ाक छानते हैं. उधर अनिल यादव पूर्वोत्तर भारत को पूर्वोत्तर भारत में खोजने में बरसों बिता देते हैं. एक अकेली लड़की अनुराधा बेनीवाल ‘एकला चलो’ की तर्ज़ पर बिना संसाधनों के यूरोप भर में भटकती है और दुनिया भर की लड़कियों से घुमक्कड़ बन जाने का आह्वान करती है.

जानते हो राफा ऐसे ही मैं भी दुनिया भर की अनेकानेक जगहों पर जाना चाहता हूँ, उन्हें महसूसना चाहता हूँ. मैं हिसार की उन गलियों को देखना चाहता हूँ, जिनमें साइना ने सारे बंधनों को तोड़कर आकाश में उन्मुक्त उड़ान सीखी. पयोली की मिट्टी को छूकर धन्य होना चाहता हूँ जिसने उषा के पैरों को असीमित गति और शक्ति भरी. मणिपुर के गांव कंगथेई की उस हवा को महसूस करना चाहता हूँ, जिसमें मैरी कॉम के मुक्कों को फ़ौलादी ताक़त मिली. मैं पाकिस्तान में लाहौर के उस ट्रैक को अपनी आंखों से देखने का सुख चाहता हूँ जहां मिल्खा ‘उड़न सिख’ बने थे.

और इंग्लैंड में लॉर्ड्स के मैदान के पवेलियन में भी तो एक बार बैठना बनता है, जिसमें 1983 की जीत ने भारत में एक खेल को धर्म बना दिया और कुआलालंपुर के मरडेका स्टेडियम का एक चक्कर लगाकर दो आँसू भी तो बहाने हैं, जहां भारत के राष्ट्रीय खेल हॉकी का सितारा अंतिम बार चमका.
और जर्मनी में बर्लिन के ओलंपिक स्टेडियम जाकर एक बार गर्व करना चाहता हूँ जहां ध्यानचंद ने हिटलर के ऑफ़र को ठुकराया था.

मैं अर्जेंटीना के सांता-फे प्रान्त में पारणा नदी के पश्चिमी तट के उस सौंदर्य को निहारना चाहता हूँ, जहां मेस्सी और रोजुक्के की प्रेम कथा ने जन्म लिया और अर्जेंटीना के शहर लानुस को भी तो देखे बिना कैसे रहा जाएगा, जहां माराडोना जैसा खिलाड़ी जन्म लेता है. ब्राजील के साओ पाउलो प्रांत के कस्बे बोरु में चाय की चुस्कियों के साथ महसूस करना चाहता हूँ कि कैसे चाय की दुकान पर काम करते हुए पेले ने फुटबॉल के गुर सीखे और दुनिया का महानतम फुटबॉलर बना. और अमेरिका के कैलिफोर्निया के जंगलों में जाकर एक बार ज़ार-ज़ार रोकर कोबे को श्रद्धांजलि देना चाहता हूँ.

दिल मे ऐसी ही हज़ारों ख्वाहिश हैं, जिन्हें पूरा होना है. पर जानते हो राफा अगर ये ख्वाहिश न भी पूरी हों तो बस एक ही ख़्वाहिश रहेगी फ्रांस के शहर पेरिस को देखने की. इसलिए नहीं कि सीन नदी के किनारे बसा पेरिस दुनिया का सबसे सुंदर शहर है, कि वो दुनिया की फ़ैशन राजधानी है, कि रोमन सभ्यता की विरासत के सबसे खूबसूरत अवशेष हैं, बल्कि इसलिए कि ये दो ‘लिविंग लेजेंड्स’ का शहर है. ये मेस्सी का शहर है, राफा का शहर है. इस शहर में ‘पार्क द प्रिंसेस’ इस शहर में रोलां गैरों है. और इन दो जादू घरों में अनंत काल तक के लिए दो जादूगरों के जादू के तिलिस्म में खो जाने की ख़्वाहिश से इतर और कोई क्या ख़्वाहिश हो सकती है.

और ये भी कि अगर इन दोनों में भी किसी एक को चुनना हो तो ‘फिलिफ़ कार्टियर अरीना’ से ख़ूबसूरत चयन क्या हो सकता है. फिलिप कार्टियर अरीना, मैं और तुम्हारे खेल का जादू. इससे बेहतर दुनिया मे और क्या हो सकती है. विंसेंट नवार्रो अपरिसिओ हो जाने की चाहत के अलावा और क्या चाहा जा सकता है. नवार्रो सुपर फैन नवार्रो. जानते हो न. वही नवार्रो जो स्पेनिश फुटबॉल क्लब वेलेंसिया का अनोखा फ़ैन था. वेलेंसिया क्लब का मेम्बर नंबर 18, जो साठ के दशक से अपनी मृत्यु तक लगातार वेलेंसिया के हर मैच में उपस्थित रहा था. सबसे बड़ी बात तो यह कि 54 साल की उम्र में रेटिना डिटैचमेंट की वजह से दृष्टिहीन हो जाने के बावजूद उसने वेलेंसिया का कोई भी मैच नहीं छोड़ा. वो लगातार अपने बेटे के साथ मैच देखता. वेलेंसिया के घरेलू मैदान मेस्तला स्टेडियम के ट्रिब्यूना सेंट्रल सेक्शन की 15वीं पंक्ति की सीट न.164 पर बैठकर अपनी दृष्टिहीनता के बावजूद स्टेडियम के वातावरण और बेटे के आंखों देखे हाल से हर मैच का आनंद लेता. 2017 में वेलेंसिया के उसकी मृत्यु हुई. और तब क्लब ने उसके सम्मान में 2019 में उसकी उस सीट पर उसकी कांसे की मूर्ति स्थापित कर दी.

दस मार्च 2020 को चैंपियंस लीग के प्री-क्वार्टर फ़ाइनल मैच के दूसरे चरण के मैच में वेलेंसिया क्लब अतलांता क्लब को अपने घरेलू मैदान मेस्तला स्टेडियम में होस्ट किया. कोरोना के कारण ये मैच बिना दर्शकों के आयोजित करने का निर्णय लिया गया. लेकिन यह कैसे संभव हो सकता था कि मेस्तला स्टेडियम में नवार्रो उपस्थित न हो. सेंट्रल ट्रिब्यूना सेक्शन की 15वीं पंक्ति की सीट नंबर 164 पर वेलेंसिया टीम का अनोखा दीवाना नवार्रो बैठा था. सच में क्या ही कमाल है उस मैच का नवार्रो एकमात्र दर्शक था, जो अकेले किसी राजा की तरह उस मैच का आनंद ले रहा था.

मैं भी नवार्रो की तरह एकांत में उस अद्भुत संगीत का आनंद लेना चाहता जो तुम अपने खेल से रचते हो. जब तुम लाल बजरी पर लय में खेलते हो तो वो किसी राग की बंदिश से कम कहाँ होता है. ऐसी बंदिश जिसके सम्मोहन में एक बार बंध जाएं तो फिर कभी मुक्त ही न होना चाहें. कितनी बंदिशें तुमने उस अरीना में बिखरे दी हैं, जो अब हमेशा के लिए रोलां गैरों में कोने-कोने में व्याप गई होंगी, जिन्हें आने वाले अनंत काल तक सुना जा सकता है.

इस बार तुम यहाँ आये तो आये. आगे शायद तुम न आ पाओ. समय हाथों से फिसल रहा है. जब तुम कहते हो कि 22वां ख़िताब क़ुर्बान करके तुम नया पैर लेना चाहोगे तो समझ में आता है, तुम्हारी चोटों का क्या हाल है.

तुम्हें तुम्हारा ये प्यार मुबारक. यह जीत मुबारक.

तुम्हारा प्रशंसक

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