मंगलवार , 2  दिसंबर  2025

रिपोर्ट



लेखक विचारक हो गया तो दूसरों की नहीं, अपनी ही कहेगा : शिवमूर्ति

  • 23:35:PM
  • 31 October 2025

नई दिल्ली | लेखक विचारक नहीं हो सकता. अगर वह विचारक हो गया तो दूसरों की न सुनेगा, न कहेगा, वह अपनी ही कहेगा. लेखक जैसा होता है, उसका कुछ अक्स उसके पात्रों में दिख ही जाता है. मेरा मानना है कि ख़ुद को आदमी बनाने की जो गति पहले थी, वह मंद हुई है. अब वह विपरीत दिशा में जा रही है. पहले लगता था कि आदमी आदमी बन रहा है, लेकिन अब यह लगने लगा है कि आदमी को आदमी बने रहने में ही मुश्किलात बढ़ गई हैं.

समकालीन हिन्दी साहित्य के प्रतिनिधि कथाकार शिवमूर्ति ने यह बातें अपने रचनाकर्म पर हुई बातचीत के दौरान कही. यथार्थवादी आँचलिक कहानियों के लिए पहचाने जाने वाले शिवमूर्ति अपने जीवन के 75वें वर्ष में हैं. उनकी रचनाएँ भारतीय ग्रामीण समाज के उस हिस्से का सच बयान करती हैं, जो बदलते समय में उपेक्षित होते हुए भी देश की आत्मा को जीवित रखे हुए है.

इसी रचनात्मक विरासत का उत्सव मनाने के लिए राजकमल प्रकाशन ने 31 अक्टूबर की शाम इंडिया इंटरनेशनल सेंटर (एनेक्सी) में ख़ास कार्यक्रम ‘उपलक्ष्य–75’ का आयोजन किया. इस कार्यक्रम में इतिहासकार व संपादक रविकांत और कथाकार चन्दन पाण्डेय ने शिवमूर्ति से उनके रचनाकर्म पर संवाद किया, वहीं दिलीप गुप्ता के निर्देशन में साइक्लोरामा नाट्य समूह के कलाकार गौरव कुमार, अन्नुप्रिया और तुषार ने ‘अगम बहै दरियाव’ और ‘केशर कस्तूरी’ के अंशों की संगीतमय पाठ-प्रस्तुति दी. कार्यक्रम का संचालन तसनीफ़ हैदर ने किया.

बातचीत के दौरान शिवमूर्ति ने कहा, केवल कल्पना के बूते पर आप उतना चटक किरदार नहीं खड़ा कर सकते. मैं अपने आसपास जो देखता-सुनता हूँ, उन्हीं कहानियों को लिखता हूँ. मेरी रचनाओं में जितने भी पात्र आए हैं, उनसे मैं कभी न कभी मिला हूँ. उन्होंने बताया कि इन दिनों वे आत्मकथात्मक लेखन कर रहे हैं, जिसे पाठक उनकी अगली किताब के रूप में पढ़ पाएँगे.

लेखन प्रक्रिया से जुड़े सवाल पर शिवमूर्ति ने कहा, लेखन कैसे होता है यह बता पाना बहुत मुश्किल है. रचना-प्रक्रिया हर किसी की अलग होती है. अलग-अलग जगहों, घटनाओं और अनुभवों से जो कुछ भी मन में संचित होता जाता है, वही आगे चलकर रचना का रूप लेता है. जब मैं लिखने बैठता हूँ, तो दिमाग़ अपने आप ही उन देखी-सुनी चीज़ों को जोड़ने लगता है. मुझे जहाँ से जो अनुभव मिलता है, उसे मैं अपने ‘कबाड़खाने’ में डालता जाता हूँ, और जब उन्हें जोड़ता हूँ तो वह रचना बन जाती है. मेरी भूमिका बस इतना भर है कि मैं उन तत्वों को जोड़ दूँ, जो पहले से प्रकृति ने दे रखे हैं.

उन्होंने कहा कि मैं जब लिखता हूँ तो केवल कहानी और उसकी पठनीयता पर ध्यान देता हूँ, मेरी कोशिश रहती है कि उसकी व्यावहारिकता बनी रहे.

    कथाकार शिवमूर्ति का अभिनंदन करते राजकमल प्रकाशन समूह के अध्यक्ष अशोक महेश्वरी.

रविकांत ने कहा कि शिवमूर्ति की कोई भी रचना ऐसी नहीं होती जिसमें लोकरंग न आए. उनकी हर कहानी अपने समय और समाज की गंध लिए होती है. वहीं चन्दन पाण्डेय ने कहा कि शिवमूर्ति ने वास्तविक जीवन से उठाए गए पात्रों को इतना सजीव रूप दिया कि वे हमारे समाज की सामूहिक स्मृति का हिस्सा बन गए. उनका साहित्य संवैधानिक नैतिकता और सामाजिक नैतिकता के द्वंद्व को सबसे प्रभावशाली ढंग से उजागर करता है. जीवन की कठिन सचाइयों को उन्होंने जिस सहजता और करुणा के साथ रूपायित किया, वही उन्हें अपने समय के सबसे मानवीय लेखक बनाता है.

इससे पहले, स्वागत वक्तव्य में राजकमल प्रकाशन समूह के अध्यक्ष अशोक महेश्वरी ने कहा, शिवमूर्ति हिन्दी के उन विरले रचनाकारों में हैं, जिनकी हर रचना वास्तविक पात्रों के इर्द-गिर्द बुनी हुई होती है. ग्रामीण जीवन का इतना सटीक और सजीव चित्रण समकालीन लेखकों में कम ही दिखाई पड़ता है. कोई पाठक जब इनकी रचनाओं को पढ़ता है तो बहुत दिनों तक उस पर कहानी का असर बना रहता है.

यह आयोजन राजकमल प्रकाशन की विशेष कार्यक्रम शृंखला ‘उपलक्ष्य 75’ की दूसरी कड़ी है. यह उन प्रतिष्ठित लेखकों को समर्पित है जो इस वर्ष अपने जीवन के 75 वर्ष पूरे कर रहे हैं. ऐसे अनेक लेखक जिनके साहित्यिक अवदान से हिन्दी समाज भलीभाँति परिचित है, यह आयोजन शृंखला उनकी रचनात्मक यात्रा को रेखांकित करने का प्रयास है.

(विज्ञप्ति)




मिथ्यासुर | धर्म और राजनीति के मेल से धुंधलाया सत्य-मिथ्या का भेद

  • 23:48:PM
  • 11 October 2025

बरेली | संहिता मंच की पहल ने बहुतेरे लोगों का यह भ्रम तोड़ने का काम ज़रूर किया है कि मंचन के लिए नए नाटकों की बहुत कमी है, कि नए नाटक नहीं लिखे जा रहे हैं. नई पीढ़ी के लोग तमाम भारतीय भाषाओं में नाटक लिख रहे हैं, बढ़िया और दमदार लिख रहे हैं और अपने समय को सलीक़े से दर्ज भी कर रहे हैं. विंडरमेयर थिएटर में बीइंग एसोसिएशन के संहिता मंच 25 नाट्य उत्सव में शामिल तीन नाटकों ने यह बात ज़ोरदार ढंग से रेखांकित की है.

उत्सव के दूसरे दिन उजागर ड्रामैटिक एसोसिएशन और वेद सत्पथी के नाटक ‘मिथ्यासुर’ का मंचन हुआ. यह नाटक मानवताके विकास में कथा-कहानियों के महत्व, राजसत्ता, और धर्म की आड़ लेकर फैलाए गई अज्ञानता के साथ ही हक़ीक़त, तार्किकता, विज्ञान, सत्य और मिथ्या के जटिल संबंधों की मुखर अभिव्यक्ति है. प्रणय पांडे का लिखा यह नाटक अजीत सिंह पलावत ने निर्देशित किया है.

‘मिथ्यासुर’ 18वीं सदी के हिंदुस्तान में केंद्रित कथा है. यह ज़िंदगी के सफ़रनामे की ऐसी मीमांसा है, जिसमें सत्य और मिथ्या पड़ाव के रूप में सामने आते हैं. एक प्राचीन मंदिर का राजपुराहित सोमदेव अपने आराध्य दैत्यराज कुम्भ का उपासक है. यह कुम्भ कोई मामूली दैत्य नहीं. यह तो सोमदेव के सपने में आकर राजसत्ता पर नियंत्रण रखता है, राजा तक पर उसका प्रभाव है. यह दैत्य नाराज़ होता है, तो ख़ुश होने के लिए नरबलि माँगता है. फिर अचानक दैत्य सोमदेव के सपनों से ग़ायब हो जाता है. ऐसे में राज्य का कामकाज भला कैसे चलता? और यही वह वक्त था, जब ईस्ट इंडिया कंपनी की फ़ौज सरहद तक चढ़ी चली आई थी और राजा को जंग शुरू करने के लिए दैत्यराज की इजाज़त दरकार थी. इस नाज़ुक मौक़े पर नाटक राजपुराहित सोमदेव और तर्क और विज्ञान पर यक़ीन करने वाली राजकुमारी रेवती के बीच द्वंद्व के ज़रिये सत्य और मिथ्या के बीच खिंची रेखा की तलाश करता है.


नाटक में अर्पित शाश्वत ने सोमदेव, साहिल आहुजा ने दैत्यराज, अनिष्का सिंह ने रेवती, अभिनंदन गुप्ता ने सुरजन, शुभम पारीक ने राजा धर्मपाल, अभिनय परमार ने अखंड, भास्कर शर्मा ने राजदूत की भूमिका निभाई. मंच पर सहयोगी कलाकारों में विजय पाटीदार, प्रतीक्षा कोते, अतिशय अखिल, अनिमेष विनोद पत्थे शामिल रहे. वाद्य यंत्रों पर अनिमेष विनोद पत्थे, अतिशय व अखिल रहे, वेशभूषा और मंच परिकल्पना इप्शिता चक्रवर्ती सिंह, संगीत परिकल्पना मोहित अग्रवाल, प्रकाश परिकल्पना आदित्य, नृत्य संरचना रजनीश चाक्यार, माधव चाक्यार, मुखसज्जा रितु शर्मा ने की. सह-निर्देशन इप्शिता चक्रवर्ती सिंह ने किया.

दया दृष्टि चैरिटेबल ट्रस्ट के अध्यक्ष डॉ. बृजेश्वर सिंह ने बताया कि उत्सव के तीसरे और आख़िरी दिन इतवार को बंगलूरु की संस्था ‘कहे विदूषक’ के कलाकार ‘रोमियो एंड शकुंतला’ प्रस्तुत करेंगे. उत्सव के बाद सोमवार की शाम को ‘वेटिंग फॉर नसीर’ का मँचन होगा. सभी नाटक शाम 7.30 बजे से होंगे.




आज़ादी के गीतों से सजी सहमत की एक शाम

  • 19:59:PM
  • 7 October 2025

नई दिल्ली | यहाँ आयोजित संगीत समारोह ‘सॉन्ग्ज़ ऑफ़ फ़्रीडम – आज़ादी के गीत’ में सुमंगला दामोदरन ने दिल खोलकर गाया. यह कार्यक्रम संभवतः 1857 से लेकर आज तक के प्रतिरोध, क्रांति, संघर्ष और भारतीय आज़ादी आंदोलन के गीतों का सबसे प्रभावशाली और वैविध्यपूर्ण संग्रह था. उन्होंने जलियाँवाला बाग कांड से लेकर टैगोर, गांधी, बंगाल के अकाल, मुल्क के बंटवारे और दिल्ली दंगों के दर्द और जन-भावनाओं को अपने गीतों के मार्फ़त अभिव्यक्त किया, और गाज़ा के प्रति एकजुटता भी दिखाई.

सुमंगला ने जलियाँवाला बाग हत्याकांड के बाद एक गुमनाम कवि के लिखे हुए गीत “दिन ख़ून के” (हिंदुस्तानी) से कार्यक्रम की शुरुआत की; मूल रूप से 1940 के दशक की शुरुआत में इप्टा बॉम्बे सेंट्रल स्क्वॉड में प्रीति सरकार ने यह गीत गाया था. 1919 के जलियाँवाला हत्याकांड से, वह 20 सितंबर 1933 की ओर चली आईं, जब महात्मा गांधी पुणे में ‘आमरण अनशन’ पर थे. रवींद्रनाथ टैगोर महात्मा से मिलने गए और उनसे अपना अनशन तोड़ने का अनुरोध किया. उनके इस आग्रह के बाद, गांधी ने टैगोर से अपना एक गीत गाने को कहा—और वह बांग्ला गीत था “जीबोन जोखोन…”—सुमंगला ने जिसे सौम्य बांग्ला लहजे में डूबकर गाया.

इसके बाद “वझगा नी एम्मान” (मलयालम) नाम का एक गीत था, जो मूल रूप से सुब्रमण्यम भारती की एक कविता थी, जिसे उन्होंने महात्मा गांधी को तब पढ़कर सुनाया था, जब मद्रास में सी. राजगोपालाचारी के घर दोनों की मुलाक़ात हुई थे. सुमंगला के अगले गीत ने श्रोताओं को हैरान कर दिया, जब उन्होंने एक हरे तोते के लिए एक किसान लड़की का प्रेम गीत गाया. यह गीत, “पच्चप्पनमत्तते” (मलयालम) मूल रूप से पी.के. मेदिनी ने गाया था, जो अब 90 वर्ष की आयु पार कर चुकी हैं और राजनीतिक रूप से अब भी सक्रिय हैं.
शीला भाटिया की रची हुई हीर (पंजाबी) गाकर उन्होंने सुनने वालों को हैरानी के समंदर में गोते लगाने के लिए छोड़ दिया. 1943 में बंगाल दुर्भिक्ष के दिनों में जन जागरूकता फैलाने की मंशा से इसे लाहौर में किसान सभा की ओर से आयोजित रैली में गाया गया था. उनकी आवाज़ के सोज़ और क्रंदन ने अकाल की मानवीय त्रासदी और दुःखद पंजाबी प्रेम कहानी को बख़ूबी व्यक्त किया.

एहसान अली

इसके बाद मख़दूम मोहिउद्दीन द्वारा द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान लिखा गया गीत “जाने वाले सिपाही से पूछो…” (हिंदी) एक और मार्मिक रचना थी. यह गीत तब लिखा गया था, जब कवि ने ग़रीब किसानों को युद्ध के लिए जाने वाली ब्रिटिश सेना में शामिल होने के लिए जुटते हुए देखा था. परचम समूह ने देश में सिख विरोधी नरसंहार के बाद 1984 में इस गीत को पुनर्जीवित किया था. सुमंगला ने एक और लोकप्रिय भोजपुरी गीत “अजादिया” गाया, जिसे जेएनयू के एक क्रांतिकारी कवि गोरख पांडे ने लिखा था, और जिन्होंने 1988-89 के आसपास अपनी जान दे दी थी. दुष्यंत कुमार की एक और मार्मिक कविता सुमंगला ने इतने जोश के साथ गाई कि गाने में श्रोता भी उनके साथ शरीक हो गए. “हो गई है पीर पर्वत सी…”, यह किसी भी मौक़े पर किसी भी सुनने वाले को भाव-विह्वल कर देने वाली ग़ज़ल है.

बात जब संघर्ष, क्रांति, प्रतिरोध और आज़ादी की हो रही हो, तो फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की आवाज़ भला कैसे छूट सकती है. इसके बाद, शाम के दूसरे और आख़िरी कार्यक्रम में, फ़ैज़ की सदाबहार नज़्म “अब तुम ही कहो क्या करना है, अब कैसे पार उतरना है…” थी, जिसे उन्होंने बेरूत में लिखा था और अपने आख़िरी संग्रह में यासर अराफ़ात को समर्पित किया था.

सहमत की ओर से आयोजित “स्वतंत्रता के गीत” संध्या का समापन गीत “बालिकुदेरंगले” (मलयालम) था. केरल पीपुल्स आर्ट्स क्लब ने यह गीत 1957 में, पहली कम्युनिस्ट सरकार के सत्ता में आने के तुरंत बाद, तैयार किया था. इसे 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों को श्रद्धांजलि स्वरूप गाया गया था. इस गीत में सुमंगला के साथ क्लब के कुछ सदस्य भी शामिल हुए.

सुमंगला के साथ गिटार पर मार्क अरन्हा और सारंगी पर एहसान अली ने संगत की. उन्होंने हिंदुस्तानी, भोजपुरी, बांग्ला, तमिल, पंजाबी और मलयालम में गायन किया.

सुमंगला दामोदरन एक अर्थशास्त्री और लोकप्रिय संगीत-अध्ययन की विद्वान हैं. वह संगीतकार और रचनाकार भी हैं, जिन्होंने भारतीय प्रतिरोध संगीत परंपराओं का संग्रह और लेखन किया है. एक विकास अर्थशास्त्री के रूप में, उनके शोध का क्षेत्र और लेखन, मुख्यतः औद्योगिक और श्रम अध्ययन, और विशेष रूप से औद्योगिक संगठन, वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं, अनौपचारिक क्षेत्र, श्रम और प्रवासन, के बारे में हैं. अपनी अकादमिक व्यवस्ताओं के अलावा, वह एक गायिका और संगीतकार भी हैं.

फ़ोटो क्रेडिट | राजिंदर अरोड़ा



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