वह इस दुनिया के ज़िंदा ताजमहल थे

वह अपनी मोहिनी सूरत की कशिश, अलग रंग की हाज़िर जवाबी, अपनी आंखों की मुरव्वत, अपने लहजे की मिठास, अपनी ग़ुफ़्तगू की मौसिक़ी, अपनी मुस्कुराहट के सुकून, अपने ख़ानदान की इज़्ज़त, अपने दिल की आसमान की सी बेइंतहा गुंजाइश, अपने मिज़ाज और अपने किरदार की बेनज़ीर शराफ़त के ऐतबार से एक ऐसे इंसान थे, जो इस ज़मीन पर सदियों के बाद पैदा होते है और यह आवाज़ बुलंद कर सकते हैं कि-

मत सहल हमें समझो, फिरता है फ़लक बरसों
तब ख़ाक के पर्दे से इंसान निकलते हैं..

वह इस दुनिया के एक ऐसे ज़िंदा ताजमहल थे, जिसको अवध की सलोनी शाम और बनारस की ख़ूबसूरत सुबह मिलाकर इलाहाबाद के गंगा-जमुनी संगम पर छेनियों से तराश कर तामीर किया गया था. उनका वजूद हिंदुस्तान का ग़ुरूर था. उनके किरदार में दूसरों के भले की सोच थी और आलमे-इंसानियत का ऐतबार था. इससे पहले 2-3 मौक़ों पर उनका ज़िक्र कर चुका हूं. इसलिए उनके बारे में जो बातें बयान करने से रह गई हैं, सिर्फ़ वही बयान करूंगा. एक बार यह सुन कर कि वह कुंभ के मेले में शामिल होने को इलाहाबाद गये थे, मेरे तन-बदन में आग लग गई. मैं ग़ुस्से में भरा उनके पास गया और कहा, ‘ब्रूटस’? उन्होंने बड़ी हैरत से पूछा, ‘क्यों भाईसाहब, मैंने वह कौन-सी भरोसे के खि़लाफ़ बात की है कि आप मुझे ब्रूटस कह रहे हैं.’ मैंने कहा, ‘पंडित जी, आप तो बहुत बढ़-चढ़ कर यह दावा किया करते थे कि दुनिया के किसी मज़हब से भी मेरा कोई ताल्लुक़ नहीं है और इसके बावजूद सुनता हूं कि आप कुंभ के मेले में वहम के शोले को हवा देने की ख़ातिर इलाहाबाद तशरीफ़ ले गये थे.’ उन्होंने कहा, ‘अगर मैं वहां पुजारी की हैसियत से जाता तो आपको हक़ था कि मुझ पर ऐतराज़ करते, लेकिन मैं तो अवाम के मिज़ाज पर तवज्जो देने के लिए वहां गया था.’ मैंने कहा, ‘जी नहीं, आप वहां गये थे अपने वोटों की ख़ातिर, आम राय को मुतासिर करने के लिए.’ अभी वह जवाब देने के लिए अपने लबों को खोल ही रहे थे कि डॉ. काटजू आ गये. पंडित जी ने उनसे कहा, ‘मिस्टर काटजू, मुझ पर जोश साहब ऐतराज़ कर रहे हैं कि मैं कुंभ के मेले में क्यों गया था.’ काटजू ने कहा, ‘यह तो ख़ैर मेले की बात है. एक दिन मुझे पूजा करते देख कर जोश साहब ने मुझसे यहां तक कहा था कि काटजू साहब आप बालिग़ हो जाने के बावजूद पूजा करते हैं और जब मैंने इनसे पूछा था कि पूजा करना कोई बुरी बात है? तो इन्होंने कहा था कि यह ऐसी बुरी बात है कि इसे देख कर कभी यह भी हो सकता है कि सोच रखने वाले किसी आदमी के दिल पर ऐसी गहरी चोट लग जाए और वह फ़ौरन तड़प कर मर जाए.’ यह सुन कर पंडित जी ने क़हक़हा मार कर यह कहा, ‘जहां तक पूजा का ताल्लुक़ है, मैं भी जोश साहब का हमख़्याल हूं और इस पर काटजू का मुंह लटक कर रह गया था.

दरअसल, शेक्सपिय़र ने अपने ड्रामे ‘जूलियस सीज़र’ में लिखा है कि सीज़र ने जब यह देखा कि उसका सबसे बड़ा जां निसार फ़लसफ़ी दोस्त ब्रूटस भी उस पर क़ातिलाना हमला करने वालों की सफ़ में खड़ा हुआ है तो ज़मीन उसके पांव के नीचे से निकल गई और बेहद हैरत से उसने ‘तुम भी ब्रूटस’ की आवाज़ निकाल कर अपनी तलवार फेंक दी और यह ख़्याल करके कि जब मेरा ऐसा जिगरी दोस्त और इस क़दर अक़्लमंद इंसान भी मेरे ख़िलाफ़ हो गया है तो इसके सिवा और इसके और कोई मायने हो ही नहीं सकते कि मुझमें कोई न कोई ऐसा ज़बरदस्त ऐब ज़रूर मौजूद है, जिससे मेरी क़ौम और मेरे मुल्क को नुक़सान पहुंच सकता है, उसने अपनी गर्दन झुका ली और ख़ुद को क़त्ल हो जाने के लिए पेश कर दिया.

हिंदुस्तान के बंटवारे के फ़ौरन बाद सरदार पटेल ने उस वक़्त के दिल्ली के मुसलमान चीफ़ कमिश्नर को जो अलीगढ़ के साहबज़ादा आफ़ताब अहमद ख़ां के बेटे थे, मुअत्तल तो नहीं किया था, मगर ज़बानी हुक्म के ज़रिये उनके तमाम इख़्तियार छीन कर उस वक़्त के डिप्टी कमिश्नर मिस्टर रंधावा के सुपुर्द कर दिये थे और बड़ी धूमधाम के साथ मुसलमान लूटे और क़त्ल किये जा रहे थे. उस भयानक दौर में अगर जवाहर लाल खुल कर मैदान में न आते और ख़ौफ़नाक गलियों में घुस-घुस कर और हिंदुओं के मुंह पर थप्पड़ मार-मार कर वह उस आग को न बुझा देते, तो दिल्ली में एक मुसलमान भी ज़िंदा न रहता. उसी ज़माने का यह भी एक वाक़िया है कि दिल्ली के सूईवालान मुहल्ले में हिंदू जब एक मस्जिद के दरवाज़े से बाजा बजाते गुज़र रहे थे और मुसलमानों ने उनको मार भगा दिया था, तो शहर के हिंदू कोतवाल ने चौराहे पर खड़े होकर मुसलमानों को मां-बहन की गालियां दी थीं और जब मुझे इस बात की ख़बर दी गई थी मैंने एक काग़ज़ पर लोगों के दस्तख़त ले लिए और उनसे जाकर कहा था कि पंडित जी, इस ख़ता पर कि मुसलमानों ने क़ानून तोड़ा था, उन पर मुक़द्दमा तो चलाया जा सकता था और उनकी गिरफ़्तारियां भी अमल में लाई जा सकती थीं. मगर शहर के कोतवाल को इस बात का कोई हक़ हासिल नहीं था कि वह तमाम मुसलमानों को चौराहे पर खड़े होकर मां-बहन की गालियां देता. उन्होंने कहा, ‘आपके पास इसका क्या सबूत है.’ मैंने कहा, ‘मैं अभी वहीं से आ रहा हूं, आप इस काग़ज़ को देख लें, जिस पर हिंदुओं के भी दस्तख़त हैं. काग़ज़ पढ़ कर वह ग़ुस्से में कांपने लगे और इंस्पेक्टर जनरल पुलिस को उसी वक़्त फोन पर हिदायत दी कि कोतवाल को फ़ौरन मुअत्तल करके इसकी तहक़ीक़ात करो और मुझे इत्तिला दो.

उनको उर्दू ज़बान से भी बड़ी मुहब्बत थी. उन्होंने मुझसे एक दिन कहा था कि ‘उर्दू के बारे में मेरी ज़ाती राय और है और मेरी गवर्नमेंट की राय और है, लेकिन मैं गवर्नमेंट पर अपनी राय थोपना नहीं चाहता. इसलिए कि यह काम जम्हूरियत (लोकतंत्र) के ख़िलाफ़ है.’ एक रोज़ लखनऊ जंक्शन पर उन्होंने रेलवे अफ़सरों को बुला कर बहुत बुरी तरह फटकार कर कहा था, ‘आप लोगों ने मुझको निरा जाहिल बना कर रख दिया है. हर तरफ़ हिंदी के बोर्ड लगे हुए हैं. कुछ पता नहीं चलता यह खाने का कमरा है या लेवेटरी (शौचालय). एक बार जब पाकिस्तान से रुख़सत लेकर मैं जब दिल्ली में उनसे मिला, तो उन्होंने बड़े तंज़ के साथ मुझसे कहा था कि जोश साहब, पाकिस्तान को सलाम. यह मुल्क़ इस्लामी तहज़ीब और इस्लामी ज़बान यानी उर्दू की बेहतरी, उसकी हिफ़ाज़त के लिए बनाया गया था, लेकिन अभी कुछ दिन हुए कि मैं पाकिस्तान गया और वहां यह देखा कि मैं तो शेरवानी और पाजामा पहने हुए हूं, लेकिन वहां की गवर्नमेंट के तमाम अफ़सर सौ फ़ीसद अंग्रेज़ों का लिबास पहने हुए हैं. मुझसे अंग्रेज़ी में बात की जा रही है और इंतेहा यह है कि मुझे अंग्रेज़ी में लेक्चर भी दिया जा रहा है. मुझे इस सूरते-हाल से बेहद सदमा हुआ और मैं समझ गया कि उर्दू, उर्दू, उर्दू के जो नारे हिंदुस्तान में लगाये गये थे, वह सारे ऊपरी दिल से और खोखले थे. लेक्चर के बाद जब मैं खड़ा हुआ तो मैंने उसका उर्दू में जवाब देकर सबको हैरान, शर्मिंदा कर दिया और यह बात साबित कर दी कि मुझको उर्दू से उनके मुक़ाबले में कहीं ज़्यादा मुहब्बत है. और जोश साहब, माफ़ कीजिएगा. आपने जो उर्दू के वास्ते अपने वतन को छोड़ दिया है, उसी उर्दू को पाकिस्तान में कोई मुंह नहीं लगाता और जाइए पाकिस्तान.’ मैंने शर्म से आंखें नीची कर लीं. उनसे तो कुछ नहीं कहा, लेकिन उनकी बातें सुन कर मुझे यह वाक़िया याद आ गया. मैंने पाकिस्तान के एक बड़े शानदार मिनिस्टर साहब को जब उर्दू में ख़त लिखा और उन साहब बहादुर ने जवाब अंग्रेज़ी में दिया तो मैंने उनके जवाब में यह लिखा था कि ‘जनाबे-वाला, मैंने तो आपको मादरी ज़बान में ख़त लिखा, लेकिन आपने उसका जवाब अपने बाप की ज़बान में तहरीर फ़रमाया है.’

अब चंद वाक़ियात उनकी अदब नवाज़ी, उनकी गै़रमामूली, बेमिसाल शराफ़त के भी सुन लीजिए. जब मैं सरकारी रिसाले ‘आजकल’ में मुक़र्रर हो गया, तो मैंने उनको ख़त लिखा कि मेरे रिसाले के लिए अपना पैग़ाम जल्द भेज दीजिए. अगर आप सुस्ती से काम लेंगे तो मेरी आपकी ज़बरदस्त जंग हो जाएगी. एक हफ़्ते के अंदर उनका पैग़ाम आ गया (इसको ‘आजकल’ की फ़ाइल में देखा जा सकता है). अपने पैग़ाम के आखि़र में उन्होंने यह भी लिखा था कि मैं जल्दी में पैग़ाम इसलिए भेज रहा हूं कि जोश साहब ने मुझको धमकी दी है कि अगर देर हो गई तो वह मुझसे लड़ पड़ेंगे.’ जब मैंने उनके पैग़ाम के शुक्रिया में उनको ख़त लिखा तो दबी ज़बान में यह शिकायत भी कर दी कि आपने मेरे ख़त का जवाब ख़ुद अपने हाथ से लिखने के एवज़ सेक्रेटरी से लिखवाया है. मेरे साथ आपको यह बर्ताव नहीं करना चाहिए था.’ और उनकी शराफ़त देखिए कि मेरी इस शिकायत पर उन्होंने ख़ुद अपने हाथ से मुझको लिखा, ‘काम के हुजूम की बिना पर मैं सेक्रेटरी से ख़त लिखवाने पर मजबूर हो गया था. आप मेरी इस ग़लती को माफ़ करें.’

एक बार मैं उनके यहां पहुंचा तो देखा कि वह दरवाज़े पर खड़े क़िदवई साहब से बातें कर रहे हैं. जैसे ही मैंने बरामदे में क़दम रखा और उनसे आंखें चार हुईं तो वह एक सेकंड के अंदर वहां से भाग गये. मैंने क़िदवई साहब से कहा, ‘मैं तो अब यहां नहीं ठहरूंगा. आप पंडित जी से कह दीजिएगा कि लीडरी और प्राइम मिनिस्टरी को लीडरी और प्राइम मिनिस्टरी की हद तक ही रखें. इसको इस क़दर न बढ़ायें कि वह बादशाही से टक्कर लेने लगे.’ क़िदवई साहब ने मुस्कुरा कर पूछा, ‘किस बात पर आप इस क़दर बिगड़ रहे हैं?’ मैंने कहा, ‘अरे आप अभी तो ख़ुद देख चुके हैं कि मेरे आते ही वह भाग खड़े हुए. मिज़ाज पूछना तो बड़ी चीज़ है, उन्होंने मुझे पहचाना तक नहीं.’ इतने में जवाहर लाल आ गये. मैं मुंह मोड़ कर खड़ा हो गया. उन्होंने कहा, ‘जोश साहब, मामला क्या है?’ क़िदवई साहब ने सारा माजरा बयान कर दिया. वह मेरे क़रीब आये और मुझसे कान में कहा कि मुझे इस क़दर ज़ोर से पेशाब आ गया था कि अगर एक मिनट की भी देर हो जाती, तो पायजामे में ही निकल जाता.’ यह बात सुन कर मैंने उन्हें गले लगा लिया.

एक बार कुंवर महेंद्र सिंह बेदी ने मुझसे कहा, ‘मेरे वज़ीर श्री सच्चर ने दिल्ली से मेरा तबादला कर दिया है.’ मैंने कहा, ‘यह श्री सच्चर हैं या मिस्टर ख़च्चर.’ वह हंसने लगे, कहा, ‘क्या ख़ूब क़ाफ़िया मिलाया है. ख़ैर, मैं आपसे यह कहने आया हूं कि आप और बेगम पटौदी दोनों मिल कर पंडित जी के पास जाएं और मेरा तबादला रुकवा दें.’ दूसरे ही दिन हम दोनों प्राइम मिनिस्टर हाउस पहुंचे. अपने आने की इत्तिला की, बेगम पटौदी को फ़ौरन बुला लिया गया और मैं मुंह देखता रह गया. जवाहर लाल के इस बर्ताव पर मुझे ताव आ गया और यह सोच कर मैं यहां से इसी वक़्त चला जाऊंगा और उनसे फिर कभी न मिलूंगा, मैं उठा ही था कि उनके सेक्रेटरी प्यारे लाल साहब आ गये. उन्होंने मेरी तरफ़ निगाह उठा कर कहा, ‘बात क्या है जोश साहब? इस क़दर ज़ोर से पानी बरस रहा है और आप आग-बगूला बने खड़े हैं.’ मैंने उनसे सारा माजरा बयान करके कहा, ‘अब मैं यहां नहीं ठहरने का.’ प्यारे लाल साहब ने कहा, ‘आप सिर्फ़ 2 मिनट मेरी ख़ातिर ठहर जाएं’, मैं ठहर गया. वह सीधे उनके कमरे में दाखि़ल हो गये और 2 मिनट के अंदर-अंदर मैंने यह देखा कि वह मुस्कुराते चले आ रहे हैं. मेरे क़रीब आते ही उन्होंने कहा, ‘जोश साहब, आपके तशरीफ़ लाने की मुझे किसी ने ख़बर नहीं दी. आपने किससे इत्तिला देने को कहा था?’ मैंने कहा, ‘विमला कुमारी जी को.’ उन्होंने विमला कुमारी को बुला कर पूछा, ‘तुमने जोश साहब के आने की मुझको ख़बर क्यों नहीं दी?’ विमला कुमारी ने कहा, ‘मैंने फ़र्स्ट लेडी के ख़्याल से जोश साहब का नाम नहीं लिया.’ पंडित जी ने डांट कर कहा, ‘नॉन सेंस’ और मेरा हाथ पकड़ कर अंदर ले गये. कहा, ‘आप भी कुंवर महेंद्र सिंह का तबादला रुकवाने के ख़्वाहिशमंद हैं.’ मैंने कहा, ‘जी हां.’ उन्होंने कहा, ‘यह डेमोक्रेट के उसूल के ख़िलाफ़ है कि मैं इस मामले में दख़ल दूं.’ मैंने कहा, ‘पंडित जी, मैं जानता हूं कि आपका दिमाग़ इंग्लैंड का गढ़ा हुआ है, लेकिन कई हालात में कुछ अपवाद भी बेहद ज़रूरी होते हैं. मैं जानता हूं कि प्राइम मिनिस्टर से किसी के तबादले को रद्द करने की दरख़्वास्त ऐसी है जैसे किसी हाथी से कहें कि मेज़ से हमारा दियासलाई उठा ला, लेकिन आज तो मैं हाथी से दियासलाई उठवा कर दम लूंगा.’ वह हंसने लगे और तबादला रद्द कर दिया. इसके बाद उनके महकमे के वज़ीर सच्चर यानी ख़च्चर ने बहुत ज़ोर मारा, लेकिन पंडित जी अपनी ज़िद पर क़ायम रहे.

एक बार मैं गर्मी की छुट्टियां मनाने के लिए शिमला गया हुआ था. 3-4 रोज़ के बाद मालूम हुआ कि पंडित जवाहर लाल भी आ गये हैं. वह जहां ठहरे थे, मैंने वहां फोन किया. बदक़िस्मती से रिसीवर उठाया उनके एक नये सेक्रेटरी ने जो लहजे से मद्रासी मालूम हो रहा था. मैंने उसको अपना नाम बता कर कहा मैं पंडित जी से मिलना चाहता हूं और आप उनसे वक़्त तय करके मुझे बता दें. उस गंवार ने कभी मेरा नाम सुना ही नहीं था. उसने बार-बार मुझसे मेरा नाम पूछा, मैंने कहा जोश मलीहाबादी, लेकिन उसकी समझ में नहीं आया. आखि़रकार मैंने झल्ला कर कहा, ‘जे, ओ, एस, एच.’ उसने कहा, ‘मिस्टर जोश, आपकी तफ़्सील क्या है?’ मैंने कहा, ‘जो शख़्स मेरे बारे में नहीं जानता, उसको यह हक़ नहीं कि वह हिंदुस्तान में रहे.’ यह सुन कर उसने कहा, ‘ओह, ऐसे बोलेगा.’ मैंने कहा, ‘इससे ज़्यादा बोलेगा.’ उसने कहा, ‘आप होल्ड किये रहें, हम पंडित जी से पूछ कर बताएगा.’ और 2 मिनट के बाद उसने कहा, ‘पंडित जी ने ऐसा बोला है कि हम यहां मज़े करने आया है, आप दिल्ली में आकर मिलो.’ यह जवाब सुन कर मेरे तन-बदन में आग लग गई. मैंने बीवी से कहा, ‘वज़ीरे-आज़म बन जाने के बाद पंडित जी का दिमाग़ ख़राब हो गया है. मैं अभी उनको ऐसा ख़त लिखूंगा कि वह तिगनी का नाच नाचने लगेंगे.’ बीवी ने कहा, ‘हमारे सर की क़सम अभी ख़त न लिखो. इस वक़्त ग़ुस्से में भरे हुए हो, न जाने क्या-क्या लिख मारोगे. पानी पी कर थोड़ी देर लेट जाओ.’ मरता क्या न करता. पानी पीकर लेट तो गया, मगर दिल की आग भड़कती रही. आध घंटे से ज़्यादा लेट नहीं सका. बिस्तर पर अंगारे दहकने लगे, मैं उठ बैठा और ऐसा ख़त लिखा कि अगर उस क़िस्म का ख़त किसी थानेदार तक को लिख भेजता, तो वह भी तमाम उम्र मुझे माफ़ न करता. ख़त रवाना कर देने के दूसरे दिन इंदिरा गांधी का फोन आया कि आज 3 बजे दोपहर को हमारे साथ चाय पीजिए.’ मैंने कहा, ‘बेटी, वहां तुम्हारे बाप मौजूद होंगे. मैं उनसे मिलना नहीं चाहता.’ उन्होंने कहा, ‘मैं पिता जी को अपने कमरे में बुलाऊंगी ही नहीं.’ मैं तैयार हो गया. शाम को जब बरामदे में पहुंचा. एक चपरासी ने अंदर के कमरे की तरफ़ इशारा कर दिया और जब मैं उनके कमरे की तरफ़ बढ़ा तो पीछे से आकर पंडित जी ने मेरा हाथ पकड़ कर कहा, ‘आइए मेरे कमरे में.’ मैं ठिठक कर खड़ा हो गया. उन्होंने मेरा हाथ खींचा और मुरव्वत के दबाव में आकर मैं उनके साथ हो गया. उनके कमरे में पहुंचा तो देखा कि मेरे बुज़ुर्गों के मिलने वाले सर महाराज सिंह बैठे हुए हैं. पंडित जी ने कहा, ‘महाराज सिंह, यह वही जोश साहब हैं जिन्होंने मुझको ऐसा गरम ख़त लिखा कि शिमला की ठंडक में पसीना आ गया.’ महाराज सिंह ने कहा, ‘ग़नीमत समझिए कि यहीं तक नौबत आई, इनके बुज़ुर्गों से आप वाक़िफ़ नहीं, वह जिस पर गरम हो जाते थे, उसे ठंडा कर दिया करते थे.’ पंडित जी हंसने लगे. घंटी बजाई, उस मद्रासी सेक्रेटरी को बुलाया और जैसे ही उसने कमरे में क़दम रखा वह उस पर बरस पड़े, ‘तुमने मुझसे पूछे बग़ैर जोश साहब को ऐसा बेहूदा जवाब क्यों दिया? मैं अभी तुम्हारा ट्रांसफ़र किये दे रहा हूं. कल तुम मिनिस्ट्री ऑफ़ कॉमर्स में चले जाना.’ उनका यह बर्ताव देख कर मैं पानी-पानी हो गया और उनकी बेमिसाल शराफ़त पर निगाह करके मैं उनको गले लगा कर रोने लगा.

अब उनकी आखि़री शराफ़त व क़द्रदानी का एक और वाक़िया सुन लीजिए. उनके इंतक़ाल से चंद माह पहले मैं हिंदुस्तान गया और उनसे दरख़्वास्त की थी कि मैं जहां ठहरा हूं, आप किसी दिन वहां आकर मेरे साथा खाना खायें. हालांकि मैं उनका दिल तोड़ कर पाकिस्तान आ गया था, लेकिन इसके बावजूद मेरी दावत क़ुबूल करके वह मेरी क़यामगाह पर आये. खाना खाया और 2 घंटे से ज़्यादा बैठे रहे. उस दावत में उनकी आवाज़ की सुस्ती और उनकी मुस्कुराहट के फीकेपन से यह अंदाज़ा करके मेरा दिल बैठने लगा कि अब वह अपनी ज़िंदगी के दिन पूरे कर चुके हैं. वही हुआ भी और मेरे पाकिस्तान जाने के 2-3 महीने बाद शराफ़त के आसमान का सूरज डूब गया और हिंदुस्तान ही में नहीं सारे एशिया में अंधेरा फैल गया. इंग्लिस्तान के शाहे-शतरंज, शतरंज के बादशाह को छोड़ कर इस वक़्त दुनिया के जितने भी मिनिस्टर, प्रेसिडेंट, डिक्टेटर और बादशाह सलामत हैं वह अपने-अपने वतन में इस क़दर क़ाबिले-नफ़रत हैं कि अवाम के रूबरू जब उनका नाम लिया जाता है तो वह इस ख़ौफ़ से इधर-उधर देख कर कि कहीं हुकूमत का कोई पिट्ठू तो आस-पास नहीं है, उनके नाम पर बेतहाशा गालियां देने लगते हैं और जब यह शानो-शौकत वाले अपने मुल्क से बाहर जाते हैं या बाहर से अपने मुल्क में आते हैं, तो छोटे-छोटे ख़ुशामदख़ोर लीडरों की धमकियों और बेज़मीर पुलिस के डंडों की चोटों से लोगों को गाड़ियों में ज़बरदस्ती भर-भर कर रेलवे स्टेशनों के प्लेटफ़ार्मों और हवाई जहाज़ों के मैदानों में इसलिए जमा कर दिया जाता है कि वह उनकी शानो-शौकत पर अंगारे बरसाने की तमन्नाई हाथों से झूठे फूल बरसाने और उन्हें पीठ पीछे कोसने देने वाली ज़बानों से उनके हक़ में ‘ज़िंदाबाद’ के खोखले नारे लगाने लगें. मिठाई के वादे से एक फुसला हुआ बच्चा उनकी गर्दन में हार डाल दे और ख़रीदे गये अख़बारों में इस शानदार स्वागत की बड़ी-बड़ी तस्वीरें छाप दी जाएं. उनमें से जब कोई गद्दी से उतर जाता है या मर जाता है तो लोग उसकी मौत पर मिठाई बांटते और शुक्राने के सजदे अदा करते. फिर 2 रोज़ के बाद उसको इस तरह भुला देते हैं जैसे- उसकी मां ने उसे कभी जना ही नहीं था, लेकिन जवाहर लाल का मामला इसके क़तई बरअक्स था. चंद जनसंघी नेताओं को छोड़ कर हिंदुस्तान का बच्चा-बच्चा उनकी मुहब्बत का दम भरता था और उनकी मौत के बाद भी दिलों पर उनकी मुहब्बत का इस क़दर सिक्का बैठा हुआ था कि जिस जगह उनका आखि़री संस्कार किया गया था, वहां मैंने ख़ुद इन आंखों से यह देखा था कि सुबह, दोपहर और शाम के वक़्त हर उम्र और हर तबके के लोगों का हुजूम रहता था कि सड़क पर जाम लग जाया करता था. लोगों की आहों से फ़ज़ा कांपती रहती थी. इसे कहते हैं सच्ची मुहब्बत और सच्ची लीडरी. नेहरू में ख़ुदकामी (निरंकुशता) और कमीनगी नहीं थी. वह बुरे आदमी बन ही नहीं सकते थे और इसी ख़ता पर कहा जाता है कि वह अच्छे सियासतदां नहीं थे.

बात यह है कि दरअसल, सियासत पैग़म्बरी का एक दूसरा नाम है और सच्ची सियासत वह होती है जो इंसानी नस्ल को फूलों की सेज पर लिटाने के लिए ख़ुद कांटों पर चलती और अल्लाह के बंदों का पेट भरने के लिए ख़ुद अपने पेट पर पत्थर बांध कर काम करती है, लेकिन आज की सियासत इस क़दर बदसूरत हो चुकी है कि वह अवाम को कांटों पर चला कर ख़ुद फूलों की सेज पर लेटती है और अल्लाह के करोड़ों बंदों के पेटों पर पत्थर बंधवा कर सिर्फ़ अपने चहीतों का पेट भरती है और नेहरू की सियासत चूंकि मौजूदा सियासत के बिल्कुल बरअक्स थी, इसलिए यह कहा जाता है कि वह अच्छे सियासतदां नहीं थे. मैं इसकी तस्दीक़ (पुष्टि) करता हूं. इसलिए कि आज के अच्छे सियासतदां के लिए यह एक लाज़मी शर्त है कि उसूलों की खि़दमत और इंसानियत के ऐतबार से वह नाक़ाबिले-बर्दाश्त हद तक बुरा आदमी हो. (ऐ लाफ़ानी जवाहर लाल नेहरू, रूहे-इंसानियत का सजदा क़ुबूल कर)!!

(संवाद प्रकाशन, मेरठ से प्रकाशित जोश मलीहाबादी की आत्मकथा ‘यादों की बरात’ से, अनुवाद : नाज़ ख़ान)

 


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