वास्तु जौनपुरी के बहाने शर्की इमारतों की याद

  • 7:10 am
  • 26 October 2019

मई 1394 में जब मलिक सरवर गवर्नर बनकर यहां आया तो उसने राजधानी ज़फ़राबाद से जौनपुर कर दी. वह यहां आया तो शहर वैसा ही खंडहर था, जैसा फ़िरोज तुगलक ने देखा था, जब उसने यहां शहर बसाने की सोची थी.

मलिक सरवर ने सबसे पहले क़िले की रिहायशी इमारतों की मरम्मत कराई, फिर विजयचंद के भव्य महल की मरम्मत कराके अपना अस्थायी गवर्नर हाऊस बनाया.
जौनपुर में क़रीब 67 मुहल्ले थे. बहुतेरे अपने पुराने नामों के साथ आज भी बरक़रार हैं. ईसापुर, बेगमगंज, मदार मुहल्ला, केरारकोट और अटाला जैसे कई मुहल्ले शर्की काल की यादगार हैं. सिकन्दर लोदी ने शर्की क़िलों, महलों, मज़ार के गुंबदों को मिट्टी में मिला दिया था. मौलाना सफ़ी जौनपुरी और दूसरे उलेमा ने मस्जिदों को बचा लिया वर्ना शर्की वास्तु शिल्प जैसी कोई चीज़ बाक़ी न रह गई होती. तोप की मार से बची ये मस्जिदें ही वास्तु कला की जौनपुरी शैली के एकमात्र नमूने हैं.

शर्की क़िले सिकन्दर लोदी और वक़्त की मार न झेल सके. चन्द बचे हुए हैं और वे भी ख़स्ताहाल हैं. सिर्फ़ रायबरेली में शर्की काल के पांच क़िले हैं – थुलंडी में इब्राहिम की बनवाई दो मस्जिदें और कच्चा क़िला, हरदोई गांव के पांच मील पूरब में एक क़िला, नसीराबाद में ईंट का क़िला, अपने बेटे नसीमुद्दीन की याद में बसाए डलमऊ और ख़ास रायबरेली का क़िला.

सन् 1359 में जब जौनपुर का पुनर्जन्म हुआ तो गोमती के उत्तर तरफ़ एक बड़े से टीले पर, जिसे केरार बीर का मंदिर कहा जाता था, के ध्वंस के मलबे पर क़िला केरार कोट बना. सुल्तानउलशर्क ने क़िले की मरम्मत कराई, हम्माम और मस्जिद सहित कई और इमारतें इसमें जोड़ी. क़िले की सुरक्षा प्राचीर दोहरी है. पहली मिट्टी की और दूसरी पत्थर की. क़िला तीन तरफ़ से खाई और एक तरफ़ से गोमती से घिरा हुआ है. क़िले के फाटक से गोमती औऱ चहारसू जाने वाली सड़क इन खाइयों को पाटकर बनी है. आने-जाने के लिए तब काठ का उठउवा पुल था.

क़िले के दक्षिणी-पश्चिमी कोने की दीवार के नीचे ‘वीर’ अभी जमा हुआ है और पूजा जा रहा है. उसे जौनपुर का डीह माना जाता है. साल में दो बार इसके उपासकों के जत्थे आसपास के इलाक़ों से आकर यहां क़याम करते हैं. ये स्योरी समुदाय के लोग हैं. लोक विश्वास के अनुसार यह कराल वीर नाम के राक्षस का धड़ है, जिसे भगवान राम ने काट कर तीन अलग-अलग जगहों पर फेंक दिया था. मेरे कॉलेज के कला अध्यापक मालवीय जी ने इसे बौद्ध स्तूप का ध्वंसावशेष बताया था. उपासकों की दृष्टि से देखा जाए तो यह स्योरी जाति का देवता या कोई पूर्वज सरदार था. टी.डी.कॉलेज के इतिहास विभाग के कृष्णानंद चौधरी ने मुझे बताया कि वैदिक काल की आर्येत्तर जातियों में स्योरी भी है. यों वहां ऐसा कुछ है नहीं. बौद्ध ध्वंसावेशष हो या न हो मगर मूर्ति तो कतई नहीं है. क़िला यक़ीनन कोई कच्चा क़िला था. ऐसे बहुत से क़िले मेरी तरुणाई के दिनों तक ज़िले में कई और थे, और अहीरों की कोट और भरों की कोट कहे जाते थे. मौलवी खैरूद्दीन के जौनपुरनामे की गवाही के मुताबिक़ फिरोज़ तुगलक ने यह मंदिर तोड़कर यहां क़िला बनाया. सिकन्दर लोदी ने क़िले में बने राजभवनों और क़िले के बाहरी हिस्से को तुड़वा दिया था. बाद में हुमायूं के हुक्म से यहां स्मारकों की बहाली शुरू हुई तो क़िले की भी मरम्मत हुई.

अटाला मस्जिद खैरुद्दीन के मुताबिक़ अटाला देवी का मंदिर तोड़कर बनी. वामिक़ जौनपुरी साहब ने अपनी आत्मकथा ‘गुफ़्तनी-नागुफ़्तनी’ के जौनपुर शीर्षक वाले अध्याय में लिखा है कि यह मूलतः बौद्ध इमारत थी, जिसे तोड़कर हिन्दुओं ने मंदिर और मुसलमानों ने मस्जिद बना ली. कताई मिल में टंकी बनवाने आए इलाहाबाद के एक ठेकेदार ने इसमें इतना और जोड़ दिया कि बौद्धों ने जैन मंदिर तोड़कर विहार बनाया था. कौन जाने यह सिलसिला कहां तक जाता है? डी.डी.कोशाम्बी ने बुद्ध विहारों को मातृ देवियों की ज़मीन पर क़ाबिज़ बताया है.

मुंशी हैदर हुसैन जौनपुरी ने सिकन्दर लोदी के ज़माने में ध्वस्त इस मस्जिद की मरम्मत किसी हद तक करा दी थी, जिसकी बदौलत यह अब तक दुरुस्त है.अटाला जौनपुरी शैली का प्रारंभिक नमूना है. अत्यंत अलंकृत और जौनपुर की मस्जिदों में सबसे सुंदर. वास्तुकला का यह भव्य नमूना 258 वर्ग फीट के विस्तार में फैला हुआ है. इसके तीन तरफ़ मठों की तरह कोठरियां है और चौथी तरफ़ उपासना घर. इसके दोनों छोर पर एक मंज़िल के अष्टकोणीय कक्ष हैं. इसके बाद दुमंज़िले और छोटे कमरे हैं, जो पत्थर की जालियों से मुख्य भवन से अलग कर दिए गए हैं. गवाक्ष की ख़ूबसूरत जालियों और छतों पर संगतराशी का काम धुंधला जाने और कम रोशनी के बावजूद दमकता है.

केंद्रीय कक्ष अष्टकोणीय है, जिसके ऊपर विशाल गुम्बद है. बार-बार की सफ़ेदी से क्षरित संकुचित कला का उत्कृष्ट काम मुख्य कक्ष को भव्यता देता है. बड़ा गुम्बद भीतर से 35 फुट लम्बा और 26.6 फीट चौड़ा है. आंतरिक सज्जा में संग मूसा यानी काले पत्थर का बहुतायत में इस्तेमाल हुआ है. दोनों छोर पर दुमंज़िले में पत्थर की जाली से घिरी जनाना गैलरी है. इनकी छतों पर ख़ूबसूरत नक़्क़ाशी का काम है.

जौनपुरी शैली की जो चीज़ हमें सबसे ज्यादा आकृष्ट करती है, वे इसके भव्य प्रोपिलॉन (प्रवेश द्वार) हैं. इसे शर्की शिल्पियों ने मिस्र के प्राचीन मंदिरों के विशालकाय प्रोपिलॉन की नक़ल पर बनाया है – बेशक अलग रूप देकर इसे जौनपुरी बनाते हुए. मिस्री प्रोपिलॉन सादे और ठोस होते थे, शर्की प्रोपिलॉन ठोस होने के साथ ही सुडौल और सुसज्जित हैं.

जौनपुर की दूसरी मस्जिदों की तरह अटाला भी नष्ट बौद्ध-हिन्दू मंदिरों की सामग्री से बनी है. हमारे इतिहास के प्रवक्ता चौधरी कालिका प्रसाद श्रीवास्तव ने जब हम दर्जन भर इतिहासज्ञों की शर्की वास्तु कला से मुलाक़ात कराई थी, तब बताया था कि अटाला तुर्की भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है किसी चीज़ का ढेर. पत्थरों के मलबे पर बनी इसीलिए यह अटाला मस्जिद कहलाई. हिन्दी शब्द टाल में यह अर्थ अभी तक सुरक्षित है, लकड़ी की टाल, कोयले की टाल वग़ैरह. हालांकि उनकी मृत्यु के बाद छपी उनकी किताब ‘ए ग्लिम्स ऑफ़ अर्ली हिस्ट्री ऑफ़ जौनपुर’ में मुझे ऐसा कुछ लिखा नहीं मिला. न ही अटाला नाम की कोई हिन्दू देवी. हालांकि चालीस करोड़ देवी-देवताओं के नाम वे भी नहीं जानते लगते हैं जिन्होंने इस विशाल देवमाला से हमारा नाता जोड़ा है. अचला देवी के नाम पर ज़रूर मंदिर और घाट है लेकिन अटाला देवी के नाम पर महज एक मस्जिद ही है.

हिन्दी भवन के संस्थापन दिवस पर आयोजित एक कार्यक्रम में तत्कालीन ज़िलाधिकारी राजन शुक्ला इंगलिश टाइम से पहुंच गए. मैंने उन्हें दूसरी मंज़िल पर लाइब्रेरी और तीसरी मंज़िल से शहर दिखाने के लिए मोड़ दिया. सीढ़ियां चढ़ते हुए मैंने बताया कि यहां से क़िला, अटाला औऱ बड़ी मस्जिद साफ़ दीखती है. उन्होंने पूछा, यह अटाला देवी का मंदिर है, जो देवी अब फलां गांव के एक मंदिर में हैं! मैंने कहा, अटाला देवी का मंदिर तो बचपन से सुनता आया हूं पर देवी कहां मौजूद हैं और पूजी जा रही हैं, यह आज ही पता चला.

झंझरी मस्जिद फिराज़ शाह तुगलक द्वारा ध्वस्त विजयचन्द के बनवाए मुक्ता घाट के मंदिर पर बनी है. इब्राहिम शाह ने इसे अपने वजीर संत सदरजहां अजमल के लिए बनवाया था, जो रिटायर होकर पास ही के मुहल्ले शेखाबाड़ा में रह रहे थे. दूसरी शर्की इमारतों की तरह यह भी सिकन्दर लोदी की कोपभाजन बनी. उसने दो बरामदे और प्राचीर का कुछ हिस्सा तोड़ दिया. बाक़ी की कसर गोमती की बाढ़ ने पूरी कर दी.

केंद्रीय कक्ष का भव्य गुम्बद और कुछ हिस्सा बाद में ढह गए. शर्की काल के पुराने खम्भों और पायों के ऊपर अतिसुंदर और चित्ताकर्षक स्क्रीन (जालियों) के अलावा सब कुछ नया है. नया माने शर्की काल के बाद का. पर इसकी भव्यता बताने के लिए इतना ही पर्याप्त है. प्रवेश द्वार में जाली का सुंदर काम, जो इसे सुनहरे पर्दे का रूप और झंझरी मस्जिद का नाम देता है, सतह पर 35.6 फ़ीट है. इसकी मेहराब 23.9 फ़ीट की है. प्रवेश द्वार के भीतर की मेहराब में अरबी सुलेख में आयतुल कुर्सी अंकित है, जो जौनपुरी शैली की किसी और मस्जिद में नहीं है. इसके कुछ हिस्सों के पत्थर दरक गए थे और सुलेखन भी कहीं-कहीं क्षतिग्रस्त हो गया था. पुरातत्व विभाग के मरम्मत करा देने से यह फिर पहले जैसा हो गया है. चहारदीवारी का थोड़ा सा क्षतिग्रस्त हिस्सा लखौरिया ईंट का बना है और यक़ीनन पुराना है. जामा मस्जिद और बड़ी मस्जिद (जामुश्शर्क) हुसैन शाह का कारनामा है. इसका निर्माण इब्राहिम शाह ने सन् 1438 में शुरू कराया था. यह मस्जिद उसने संत ख़्वाजा ईसा को जुमे की नमाज के लिए अटाला तक जाने की ज़हमत से बचाने के लिए बनवानी शुरू की, लेकिन जल्दी ही ख़ुद मछरहट्टा के शर्की क़ब्रिस्तान में पहुंच गया. स्थानीय लड़ाइयों में व्यस्त रहने के कारण न महमूद शर्की और न लोदियों से निपटने के चक्कर में मुहम्मद शर्की इसे पूरा कर सका. हुसैन शाह ने इससे कम लड़ाइयां नहीं लड़ीं मगर सन् 1478 में इसकी तामीर का काम पूरा कराया.

इसका बहुविधि अलंकृत प्रोपिलॉन स्वरलिपि लिखी एक बड़ी सी दीवार नज़र आता है, लिपि-संकेतों से आज़ाद होकर जिस पर राग-रागिनियां फुदक रही हैं. इस प्रोपिलॉन पर नज़र पड़ते ही बड़ी मस्जिद ने मुझे मोह लिया. मुझे लगा कि जेम्स फ़र्गुसन और पर्सी ब्राउन ख़ामख़्वाह ही अटाला की जय-जयकार करते हैं. मस्जिद तो ये है. किसी संगीतकार द्वारा रचा हुआ सात सुरों का सरगम. अच्छा हुआ कि महमूद और मुहम्मद शर्की को इसे बनवाने की फ़ुर्सत नहीं मिली वर्ना जाने क्या हस्र होता इसका. एक और अटाला बनकर रह जाती.
फिर एक बार अटाला को चांद रात में देखा. पूनम का चांद था और शहर की बिजली गुल थी. उस नीम रोशनी में इमारत खिल गई थी. जैसे कहते हैं कि ताज खिल जाता है. पता नहीं पर ऐसा तो न खिलता होगा. जिस अनुपात की बात पर्सी ब्राउन ने लिखी है, उजागर हो गया. और तब बड़ी मस्जिद ऊपर से नीचे तक गहनों से लदी किसी मारवाड़िन की तरह फैली बिखरी लगने लगी. बनी यह भी अटाला के प्लान से है लेकिन बड़ी और कुछ महत्वपूर्ण तब्दीलियों के साथ. अब मैं फ़र्गुसन और ब्राउन की जय-जयकार करने लगा, जैसी वे अटाला की करते हैं.

बड़ी मस्जिद एक बड़े से टीले पर बनी है, इससे उसे बैठने के लिए कुर्सी मिल गई है. गुम्बद सिर्फ़ उपासना घर के ऊपर है. कनिंघम ने नाप जोख की तो अंदर और बाहर की दीवारों में काफी फ़र्क नज़र आया – पूरे बारह फ़ीट का अंतर. बाहर से 67.3 फ़ीट और भीतर से 55.3 फ़ीट. कनिंघम ने बड़े गड़े मुर्दे उखाड़े थे. खोज निकाला कि यह दोहरा गुम्बद है. पछांही कहावत के अनुसार लल्लू के पेट में लल्ला.

सिकन्दर लोदी ने तोड़ी तमाम शर्की मस्जिदें थीं मगर बड़ी मस्जिद को बुरी तरह ध्वस्त किया था. पूर्वी द्वार जमींदोज़ कराया. इससे लगे कक्षों, मदरसा और राजमहल तोप से उड़वा दिया. प्रोपिलॉन और प्रार्थना कक्ष की दीवारों पर भी इससे ज़रब आया. मस्जिद तब तक वैसे ही पड़ी रही जब तक हुसैन शाह का पड़पोता उमर ख़ां अकबर का गर्वनर बनकर यहां आया. उसने इसकी बहाली का काम शुरू किया. थोड़ी बहुत बहाली के बाद वह अचानक कालकवलित हो गया. बाद में लखौरिया के कुछ पैबन्द लगे. निकट भूतकाल में मौलाना ज़फर साहब ने प्रोपिलॉन के ऊपरी हिस्से के सरक गए कुछ पत्थरों को जमवाया और फिर नमाजियों के चंदे और मिस्त्रियों की कारसेवा के सहारे पूर्वी द्वार और उसका गुम्बद फिर पहले जैसा बनवा दिया.

अन्य शर्की कालीन मस्जिदें हैं – लाल दरवाज़ा मस्जिद, चार अंगुली मस्जिद (खालिस-मुफलिस) और ईदगाह. मछली शहर की मस्जिद भी शर्की निर्माण है. लाल दरवाज़ा अटाला का लघु लेकिन भव्य रूप है. यह मस्जिद राजमहल के अंदर थी और महिलाओं के नमाज के वास्ते बनी थी. शर्की मस्जिदों को तो संतों और जनता ने बचा लिया, राजमहलों को कौन बचाता? उनके नाम ही शेष हैं. सुल्तानुल शर्क की बदी मंज़िल, इब्राहिम शाह का चेहल सतून महल, महल बीबी राजे, महल बीबी लाड़ली, रोशन महल, और जन्नत महल. यही हाल उनके मक़बरों का हुआ. ग्लेज़्ड टाइलों वाले विशाल गुम्बद खिंचवाकर गिरवा दिए गए. मछरहट्टे की एक छोटी सी संकरी गली के अन्त में फिरोज़ शाह के पहले गर्वनर के साथ छह शर्की सुल्तान अपनी बड़ी-बड़ी ऊंची काई लगी पत्थर की क़ब्रों में क़यामत का इन्तज़ार कर रहे हैं.

बीबी राजे का मज़ार अपना गुम्बद खोकर एक औऱ क़ब्र के साथ इस महान मलिका के दुर्भाग्य पर आंसू बहा रहा है. हां, इब्राहिम शाह का एक अनाम शाहजादा बड़े से गुम्बद वाली शानदार बड़ी सी बारादरी में चैन से सो रहा है. इब्राहिम शर्की के काल के शाह सुलेमान का मक़बरा ठीक-ठाक हालत में है, लेकिन बिना किसी जुर्म के जेल में गिरफ़्तार है. संतों की भूमि रही है, सैकड़ों मक़बरे रहे होंगे. कुछ पहले ही गुज़र गए, बाक़ी कमर कस के तैयार बैठे हैं. कुछ का एक-एक पत्थर उखड़ते और महाप्रस्थान के पथ पर बढ़ते मैंने भी देखा है. वे महान संत महाकवि ग़ालिब की इच्छा पूरी करते दिख रहे हैं…न कहीं मज़ार होता.

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