जो बीत गया है वो गुज़र क्यों नहीं जाता
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शहर में मुशायरे आगे भी होंगे, अदीबों और कद्रदानों की महफिलें भी जुटेंगी मगर अफसोस कि निदा उनमें नहीं होंगे. अभी हफ़्ते भर पहले गोरखपुर महोत्सव में आए निदा फ़ाज़ली से मिलने वालों और मंच से उन्हें सुनने वालों के लिए भी यह गहरे सदमे की ख़बर है. यहां के मुशायरों में वह अक्सर आते रहे. पिछले साल का ही वाकया है, जब मियां साहब इस्लामियां इंटर कॉलेज में हुए मुशायरे में निदा फ़ाज़ली पढ़ने के लिए खड़े हुए तो अचानक एक धमाका हुआ. पहले तो किसी की समझ में नहीं आया मगर इसके बाद भी लगातार धमाके होते रहे तो लोगों ने ग़ौर किया कि मैदान के आख़िरी हिस्से में पटाखा बम जलाया गया था. अनवर जलालपुरी, विजाहत करीम के कहने से न रुके थे धमाके. 21 या 51 नहीं, पूरे 120 बम. इस शोर में पढ़ना मुश्किल था सो वह वापस बैठ गए थे. निदा का ऐसा इस्तक़बाल करने वाला वह क़द्रदान कौन था, यह तो ख़ैर बाद में भी पता नहीं चल पाया. इसके बाद उसी मंच से शायर और सामइन के रिश्तों के लिहाज़ से हुए तजुर्बे की तल्ख़ी भी याद ज़रूर आ रही हैं मगर आज ज़िक्र के क़ाबिल नहीं हैं.
दोपहर को टेलीविज़न की मार्फ़त मिली ख़बर के बाद से सोशल मीडिया में बेशुमार श्रद्धांजलियां आई हैं, उनकी मशहूर ग़ज़लों के तमाम अशआर छपे हुए हैं, फ़िल्मों में इस्तेमाल हुई उनकी ग़ज़लों को सुनकर याद करने वाले भी बहुतेरे हैं. सच कहूं तो उदासी मुझ पर भी तारी रही है. इस उदासी और मुलाक़ात के कई वाक़यों के बीच जगजीत सिंह की गाई ग़ज़ल का एक शेर स्मृतियों पर बार-बार सुपरइम्पोज़ होता रहा है, ‘अपनी मर्जी से कहां अपने सफ़र के हम हैं/ रुख हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं’. उनकी तमाम ग़ज़लें मुझे पसंद हैं, मगर इस ग़ज़ल की तासीर कुछ अलग लगती है. उनके कहन की सादगी और नाज़ुकी, मानीख़ेज अंदाज़ वाकई मुतासिर करता है, हमेशा से ही. कई बार लगता है कि उनके अशआर के मायने किसी फूल की ख़ुशबू की तरह धीरे-धीरे रूह मे उतरते जाते हैं. और यह किसी रुमानी ख़्याल की तजुर्मानी नहीं है, यह बात उनके बहुतेरे मरीदीनों को मालूम होगी. इसी ग़ज़ल का एक और शेर याद करें, ‘वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से/ किसको मालूम, कहाँ के हैं, किधर के हम हैं’. यह सही है कि फिल्मों में इस्तेमाल हुई उनकी नज़्मों-ग़ज़लों ने उन्हें बहुत शोहरत बख्शी. हालांकि सिर्फ़ इनके ही हवाले से उनकी शख्सियत और सोच का अंदाजा लगाने वाले उनके बारे में सचमुच बहुत कम जानते हैं. ख़ालिस शायर के मुकाबले वह बड़े इंसान भी थे, बहुत बड़े.
कोई सात-आठ बरस पहले लम्बे समय तक उन्होंने बीबीसी हिन्दी के लिए एक कॉलम भी लिखा- ‘अंदाज़-ए-बयां और’. अपने समय, समाज और साहित्य के साथ-साथ गुज़रे ज़माने पर उनकी ये टिप्पणियां रोचक ही नहीं हैं, पढ़ते हुए कई बार रोमांच भी पैदा करती हैं. अपने ढंग का यह अनूठा कॉलम था. उनका अंदाज़े बयां यह कि माज़ी के हवाले से आज के मसाइल के जवाब भी तलाश करते. ‘ग़ालिब और इज़ारबंद की गांठें’ शीर्षक वाली उनकी एक टिप्पणी आज फिर से पढ़ डाली. इसमें उन्होंने कहा है, ‘इतिहास सिर्फ़ राजाओं और बादशाहों की हार-जीत का नहीं होता. इतिहास उन छोटी-बड़ी वस्तुओं से भी बनता है जो अपने समय से जुड़ी होती हैं और समय गुजऱ जाने के बाद ख़ुद इतिहास बन जाती हैं. ये बज़ाहिर मामूली चीज़ें बहुत ग़ैरमामूली होती हैं.’ यहां वह ग़ालिब म्यूज़ियम और उसमें रखे ग़ालिब के इज़ारबंद के हवाले से शुरू की गई बात कबीर और नज़ीर पर आकर पूरी करते हैं.
ऐसे दौर में जब मंच पर पढ़ने के लिए दूसरे शहरों में जाने वाले ख़ुद पर पीएचडी करने वाले विद्यार्थियों को साथ लिए घूमते हों, अपनी अहमियत जताने के लिए उनका परिचय पहले ही देते हों, निदा ख़ामोशी से इंसानी जज़्बात को ज़बान देने, लोगों की ज़िदगी की बेहतरी को अपनी ज़िम्मेदारी मानकर कर्म में जुटे रहे. वह इस बात की नज़ीर भी बने कि शोहरत के लिए सस्तेपन की शर्त ज़रूरी नहीं होती. उनके काम का बेहतर मूल्यांकन शायद समय ही कर पाएगा.
(निदा फ़ाज़ली को याद करते हुए उनके इंतिक़ाल के रोज़ लिखी गई टिप्पणी)
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