जन्मदिन | डॉ. अम्बेडकर के विचारों की बुनियाद पर नया भारत संभव
राजनेताओं की पहचान इस आधार पर होती रही है कि वे अपने समय में मनुष्य और मनुष्यों के समुदायों को किन्हीं उच्च आदर्शों, जीवन मूल्यों और आंतरिक सबलीकरण के लिए किस प्रकार प्रेरित करते हैं, वे अपने समकाल को कितना बदल पाते हैं. उनके जीवन के बाद भी यह उपलब्धियाँ क्या किसी नैतिक व्यवस्था को जन्म दे पाती हैं, क्या वे कोई नयी राजनीति और मानव उत्थान की किसी परियोजना को आगे ले जा पाती हैं? इस आधार पर डॉ. भीमराव अंबेडकर भारत के सबसे महत्त्वपूर्ण नेताओं में से एक हैं. यह कोई अनायास नहीं है कि इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब ‘मेकर्स ऑफ़ मॉडर्न इंडिया’ में डॉ. अंबेडकर को आधुनिक भारत के निर्माताओं में न केवल प्रमुख व्यक्तित्व माना है बल्कि उन्हें बहुत ऊँचे दर्जे पर रखा है.
14 अप्रैल 1891 को जन्मे अंबेडकर के जीवन के 56 वर्ष गुलाम भारत में बीते और नौ वर्ष आज़ाद भारत में. इन दोनों कालखंडों में उन्होंने एक सक्रिय राजनेता की भूमिका निभाई. गुलाम भारत में उन्होंने अस्पृश्य जनों को मानवीय गरिमा दिलाने के लिए ब्रिटिश शासन, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं और उसकी सामाजिक संरचना से लगातार संघर्ष किया. यह संघर्ष उन्हें राजनीतिक प्रतिनिधित्व, सामाजिक सबलीकरण और सांस्कृतिक आत्मविश्वास दिलाने के लिए था जिसमें जितने वे अपने जीवनकाल में सफल रहे, उससे भी ज्यादा उनके न रहने पर उनके विचारों की चमक ने कमजोरों को ताक़त और हिम्मत दी.
आज़ाद भारत में उन्होंने उन क़ानूनों को बनाने के लिए अपने आपको झोंक दिया जिससे अनुसूचित जातियों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं को सम्मान, गरिमा और सुरक्षा मिल सके. अपने लेखन, सार्वजनिक भाषणों और आचरण से उन्होंने अपने समकालीन लोगों को समझाया और राजी किया कि जब तक अनुसूचित जातियों, अल्पसंख्यकों और स्त्रियों को पूर्ण मानवीय गरिमा नहीं प्रदान की जाती है तब तक एक न्यायपूर्ण भारत की कल्पना असंभव बात होगी.
अभी हाल ही में राजनीतिक-दार्शनिक आकाश सिंह राठौर ने एक महत्वपूर्ण और रोचक किताब लिखी है – अंबेडकर्स प्रिएंबल : अ सीक्रेट हिस्ट्री ऑफ़ द कांस्टिट्यूशन ऑफ़ इंडिया. कहने को तो यह किताब भारत के संविधान की प्रस्तावना का गहन अध्ययन है लेकिन यह डॉ. अंबेडकर के जीवन के बहाने भारतीय सभ्यता और समाज की पड़ताल भी है. इस किताब में अंबेडकर एक जगह कहते हैं : ‘अतीत की कोई सभ्यतामूलक गौरवगाथा या भविष्य में सर्वशक्तिमान बन जाने की हैसियत, इस सबके बजाय किसी भी देश के लिए इससे सच्ची एवं महान बात हो ही नहीं सकती है कि वह उस देश में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा को सुनिश्चित करे.’
एक असमान दुनिया में इससे बेहतर बात भला क्या हो सकती है? इस समय पूरी दुनिया कोरोना के संकट से जूझ रही है लेकिन वे लोग जो सबसे कमजोर, गरीब, पददलित और सामाजिक रूप से बहिष्कृत रहे हैं, वे सबसे ज्यादा संकट में फँस गए हैं. किसी भी प्रकार के संकट के लिए वे सबसे सुभेद्य हैं. ‘प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा’ को भला तब तक कैसे सुनिश्चित होगी, जब तक सबकी स्वास्थ्य सुविधा तक पहुँच न हो, उसे उत्पादन के साधनों तक पहुँचने से रोका न जाए, उनके पास खेती करने के लिए जमीन हो न कि वे दूसरे के खेतों पर जाकर मजदूरी करें. वैसे यह सुंदर बात अंबेडकर से पहले महात्मा गाँधी और उनके बाद में जान राल्स भी कहते हैं. अंबेडकर की यह बात इसलिए और भी मानीखेज़ हो जाती है कि वह स्वयं सदियों से सताए गए एक बड़े तबके की लड़ाई भी लड़ रहे हैं, उसे संगठित एवं शिक्षित भी कर रहे हैं और समाज से बदलने की अपील भी कर रहे हैं.
क्या डॉ.अंबेडकर केवल दलित नेता हैं?
अंबेडकर के विरोधियों और कुछ हद तक उनके कट्टर समर्थकों ने अंबेडकर को दलित नेता के रूप में सीमित करने का प्रयास किया है, जो ऐतिहासिक और राजनीतिक रूप से गलत बात है. अंबेडकर के विरोधी महात्मा गाँधी और जवाहरलाल नेहरु को सामने खड़ा करते हैं, कुछ लोग तो और भी कुत्सा दिखाते हुए उन्हें ब्रिटिश शासन का स्वाभाविक मित्र मानकर यह कहते हैं कि उनकी आज़ादी की लड़ाई में कोई भूमिका ही नहीं थी. अंबेडकर के समर्थकों का एक हिस्सा यह भी कहता है कि उन पर बात करने का हक़ केवल उन्हीं के पास है क्योंकि वे ‘अंबेडकर के लोग’ हैं और उनके पास ‘अनुभव की प्रामाणिक दुनिया’ है. यदि दूसरे लोग अंबेडकर पर कोई बात करते हैं, किताब लिखते हैं, चर्चा करते हैं तो वह केवल बौद्धिक छद्म है. इस प्रकार के विवादों ने एक बाइनरी बनाई है और वास्तविक अंबेडकर लगातार गायब होते गए हैं.
विद्वानों, शोधकर्त्ताओं और राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं के विभिन्न समूह अंबेडकर को ‘रिक्लेम’ करने में एक बार फिर संघर्षरत है. इसका एक अच्छा परिणाम यह हुआ है कि अंबेडकर के जीवन और शिक्षाओं के प्रत्येक पक्ष पर शिकागो से लेकर उन्नाव तक बहस हो रही है. नई पीढ़ी उनके बारे में ज्यादा से ज्यादा पढ़ रही है, उन्हें जान रही है.
नए भारत के लिए नया राजमर्मज्ञ
नए भारत के लिए नया राजमर्मज्ञ चाहिए. डॉ. अंबेडकर के जीवन, कर्म और विचार इसकी गवाही देते है.वास्तव में डॉ. अंबेडकर केवल दलित नेता नहीं हैं बल्कि वे आधुनिक भारत के ऐसे राजमर्मज्ञ हैं जिसने भारत को न्यायपूर्ण, करुणा आधारित और अहिंसक राष्ट्र बनने में मदद की है. जब अहिंसा की बात होती है तो महात्मा गाँधी को याद किया जाता है लेकिन डॉ. अंबेडकर को भुला दिया जाता है. इस अवसर पर उन्हें भी याद किया जाना चाहिए. महात्मा गाँधी और डॉ अंबेडकर एक दूसरे के पूरक हैं. आज के राजनीतिक समकाल में यह बात सिद्ध भी हो चुकी है कि वे एक दूसरे का रास्ता नहीं काटते हैं बल्कि उसे भारत की आम जनता, मजदूर, किसान, स्त्री, दलित, अल्पसंख्यक, आदिवासी, घुमंतू और विमुक्त समुदायों, पर्वतों की तलहटी और नदियों के किनारे रहने वाले लोगों के लिए सुगम बनाते हैं.
आप उनका वह भाषण याद कीजिए जो उन्होंने भारत की संविधान सभा में 4 नवम्बर 1948 को दिया था, जिसमें उन्होंने भारतीय गाँवों को “कूपमंडूकता का परनाला, अज्ञान, संकीर्णता और सांप्रदयिकता की काली कोठरी” कहा था. इस भाषण को गांधीवादी ग्राम स्वराज की अवधारणा के ख़िलाफ़ तो पेश ही किया जाता है, इसे अंबेडकर के शहरी नज़रिये की एक मिसाल के रूप में भी पेश किया जाता है. अंबेडकर शहरों को उन बुराइयों से मुक्त मानकर चल रहे थे जिनसे भारत के गाँव ग्रस्त थे. अंबेडकर के लिए शहर मुक्ति के स्थल थे. खैर, उसी दिन संविधान सभा के एक दूसरे महत्त्वपूर्ण सदस्य एच. वी. कामत ने अंबेडकर के इस भाषण का विरोध भी किया था. उन्होंने कहा कि यदि हम अपनी ग्रामीण और देहाती जनता के लिए सहानुभूति, प्रेम और अनुराग का भाव नहीं रखते हैं तो मैं नहीं समझता कि हम देश की किस प्रकार उन्नति कर सकते हैं. आप आज के भारत को देखिए, दलितों, स्त्रियों को पंचायतीराज के द्वारा सबलीकरण मिला है. यहाँ तक कि कोरोना जैसे विश्वव्यापी संकट में पंचायतों में काम कर रहे ग्राम प्रधान, आशा कार्यकर्त्ता बड़े मददगार बनकर उभरे हैं. शहर दलित-बहुजन समूहों को वह सुरक्षा नहीं दे पाए जिसकी कल्पना की गई थी. यहाँ मैं केवल यही कहना चाहता हूँ कि गाँधी-अंबेडकर और ऐसे ही मिलते-जुलते रास्तों से भारत को और बेहतर बनाया जा सकता है.
वास्तव में पिछले चार दशकों में भारत के आदर्शों एवं महापुरुषों का ‘राजनीतिक वस्तुकरण’ किया गया है और उन्हें वोट बटोरने वाली मशीन का हिस्सा बना दिया गया है. 1950 से लेकर 1980 के दशक में डॉ. अंबेडकर को उपेक्षा सहनी पड़ी. इसके बाद वे दलितों को सबलीकृत करने वाले सबसे बड़े व्यक्तित्व के रूप में उभरे और जैसा समाज विज्ञानी बद्री नारायण ने अपने अध्ययनों में दिखाया है कि इस प्रक्रिया के कारण स्थानीय स्तर पर दलित नायक-नायिकाएँ उभरे और उन्होंने राजनीति को बदलकर रख दिया. इससे भारतीय राजनीति समावेशी हुई. अब सारे राजनीतिक दलों के लिए वे बराबर महत्त्वपूर्ण हो गए हैं. उन्हें यहाँ पर केवल दलित नेता भर मान लिया जाता है जिसकी दलित समूहों में व्यापक अपील है. इसलिए अधिकांश राजनीतिक दल अंबेडकर के द्वारा कल्पित राजनीतिक और सामाजिक मूल्यों में विश्वास न करने के बावजूद उनके कट-आउट आगे कर देते हैं. अंबेडकर का कद उनके कट-आउट से बड़ा है. उन पर या तो एक ख़ास किस्म का एकाधिकार जमाया जाता रहा है या उन्हें दृश्य पटल से गायब कर दिया जाता है.
शिक्षाशास्त्री पाउलो फ्रेयरे कहते थे कि जो उत्पीड़न करता है, उसे अपने उत्पीड़न करने के नज़रिये से स्वतंत्र होने की ज़रूरत है, इससे पहले ख़ुद मुक्त होगा और उसे भी मुक्ति मिलेगी जिस पर उत्पीड़न ढाया जा रहा है. यही बात गैर दलितों के लिए भी सही है जिन्होंने ऐतिहासिक रूप से दलितों को भेदभाव, बहिष्करण और हिंसा का शिकार बनाया. यदि वे अंबेडकर के करुणा आधारित अहिंसक समाज के रास्ते पर चलेंगे तो दोनों की मुक्ति हो सकेगी. मेरे दोस्त और उत्तर प्रदेश से संबंध रखने वाले युवा समाजशास्त्री डॉ. अजय कुमार कहते हैं कि अंबेडकर के हाथ में संविधान की प्रति इस बात का प्रतीक है कि अंबेडकर सिर्फ दलितों के या अन्य शोषित लोगों के ही नेता नहीं थे बल्कि वह एक राष्ट्रीय नेता थे। परिधीय समुदायों का राजनीतिक भविष्य हो, जाति की आर्थिक समझ हो, मुस्लिम समस्या, अल्पसंख्यकों की समस्या, पाकिस्तान के सृजन अथवा महिलाओं की समस्या पर उनके द्वारा लिखित पुस्तक अथवा लेख हों, भारत के योजना निर्माण में उनकी भूमिका हो, सिंचाई तथा ऊर्जा परियोजनाओं के निर्माण में भी उनकी भूमिका थी. उनका एक व्यापक नजरिया था.
यह समय की जरूरत है कि डॉ. भीमराव अंबेडकर पर समाज का हर हिस्सा बात करे, उनकी शिक्षाओं को समाज की बेहतरी, बराबरी, करुणा, मैत्री एवं भ्रातृत्व बढ़ाने वाली पहलकदमी के रूप में देखे.
(लेखक मूलतः इतिहास के अध्येता हैं. भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में मार्च 2018 से मार्च 2020 तक फेलो, इलाहाबाद-कानपुर में रहनवारी)
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