मुल्कराज आनंद | गाँधी के कहने पर दोबारा लिखा पूरा उपन्यास

  • 7:15 pm
  • 12 December 2020

डॉ. मुल्कराज आनंद अंग्रेज़ी के उन महत्वपूर्ण भारतीय लेखकों में हैं, जिन्होंने ब्रिटिश राज में भारतीय समाज के यथार्थ और विद्रूप को हुक्मरानों की ज़बान में लिखा और ख़ूब लिखा. अपनी 99 साल की ज़िंदगी में उन्होंने सौ से ज़्यादा किताबें लिखीं. दुनिया की बाइस ज़बानों में उनकी किताबों का तर्जुमा यह समझने के लिए काफ़ी है कि लोग उनसे किस क़दर मुत्तासिर हुए.

पेशावर में जन्मे मुल्कराज आनंद पंजाब यूनिवर्सिटी से डिग्री लेने के बाद 19 वर्ष की उम्र में स्कॉलरशिप पर लंदन चले गए. यूनिवर्सिटी कॉलेज, लंदन में उन्होंने फ़िलॉसफ़ी में पीएचडी के लिए दाख़िला लिया. लंदन में जल्दी ही वह भारत के आज़ादी आंदोलन और वामपंथी राजनीति वाले ग्रुपों के संपर्क में आ गए. यहीं सज्जाद ज़हीर और अहमद अली से उनकी मुलाक़ात हुई और प्रगतिशील लेखक संघ की हुई. पीडब्ल्यूए के वह संस्थापक सदस्य थे और इसके घोषणा-पत्र का पहला मसौदा तैयार करने में भी उनकी अहम् भूमिका रही. इसी साल यानी सन् 1935 में उनका पहला उपन्यास ‘अनटचेबल’ छपकर आया था. लंदन में रहते हुए ही वह ई.एम.फॉस्टर, वर्जीनिया वुल्फ़, जॉर्ज रसेल, इलियट, यीस्ट, हरबर्ट रीड, जॉर्ज ऑरवेल के संपर्क में आए और उनसे दोस्ताना तआल्लुक बने.

पहले उपन्यास पर गाँधी की सम्मति
‘अनटचेबल’ ऐसे शख़्स भाखा की कहानी है, जो मैला ढोता है. उसके संघर्षों और अपमानजनक हालात के हवाले से ब्रिटिश उपनिवेश के दौर में भारत के दलितों के हालात की भयावहता इस उपन्यास में बख़ूबी ज़ाहिर हुई हैं. अलग विषय और संवेदनशील तरीके से उसकी प्रस्तुति को बहुत सराहना मिली मगर इसे छपाना उनके लिए आसान नहीं रहा. ख़ुद मुल्कराज आनंद ने इस बारे में लिखा है कि उपन्यास का विषय सुनकर एक ब्रिटिश आलोचक ने खिल्ली उड़ाते हुए कहा था कि ग़रीबों के बारे में कोई उपन्यास नहीं लिखा जा सकता.

उसकी इस टिप्पणी से हताश मुल्कराज आनंद आयरलैंड जाकर जॉर्ज रसेल और डब्ल्यू.बी.यीस्ट से मिले. रसेल ने उन्हें हिन्दुस्तान जाकर साल भर गाँधी के साथ रहने का मशविरा दिया. रसेल ने उनकी ओर से गाँधी को ख़त भी लिख भेजा. गाँधी का जवाब आया – मार्च के आख़िर तक आ जाएं. यह 1927 की बात है. आनंद साबरमती आश्रम आ गए और उन्होंने गाँधी को ‘अनटचेबल’ का मसौदा दिखाया.

अगले रोज़ गाँधी ने उनसे कहा कि उन्होंने उपन्यास पढ़ा. उसकी भाषा में बहुत भारी-भरकम शब्दों का इस्तेमाल हुआ है. गाँधी ने कहा – हरिजन तड़पते हैं, चीख़ते और कराहते हैं, वे इस तरह की भाषा नहीं बोलते. उन्होंने उपन्यास को सरल भाषा में लिखने के साथ ही सुझाया कि हरिजनों के हवाले से कही जाने वाली बातों में वैसी भाषा इस्तेमाल करें, जैसी कि वे बोलते हैं.

साबरमती आश्रम में ही ‘अनटचेबल’ फिर से लिखा
साबरमती आश्रम में ही रुककर उन्होंने उपन्यास फिर से लिखा. दोबारा तैयार पाण्डुलिपि पर गाँधी की सहमति के बाद ही उन्होंने उसे छापने के लिए प्रकाशकों को भेजना शुरू किया मगर 19 प्रकाशकों ने ‘अनटचेबल’ छापने से इन्कार कर दिया. आख़िरकार एक अपेक्षाकृत छोटे प्रकाशक लॉरेंस एण्ड विशआर्ट ने 1935 में इसे छापा. इस उपन्यास ने पूरी दुनिया में धूम मचा दी. चौबीस भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ.

किताब की प्रस्तावना में ई.एम. फॉस्टर ने लिखा,‘‘शब्द आडम्बर और वाक्-जाल से बचते हुए किताब सीधे पाठक के दिल तक जाती है और उसे शुद्ध कर देती है. हममें से कोई भी शुद्ध नहीं है. यदि होते, तो हम जीवित न होते. निष्कपट व्यक्ति के लिए सब कुछ शुद्ध हो सकता है और यही उसके लेखन की निष्कपटता है, जिसमें लेखक पूरी तरह से कामयाब हुआ है. ‘अनटचेबल’ जैसा उपन्यास कोई भारतीय ही लिख सकता है और वह भी ऐसा भारतीय जिसने अछूतों का भली-भांति अध्ययन किया हो. कोई यूरोपियन भले ही कितना सहृदय क्यों न हो, भाखा जैसे चरित्र का निर्माण नहीं कर सकता. क्योंकि वह उसकी मुसीबतों को इतनी गहराई से नहीं जान सकता. और कोई अछूत भी इस पुस्तक को नहीं लिख सकता.’’

बीबीसी के लिए काम
1929 में पीएचडी पूरी कर लेने के बाद उन्होंने ‘लीग ऑफ़ नेशंस स्कूल ऑफ इंटेलेक्चुअल को-ऑपरेशन’ जिनेवा में अध्यापन किया. दूसरे विश्व युद्ध के दौरान उन्होंने लंदन में बीबीसी के लिए स्क्रिप्ट लेखक के तौर पर काम किया. ब्रॉडकास्टर भी रहे. जॉर्ज ऑरवेल भी उस वक़्त बीबीसी से जुड़े हुए थे. देश की आज़ादी का संघर्ष जब चरम पर पहुंचा, तो कुछ योजनाओं और नए विचारों के साथ मुल्कराज आनंद साल 1946 में भारत लौट आए. 1948 से 1966 तक उन्होंने देश के कई विश्वविद्यालयों में अध्यापन किया. अंग्रेजी पत्रकारिता की.

‘टू लीव्ज़ एण्ड अ बड’ पर प्रतिबंध
मुल्कराज आनंद इंसानियत और वैश्विक भाईचारे के तरफ़दार थे. उनके उपन्यास और कहानियों के किरदारों में अलग तरह की जिजीविषा और जीवट दिखाई देता है. अन्याय, अत्याचार और ग़ैरबराबरी के ख़िलाफ़ वे संघर्ष करते हैं. उनका दूसरा उपन्यास ‘कुली’ (1936) भी सर्वहारा वर्ग के दुःख-दर्द, उनकी ज़िंदगी की दारुण स्थितियों का बयान है. 1937 में आया उनका एक और चर्चित उपन्यास ‘टू लीव्ज़ एण्ड अ बड’ ब्रिटिश हुकूमत को इस क़दर नागवार गुज़रा कि उस पर प्रतिबंध लगा दिया. उपन्यास चाय बाग़ान के एक ऐसे अंग्रेज़ प्लांटर पर चले मुक़दमे का बयान है, जिसने अपने एक कुली की हत्या इसलिए कर दी क्योंकि वह अंग्रेज़ के बलात्कार की कोशिश से अपनी बेटी को बचा रहा था. अंग्रेज़ ज्यूरी ने प्लांटर को इस मुक़दमे में रिहा कर दिया.

‘टू लीव्ज़ एण्ड अ बड’ भारत के अलावा ब्रिटेन और अमेरिका में भी एक साथ छपा. ख़्वाजा अहमद अब्बास को भी यह उपन्यास बहुत भाया. इसमें उन्हें भारतीय समाजवाद के उभार का एक पहलू दिखाई दिया. इस एक नुक़्ते का छोर पकड़कर, अब्बास ने 1956 में फ़िल्म ‘राही’ बनाई. हालांकि देव आनंद, बलराज साहनी, नलिनी जयवंत और हबीब तनवीर जैसे बेहतरीन अदाकारों, प्रेम धवन और अनिल विश्वास जैसे गीतकार, संगीतकार होने के बाद भी फ़िल्म बॉक्स ऑफ़िस पर नाकाम रही.

धुन और इरादे के पक्के
जॉर्ज ऑरवेल उनके बड़े प्रशंसक थे. ‘द सोर्ड एंड द सिकल’ के बारे में ऑरवेल ने कहा था, ‘‘आनंद का नॉवेल (भारतीय) सांस्कृतिक जिज्ञासा जगाता है.’’ मुल्कराज आनंद ने अंग्रेज़ी में ज़रूर लिखा, लेकिन वे हमेशा भारतीय बने रहे. अंग्रेज़ी के वे पहले लेखक हैं, जिन्होंने अपने लेखन में पंजाबी और हिंदी शब्दों का ख़ूब इस्तेमाल किया. भारतीय जबानों को लेकर उनमें कोई हीनता का कोई बोध नहीं था.

उनके दोस्त सज्जाद ज़हीर ‘रौशनाई तरक़्क़ीपसंद तहरीक़ की यादें’ में लिखते हैं,‘‘आनंद स्वभाव से बड़ी जोशीली तबीयत के आदमी हैं. उनकी लेखनी जिस तेज़ी से चलती है, उससे ज्यादा तेज़ी के साथ उनकी ज़बान चलती है. अगर उनमें किसी बात की धुन हो जाए, तो फिर वे अपनी बात को मनवाने के लिए या अपने काम को अंजाम देने के लिए ज़मीन-आसमान के कलाबे मिला देते हैं. वे उन गिनती के चंद लेखकों में से हैं, जो किताब लिखने पर ही नहीं उसके मुद्रण और प्रकाशन पर भी उतनी ही मेहनत करते हैं. एक भारतीय लेखक के लिए इंग्लैंड में अंग्रेज़ी में नॉवेल लिखकर इंग्लैंड की किताबों की मंडी में अपने लिए एक ऊंची जगह बना लेना, आनंद का ही काम था.’’

इसी किताब में सज्जाद ज़हीर कहते हैं,‘‘कई बार तो आनंद के दोस्त यह महसूस करते हैं कि वे एक अच्छे और संवेदनशील साहित्यकार ही नहीं, बल्कि अपनी किताबों के एक कुशल व्यापारी भी हैं. इसके बावजूद उनका अदबी मर्तबा कम नहीं होता. वे तमाम सांस्कृतिक और साहित्यिक प्रगतिशील आंदोलनों में आगे बढ़कर हिस्सा लेते हैं. और अगर ऐसे मौक़ों पर किसी ख़ास काम की ज़िम्मेदारी उन्होंने अपने ऊपर ले ली, तो फिर वे निचले नहीं बैठते. वे अपने साथ अपने इर्द-गिर्द बल्कि दूर के लोगों को भी हिलने-डुलने पर मजबूर कर देते हैं. और जैसे भी हो वे उस काम को अंजाम देते हैं कि मालूम होने लगता है, वह उनका ज़ाती या निजी काम है. कई लोगों को आनंद के कामों में आत्मप्रदर्शन दिखाई देता है. लेकिन आनंद को इसकी बिल्कुल परवाह नहीं होती. और वे अपने काम में जुटे रहते हैं. उनके स्वभाव में जो व्यग्रता और बेचैनी है, वह उनकी अतिशय संवेदनशीलता और मस्तिष्क की तेज़ी का नतीजा मालूम होती है. और जब उनके भीतर भावनाओं का ज्वार उठता है, तो इससे उनका अहंवाद नहीं, बल्कि उनके मन की कोमलता व्यक्त होती है.’’

पीडब्ल्यूए से उम्र भर रिश्ता रहा
‘प्रोग्रेसिव राइटर एसोसिएशन’ से ताउम्र उनका गहरा तआल्लुक रहा. मुल्क में इस तंजीम को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने हर मुमकिन-नामुमकिन काम किया. कलकत्ता में जब प्रगतिशील लेखक संघ की दूसरी अखिल भारतीय कॉन्फ्रेंस हुई, तो आनंद उस वक्त लंदन में थे, लेकिन इस कॉन्फ्रेंस के लिए वे ख़ास तौर से भारत आए. लखनऊ में उनका क़याम हुआ और वहीं से उन्होंने संगठन के काम-काज को रफ्तार दी. संगठन की मैग्ज़ीन ‘न्यू इंडियन लिटरेचर’ की ज़िम्मेदारी उन्होंने अपने ऊपर ले ली. मैग्ज़ीन के संपादन मंडल में उनके साथ डॉ. अब्दुल अलीम और अहमद अली भी शामिल थे.

मुल्कराज आनंद ने बंबई, कलकत्ता, लाहौर, अमृतसर और कई शहरों में घूम-घूमकर मैग्ज़ीन के सालाना मेंबर बनाए, चंदा भी इकट्ठा किया. मैग्ज़ीन के दो अंक ही आ सके. 1939 में अपनी किताबों के प्रकाशन के सिलसिले में वह इंग्लैंड वापस गए, तो मैग्ज़ीन भी बंद हो गई. कलकत्ता कॉन्फ्रेंस में उन्होंने कॉन्फ्रेंस में तरक्कीपसंद तहरीक की विस्तृत रूपरेखा और उसकी आगामी चुनौतियों पर बहुत शानदार वक्तव्य भी दिया. उनका यह वक्तव्य ‘न्यू इंडियन लिटरेचर’ के पहले अंक में छपा.

दर्शन और इतिहास के वह विद्वान थे, साथ ही भारतीय साहित्य, कला, पुरातत्व और संस्कृति में उनकी गहरी दिलचस्पी थी. वी.के. कृष्ण मेनन के साथ उन्होंने इंडिया लीग में काम किया. 1965 से लेकर 1970 तक वे ललित कला अकादमी के अध्यक्ष रहे. 1967-68 में इंस्टीट्यूट ऑफ़ एडवांस स्टडीज़, शिमला के विजिटिंग प्रोफेसर रहे. ‘मार्ग’ पत्रिका शुरू की और ‘कुतुब पब्लिशर्स’ के निदेशक रहे. साहित्य के अलावा कला, संस्कृति, राजनीति और इतिहास पर भी ख़ूब लिखा.

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