लोहड़ी का महानायक दूल्हा भट्टी

  • 1:48 pm
  • 13 January 2020

लोहड़ी पंजाबी लोकाचार का सबसे बड़ा पर्व है. पंजाबीयत की साझा विरासत का सशक्त प्रतीक भी. माना जाता है कि लोहड़ी की रात के बाद कड़कड़ाती ठंड का सफ़र ढलान की ओर जाने लगता है. हालांकि यह पक्ष अब ऋतु–चक्र के मिजाज़ पर ज्यादा निर्भर है. फिर भी मान्यता यही है कि लोहड़ी की रात पूरे रस्मो रिवाज के साथ, अग्नि का अतिरिक्त सम्मान करते हुए ठंड को विदाई दी जाती है. पंजाबी पूरे उमंग से इसे मनाते हैं और यह कहकर लोहड़ी की रात ख़ुशहाली की कामना करते हैं कि “इशर (ख़ुशहाली) आए, दलिद्दर जाए/दलिद्दर दी जड़ चूल्हे पाए.” यानी बदहाली पूरी तरह से स्वाहा हो जाए. दूसरे पर्वों की तरह लोहड़ी के बारे में भी कई क़िस्से हैं और बदलते युग के लिहाज़ से कुछ पुरातन विसंगतियां भी, जो वैज्ञानिक चेतना के साथ-साथ रफ़्ता-रफ़्ता बदल भी रही हैं. इनमें से एक अहम् तो यही है कि लोहड़ी पुत्र-जन्म और पुत्र-विवाह का प्रतिनिधि उत्सव भी है. अब पंजाब और इसके आसपास के इलाकों में ‘धीओं (यानी बेटियों) की लोहड़ी’ के बढ़ते प्रचलन ने इस त्योहार को यक़ीनन नए अर्थ दिए हैं. इसे बेहतर समझने के लिए लोहड़ी के लगभग सर्वमान्य इतिहास के पन्नों को पलट लेने में क्या हर्ज़ है.

लोहड़ी जहां भी मनाई जाती है, एक गीत की पंक्तियों के बग़ैर अधूरी मानी जाती है, ‘सुंदर मुंदरीये, तेरा कौन विचारा हो…दुल्हा भट्टी वाला हो….’ यानी दूल्हा भट्टी इस पर्व का नायक है और यह गीत उसकी शान में बच्चों से लेकर बड़ों तक गाया जाता है. लोक गाथा के मुताबिक दूल्हे के पिता फ़रीद ने अकबर के ख़िलाफ बग़ावत की और अकबर ने फ़रीद और उसके पिता का क़त्ल करा दिया. बचपन में मुगल हकूमत द्वारा अपने पिता-दादा के क़त्ल की कहानियां सुनते-सुनते बड़ा हुआ दूल्हा भी बाग़ी हो जाता है. उस वक्त के इलाक़े के हाकिम ने हिन्दू लड़की सुंदरी (कुछ के अनुसार दो लड़कियों सुंदरी व मुंदरी) का अपहरण कर लिया. दूल्हा सुंदरी को हाकिम के चंगुल से छुड़ाकर उसकी शादी कराता है. शादी के लिए वह लोगों से सहयोग मांगता है. हाकिम के ख़ौफ़ से कोई सहयोगी हाथ आगे नहीं बढ़ता, सिर्फ़ सवा सेर शक्कर मिलती है. इसका ज़िक्र इस गीत में है. उसकी तमाम जमीन-जायदाद ज़ब्त कर ली जाती है. बाद में मुग़लों से लड़ता हुआ दूल्हा गिरफ़्तार हो जाता है और अकबर के दीन-ए-इलाही मानने से इनकार करने के चलते फांसी पर लटका दिया जाता है. ऐसी बेमिसाल बहादुरी के चलते दूल्हा पंजाब में जुल्मत के ख़िलाफ़ बग़ावत का सबसे बड़ा प्रतीक बनकर उभरता है. पंजाबी लोक में उसे महानायक का दर्जा हासिल है. फांसी के बाद उसके नाम पर पंजाब में गीत बने और घर-घर गाए जाने लगे. जिन्हें ‘वारां’ भी कहा जाता है.

मियानी साहिब क़ब्रिस्तान में दूल्हा भट्टी की क़ब्र. फ़ोटोः विकीमीडिया कॉमन्स

पंजाब के क़िस्सा (लोक गाथा) साहित्य में सबसे ज्यादा मक़बूल दूल्हा भट्टी का क़िस्सा माना जाता है. कभी लोहड़ी के दिन यह प्रार्थना गीत जैसा दर्ज़ा रखता था. परंपरा के मुताबिक बच्चे आज भी लोहड़ी की शुरुआत में जब घर-घर जाकर बख़ुशी लोहड़ी ‘मांगते’ हैं तो सिर्फ़ ‘सुंदर मुंदरीये…’ का सामूहिक गान करते हैं. लोक परंपराओं में यह एक विलक्षण उदाहरण है. अविभाजित पंजाब में किशन सिंह का लिखा दूल्हा भट्टी का क़िस्सा लाखों लोगों की ज़बान पर चढ़ा. पाकिस्तानी पंजाब के नामचीन लेखक और किसान मजदूर पार्टी के संस्थापक इसहाक मोहम्मद ने दूल्हा भट्टी पर नायाब नाटक ‘कुकनस’ लिखा. इसी मानिंद पाकिस्तान में फ़ौजी दमन के दौर में प्रख्यात जनवादी लेखक अहमद सलीम ने ‘दूल्हे दी वार’ शाहकार रचा. पाकिस्तान में ही नजम हुसैन सैयद ने नाटक ‘तख़्त लाहौर’ लिखकर दूल्हा भट्टी का नाता शाह हुसैन से जोड़ा. पंजाबी के लब्धप्रतिष्ठ नाटककार गुरशरण सिंह ने अपने मक़बूल नाटक ‘धमक नगाड़े दी’ के जरिए दूल्हे का जीवन चरित्र महान लोकनायक के तौर पर पेश किया. इस नाटक का शुमार गुरशरण सिंह के अहम् नाटकों में है.

इन तमाम नाटकों/ क़िस्सों/ रचनाओं की अंतर्वस्तु में महिलाओं की हिफ़ाज़त में अपनी जान देना दूल्हा भट्टी के महानायकत्व का सार है. लोहड़ी के दिन अनिवार्य तौर पर गाए जाने वाले गीत ‘सुंदरी-मुंदरी’ की बुनियाद भी यही है कि पुरुष को ही औरत की रक्षा करनी है. इसलिए गाहे-बगाहे कुछ लोग यह तर्क भी देते हैं कि यह वस्तुतः पुरुष प्रधान पर्व है. बेटे के जन्म और उसकी शादी के बाद लोहड़ी ‘डाली’ जाती है. बेटियों को अबला मानकर उनकी हिफ़ाज़त के दूल्हा भट्टी की बेमिसाल क़ुर्बानी को रेखांकित किया जाता है. हालांकि अब इस पूरे रुझान में बदलाव आया है. हर पर्व का इतिहास और मिथक समय-समय पर नए मोड़ लेता ज़रूर है. साथ ही उसके सच्चे नायकों की प्रासंगिकता भी क़ायम रहती है, जैसी दूल्हा भट्टी की आज भी है.

पंजाबियों में लड़कियों की लोहड़ी (भी) मनाने की रिवायत जब शुरु हुई थी, तब असंगठित नारी आंदोलनों का दौर था. सो कहीं-कहीं पहले पहल विरोध हुआ, फिर इसे परवान किया गया और अब कोई इसे अचरज से नहीं देखता बल्कि लोगों में अतिरिक्त उत्साह पाया जाता है. प्रसंगवश, आज के मनुष्यविरोधी अंधेरे में लाखों लड़कियां और महिलाएं हैं, ख़िलाफत की लोहड़ी जला रही हैं, क्यों न उन्हें (लोहड़ी की लोक गाथा के महानायक) दूल्हा भट्टी की परंपरा में माना जाए? फिर लोहड़ी अग्निपर्व भी तो है!


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