टोंक में वांग्मय और कला का ख़ज़ाना

किसी भी संस्कृति और सभ्यता के विकास क्रम में ग्रंथों, पांडुलिपियों और पुस्तकों का महत्वपूर्ण योगदान रहता है, जो दस्तावेज़ीकरण तथा इतिहास लेखन का सशक्त माध्यम है. भारत में सदियों से ऋषि, मुनियों, विद्वानों, सूफ़ियों, मनीषियों ने तमाम विषयों पर ग्रंथ लिखे, जो आज भी प्रासंगिक और समीचीन है. कम प्रचलित किंतु महत्वपूर्ण विषयों पर भी ग्रंथ लिखा जाना भारतीय लेखन परंपरा की सशक्त बानगी रही है. इसी परंपरा में विविध विषयों पर कई भाषाओं में ग्रंथ लिखे जा चुके हैं. मानव विकास के क्रम में छापेख़ाने के आविष्कार से पहले ताड़-पत्र, हाथ से बने कागज, पशु-चर्म पर हस्तलिखित ग्रंथ तैयार किए जाते रहे है. बहुधा, ये ग्रंथ चित्रित और अलंकृत भी हुआ करते थे यानी कला और वांग्मय एक साथ पोषित हो रहे थे.

राजस्थान में भी हस्तलिखित ग्रंथों के लेखन व संग्रह की सशक्त परम्परा रही है. जोधपुर का राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान और टोंक का अरबी-फ़ारसी शोध संस्थान इस सन्दर्भ में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं. जयपुर से क़रीब 100 किलोमीटर दूर स्थित टोंक, राजपूताना की एकमात्र मुस्लिम रियासत रही है, जिसकी स्थापना वर्ष 1806 में अफ़गानिस्तान के सालारज़ई वंश के पठान सरदार मोहम्मद आमिर ख़ान (1769-1834) ने की थी. टोंक के प्रथम नवाब मोहम्मद आमिर ख़ान ने मराठा सरदार जसवंत राव होल्कर के साथ कई सैन्य अभियान में भाग लिया. भिन्न-भिन्न कालखंडों में टोंक के नवाबों ने प्रशासनिक दक्षता के साथ-साथ सांस्कृतिक, कलात्मक गतिविधियों व स्थापत्य विधा को प्रश्रय व प्रोत्साहन देने का कार्य किया. टोंक की सुनहरी कोठी, बड़ा कुआं, जामा मस्जिद क्षेत्र की स्थापत्य कला के जीवंत उदाहरण कहे जा सकते हैं.

टोंक के नवाबों की तरह ही वहां की बेगमों का योगदान भी अविस्मरणीय रहा है, नवाब इब्राहिम अली ख़ान की पहली बीवी लाडली बेगम ने हज यात्रियों के लिए मक्का-मदीना में रब्बात का निर्माण कराया था. टोंक के दूसरे नवाब वज़ीर उद् दौला मुग़ल बादशाह अकबर द्वितीय के समकालीन रहे, और उन्होंने अमीरगढ क़िले में एक प्राच्य पुस्तकालय, जिसे कुतुबख़ाना-ए-वज़ीरी कहा जाता था, की स्थापना की. तीसरे नवाब मोहम्मद अली ख़ान (1864-67) को ब्रिटिश सरकार ने कतिपय कारणों से टोंक से बनारस निर्वासित कर दिया, जहां वे मृत्युपर्यंत रहे. नवाब मोहम्मद अली ख़ान साहित्य प्रेमी थे और उन्होंने अरबी, फ़ारसी और उर्दू भाषा के कई दुर्लभ और अप्राप्य हस्तलिखित ग्रंथों एवं पांडुलिपियों का देश-विदेश से संग्रह किया, जिसे वे बनारस ले गए और वहां भी अपने संग्रह में उत्तरोतर वृद्धि करते रहे. वर्ष 1896 में उनकी मृत्यु पर उनके विद्वान पुत्र साहिबज़ादा अब्दुर्रहीम सम्पूर्ण संग्रह बनारस से टोंक ले आए और उसे आमजन के अवलोकनार्थ सुलभ किया गया. साहिबज़ादा अब्दुर्रहीम भी इस संग्रह में वृद्धि करते गए और वर्ष 1921 में उनकी मृत्यु के बाद तत्कालीन रियासत के वज़ीरे आज़म साहिबज़ादा अब्दुल वहाब ख़ान का व्यक्तिगत संग्रह भी इस संग्रह में शामिल किया गया.

वर्तमान अरबी-फ़ारसी शोध संस्थान वर्ष 1973 में अस्तित्व में आया तथा 1978 में निदेशालय, अरबी-फ़ारसी शोध प्रतिष्ठान की स्थापना की गई और इसे मौलाना अबुल कलाम आज़ाद अरबी-फ़ारसी शोध प्रतिष्ठान नाम दिया गया. संस्थान के निर्माण एवं इसे लोकप्रिय बनाने में संस्थान के प्रथम निदेशक शौक़त अली ख़ान का बड़ा योगदान रहा.

संस्थान में 5वीं सदी ईस्वी से 11वीं सदी ईस्वी तक के कालखंड के अरबी, फ़ारसी व उर्दू भाषा के हस्तलिखित ग्रंथ उपलब्ध है, जो कि क़ुरान, हदीस, इस्लामिक न्याय-विधि, नैतिकता, सूफ़ी-संतों के उपदेश, दर्शनशास्त्र, भाषा-शास्त्र, विज्ञान, भूगोल, सुलेखन, धर्मशास्त्र, औषधि-विज्ञान, खगोल, गणित, ज्योतिष व अन्य विषयों पर केंद्रित है. इनके अलावा मुंशी ख़ाना-ए-हुजूरी के नाम से ऐतिहासिक दस्तावेज़ों का प्रचुर संग्रह भी उपलब्ध है, जिसमें टोंक रियासत के विशेष संदर्भ के साथ राजस्थान के राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास से संबंधित फ़रमान, खरीते और शरीयत दस्तावेज़ शामिल हैं. संग्रह में संस्कृत से अरबी और फ़ारसी भाषा में किए गए अनुवाद किए हुए ग्रंथों का भी महत्त्वपूर्ण संग्रह है.

इस्लामिक परम्परा में चित्र निर्माण निषिद्ध रहा है और स्याही से विभिन्न प्रकार का सुलेखन चित्रात्मक शैली में किया जाना इस्लामिक पांडुलिपियों की विशिष्ट परम्परा रही है, जिसमें भिन्न- भिन्न सुलेखन शैलियां, पशु, पक्षियों, मानवाकृतियों का आभास देती है (तुगरा). इन सुलेखन शैलियों में कूफी, शिकस्ता, नस्तलिक, थुलुथ, गुबार और रिकह आदि प्रमुख है. पांडुलिपियों के अलंकरण के लिए सोने व लाजवर्द रंगों का प्रयोग किया जाता रहा है. यहाँ अरबी-फ़ारसी शोध संस्थान मे संग्रहित कतिपय महत्वपूर्ण ग्रथों का विवरण प्रस्तुत है.

इस्लामिक परम्परा में क़ुरान की प्रतियां बनाना एक पवित्र कार्य माना गया है और कई सूफ़ियों, विद्वानों और बादशाहों यह पुनीत कार्य करते रहे हैं. संस्थान में विभिन्न काल-खंडों में लिखित क़ुरान की प्रतियां उपलब्ध हैं. मुगल बादशाह औरंगज़ेब द्वारा नस्ख़ कैलीग्राफ़ी में लिपिबद्ध अल क़ुरान उल करीम (18वीं सदी) में 656 पृष्ठ हैं और प्रत्येक पृष्ठ में नौ पंक्तियां लिखी हुई हैं. पृष्ठ के चारों तरफ़ सुनहले रंग से बने फूल अलंकरण निर्मित है. इसी प्रकार संग्रह का सी वर्की क़ुरान उल मजीद (17वीं सदी) महीन नस्ख़ सुलेखन में सुलेखक अब्द उल बकी द्वारा कलमबद्ध प्रति हैं. अरबी भाषा में सी का तात्पर्य तीस होता है और स्पष्ट है कि क़ुरान शरीफ़ की इस प्रति में तीस पृष्ठ हैं और प्रत्येक पृष्ठ पर 41 पंक्तियाँ लिखित हैं. अब्द उल बकी द्वारा क़ुरान शरीफ़ की यह प्रति शाहजहां को प्रस्तुत करने पर उन्हें “याकूत रक़म” की उपाधि दी गई. पाण्डुलिपि के प्रथम दो पृष्ठ सुनहरे रंगों से एवं पुष्प-अलंकरणों से सज्जित हैं.

इसी प्रकार ख़त-ए-ग़ुबार सुलेखन शैली में लिपिबद्ध अल क़ुरान उल मजीद की प्रति एक अद्भुत उदाहरण है,तथा ग्रन्थ एजाज उल बयान ली मानिल क़ुरान, 1259 में नजमुद्दीन अबुल कासिम मेहमूद अल कजवीनी द्वारा क़ुरान शरीफ़ पर लिखी टीका है, जिसकी नस्ख़ सुलेख में प्रतिलिपिकार अब्दुल्लाह बिन मुहम्मद द्वारा रचित प्रतिलिपि संस्थान में उपलब्ध है. पाण्डुलिपि के 159 पृष्ठ हैं और किनारों पर विद्वानों की टिप्पणियां देखी जा सकती है. हिलायत उन नबी ग्रन्थ हज़रत अली द्वारा लिखित है एवं जिसमें पैग़ंबर मोहम्मद साहब का चरित्र वर्णन किया गया है. संस्थान में प्रदर्शित, इस ग्रंथ की प्रतिलिपि का कालखंड 16वीं सदी है, किन्तु प्रतिलिपिकार अज्ञात है. सुनहरे और लाजवर्द रंगों से अलंकृत इस पाण्डुलिपि में नस्ख़ और नस्तलिक सुलेखन विधि से लेखन किया गया है, ग्रंथ में 18 पृष्ठ और प्रत्येक पृष्ठ पर आठ पंक्तियां अंकित है.

इस्लामिक धार्मिक परंपरा में सहीह उल बुख़ारी महत्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता रहा है, जो हदीस के छह संग्रहों में से एक है. हदीस की विषय-वस्तु पैग़ंबर मोहम्मद साहब की जीवन से जुड़ी घटनाओं एवं शिक्षाओं पर आधारित है. सहीह उल बुख़ारी को विद्वान मुहम्मद इब्न अल बुख़ारी द्वारा लिपिबद्ध किया गया था. प्रतिलिपिकार अबू सईद द्वारा रचित कृति (1510 ईस्वी) नस्ख़ सुलेखन में लिखी पांडुलिपि है, जो संस्थान में उपलब्ध है. पाण्डुलिपि में 273 पृष्ठ हैं और प्रत्येक पृष्ठ पर 24 पक्तियां अंकित है. पहले दो पृष्ठ सुनहरे और लाजवर्द रंगों से अलंकृत है, तथा अंत में इमाम बुख़ारी का संक्षिप्त जीवनवृत्त अंकित है. अरबी भाषा के धार्मिक विषयों के अतिरिक्त, संग्रह में तकरीब उन नस्र (1429 ई.), कंज उद दकाईक (1310 ई.), तारीख़ ए मसूदी (957ई.), जाद उल मसीर फी इल्म इत तफ्सीर (13वीं सदी), किताबु तहरीर ए उक्लीदस (13वीं सदी ) सरीखे महत्वपूर्ण ग्रन्थ या उनकी प्रतिलिपियां है.

शम्सुद्दीन अबुल ख़ैर मोहम्मद द्वारा रचित तकरीब उन नस्र वस्तुत: एक आज्ञा पत्र है, जिसके प्रतिलिपिकार मोहम्मद बिन मोहम्मद बिन अहमद बिन नस्र बिन इब्राहिम है. नस्ख़ सुलेख में लिखी इस पाण्डुलिपि के दूसरे पृष्ठ पर मुगल बादशाह औरंगज़ेब की मोहर अंकित है, जो इस प्रकार पढ़ी जा सकती है, ‘नसीरुद्दीन हुसैन ख़ानज़ादा बादशाह आलमगीर’. इस ग्रंथ में 115 पृष्ठ और प्रत्येक पृष्ठ पर 19 पक्तियां अंकित है. इसी प्रकार कंज उद दकाईक 1310 ईस्वी में हाफ़िज़ुद्दीन अबुल बरकत अब्दुल्ला द्वारा लिखित ग्रंथ है जिसकी प्रति 1826 ईस्वी में प्रतिलिपिकार इमामुद्दीन द्वारा तैयार की गई थी. प्रतिलिपि में सोने और लाजवर्द से नयनाभिराम अलंकरण बनाए गए है. ग्रन्थ में 410 पृष्ठ और प्रत्येक पृष्ठ में छह पक्तियां अंकित हैं.

तारीख़ ए मसूदी, कुतुबुद्दीन अबुल हसन द्वारा 657 ईस्वी में रचित ग्रंथ है, जिसके प्रतिलिपिकार मोहम्मद अली शाहवरी है, जिन्होंने 16वीं सदी में इस ग्रंथ की प्रतिलिपि तैयार की. वस्तुत: यह ग्रंथ इतिहास और यात्रा वृत्तान्त पर आधारित है. जब यह ग्रंथ मुगल बादशाह अकबर के नवरत्नों में से एक रत्न अब्दुल रहीम ख़ान-ए-ख़ाना को प्रस्तुत किया गया था, तब उन्होने स्वयं ग्रन्थ पर फ़ारसी भाषा में पंक्तिया लिखी, जिसका तात्पर्य है, ‘यह ग्रन्थ तारीख़ ए मसूदी जिसका वास्तविक नाम मुरूज उज जहाब है, को उपहार के तौर पर दक्कन से 21 रब्बी उस सानी 1030 अल हिजरी को मुहम्मद ताज़िर मुमीन द्वारा भेजा गया. हस्ताक्षर – अब्दुर्रहीम’. इस ग्रंथ पर मुगल पुस्तकालय की विभिन्न मोहरों की छापें भी देखी जा सकती है, जिसमें दो औरंगज़ेब से संबधित है, लेकिन आलमगीर बादशाह शब्द ही पढा जा सकता है, अन्य शब्द स्पष्ट नहीं है.

किताबु तहरीर ए उकलीदस गणित विषय पर नसीरुद्दीन अबू ज़ाफ़र मुहम्मद द्वारा 1274 ईस्वी में रचित ग्रन्थ है. संस्थान में प्रदर्शित ग्रन्थ की प्रतिलिपि के प्रतिलिपिकार अली बिन हुसैन है और नस्ख़ सुलेखन में लिखी, 90 पृष्ठ के इस ग्रन्थ में गणितीय और ज्यामितीय रचनाएँ अकित हैं. संस्थान के फ़ारसी भाषा के ग्रंथों में अजायब उल मखलूकात, अकबरनामा, फ़रसनामा, फीलनामा, शाहनामा, तारीख़ ए ताजगंज और जैब उत तवारीख प्रमुख चित्रित ग्रन्थ है. 1283 ईस्वी में लिखित अजायब-उल-मखलूकात की नस्तलिक सुलेख में लिखी फ़ारसी संस्करण में विचित्र जीव-जंतुओं, ग्रहों, आकाश गंगाओं, पौधों का सचित्र वर्णन है. मूल ग्रन्थ के रचयिता जकरिया बू मुहम्मद बू मेहमूद अल कमूनी थे और फ़ारसी संस्करण के अनुवादक और अनुवाद का कालखंड अज्ञात है. इसी प्रकार अकबरनामा की 18वीं सदी की प्रतिलिपि नस्तलिक सुलेख का सुन्दर उदाहरण है. ग्रन्थ में 285 पृष्ठ, प्रत्येक पृष्ठ पर 16 पंक्तियां हैं और पाण्डुलिपि का प्रथम पृष्ठ अलंकृत है.

संग्रह के फ़रसनामा और फ़ीलनामा क्रमश: घोडों और हाथियों पर केंद्रित पांडुलिपियां है, फ़रसनामा को भारतीय प्राच्य पाण्डुलिपि शालिहोत्र व ईरान के ग्रन्थ फ़ुरुसिया (घोड़ों से सम्बंधित संग्रह) के तथा फ़ीलनामा को गज-शास्त्र के समानुरूप माना जा सकता है. फ़रसनामा में 67 पृष्ठ व फीलनामा में 53 पृष्ठ हैं. फ़ीलनामा ग्रन्थ के लेखक अज्ञात हैं और प्रतिलिपिकार इंजमाम अली ख़ान है, जिन्हें नवाब मुहम्मद अली ख़ान ने इस कार्य का ज़िम्मा दिया था. 11वीं सदी के कवि फ़िरदौसी द्वारा रचित शाहनामा की प्रति संस्थान में उपलब्ध है, 165 पृष्ठ की इस प्रति में रुस्तम-सोहराब से जुड़े कई वृत्तांतों के चित्र बने हुए है. चित्रों में सोने और प्राकृतिक रंगों की बहुतायत मिलती है. इसी प्रकार नस्तलिक सुलेख में लिखे ग्रन्थ तारीख़ ए ताजगंज में ताजमहल से संबधित चित्र व मापों का वर्णन है. ग्रंथ के रचनाकार अज्ञात हैं और प्रतिलिपि का कालखंड 16वीं सदी ईस्वी है. पाण्डुलिपि में क़ब्रों, मसाजीद, सिंहासन पर उत्कीर्ण लेखों का संक्षिप्त ब्यौरा भी मिलता है.

ज़ैब उत तवारीख़ की प्रतिलिपि का पन्ना

लाला गोकुल चंद की कृति जैब उत तवारीख़ (1822 ईस्वी) की संस्थान में उपलब्ध प्रतिलिपि के प्रतिलिपिकार मानिकचंद है, ग्रंथ का प्रमुख विषय बेगम समरू या ज़ैबुन्निसा (ज़ैब उन निशा) है (1751-1836), जो कि 18वीं सदी के उत्तरार्ध में उत्तर भारत में एक सशक्त महिला शासक थी. यह नृत्यांगना वॉल्टर राइनहार्ट ‘सोम्बर’ के हरम में थीं और राइनहार्ट का दिल्ली में उत्तर-पूर्व क्षेत्र में ख़ासा प्रभाव था. 1778 में राइनहार्ट की मृत्यु बाद ज़ैब उन निशा सशक्त प्रशासक के तौर पर उभरीं, चूँकि राइनहार्ट का उपनाम सोम्बर था उसी वजह से ज़ैबुन्निसा का नाम बेगम समरू पड़ा और उसने सरधना नामक स्थान पर कुशलता पूर्वक शासन किया. उसका मुग़ल बादशाह शाह आलम (1756-1806) पर बड़ा प्रभाव था, शाह आलम ने उसे प्रिय बेटी या दुख़्तर ए अज़ीज़: का ख़िताब दिया था.

संस्थान में संग्रहित ज़ैब उत तवारीख़ की प्रतिलपि में बेगम समरू, वॉल्टर राइनहार्ट, मुग़ल बादशाह शाह आलम व अन्य विषयों पर 77 लघु चित्र है. आलेख नस्तलिक सुलेख में लिखा है और इस पांडुलिपि की कुछ प्रतिलिपियाँ ही विश्व के विभिन्नि संस्थानों में प्राप्य है, जिसमें ब्रिटिश म्यूज़ियम, इंग्लैंड, चेस्टर बेट्टी लाइब्रेरी, डबलिन प्रमुख है. संस्थान के अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथों में अध्यात्म रामायण, अग़राज़ उस सियासा फी अग़राज़ उर रियाया, खुलासतुत तवारीख़ (17वीं सदी), अख़लाक़ ए मुहासिनी, सुबह ए सादिक (17वीं सदी), तारीख़ ए किला रणथंभोर, तारीख़ ए राजस्थान (16वीं सदी), जफ़रनामा ए नुशीरवां (12वीं सदी), तुजुक ए जहांगीरी, शाहजहांनामा और इक़बाल नामा ए जहांगीरी प्रमुख अलंकृत ग्रन्थ है. वर्तमान समय भी संस्थान संग्रह में वृद्धि के साथ उनके संरक्षण के लिए क्रियाशील है.

(लेखक कला एवं विरासत विशेषज्ञ हैं. जयपुर में रहते हैं.)

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