सिनेमा | बारिश और बादलों से रची उत्कृष्ट कविता ‘मानिक बाबूर‌‌ मेघ’

मसाला फ़िल्मों की भीड़ में जगह बनाना सबसे मुश्किल काम है. ऐसे में कोई फ़िल्म तमाम दिक़्क़तों और जद्दोजहद से पार पाते हुए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय फ़लक पर दर्शकों का ध्यान खींचती है, तो उसकी तारीफ़ ज़रूर की जानी‌ चाहिए. ऐसी ही एक उत्कृष्ट बांग्ला फ़िल्म है, ‘मानिक बाबूर मेघ.’ इस फ़िल्म का अंग्रेज़ी टाइटल ‘द क्लाउड एंड द मैन’ है. एक घंटा छत्तीस मिनट की‌ यह मोनोक्रोम (श्वेत-श्याम) बांग्ला फ़िल्म बेहद कम बजट की है, लेकिन इसकी विषय-वस्तु इतनी संवेदनशील और रचनात्मक है कि आप ‘मानिक बाबूर मेघ’ देखने बैठेंगे, तो पूरी फ़िल्म देखकर ही उठेंगे. फ़िल्म के मुख्य किरदार मानिक बाबू (अभिनेता चंदन सेन) ने इस फ़िल्म में इतना डूबकर अभिनय किया है कि हर फ़्रेम में दर्शकों की नज़र उन पर टिकी रहती है. लगता है, सिनेमा के स्क्रीन पर एक बेहतरीन कविता पढ़ रहे हों.

तभी तो ‘मानिक बाबूर मेघ’ देखते हुए इस मौसम की तपिश नहीं, बल्कि चंद्रमा की शीतलता महसूस होती है. पूरी फ़िल्म यथार्थ और कल्पना के ताने-बाने में बुनी गई है. फ़िल्म देखते वक्त लगता है कि यह तो हमारे आसपास की कहानी है. ‘मानिक बाबू’ हमारे बीच के आदमी हैं.

‘मानिक बाबूर मेघ’ (द क्लाउड एंड द मैन)‌ दरअसल एक ऐसे शख़्स की कहानी है, जो किराए के एक जर्जर मकान में सबसे ऊपर की मंज़िल पर रहता है. उनके नैन-नक़्श से मालूम होता है कि मानिक बाबू न तो अधेड़ हैं और न ही बुज़ुर्ग. घर में एक बीमार बाप भी है, जिसे मानिक बाबू अपने हाथों से खाना खिलाते हैं. देह-हाथ भी पोंछता है. उस मकान के ऊपरी हिस्से में छोटे-छोटे पौधे भी है, जिसकी देखभाल मानिक बाबू ख़ुद करते हैं. वह अपने मोहल्ले में सामान्य लोगों की तरह कभी-कभी छोटे होटल में लंच भी करते हैं और सड़क के कुत्तों को भी खाना खिलाते हैं. जब बारिश आती है, तो उसका लुत्फ़ भी उठाते हैं. फ़िल्म परोक्ष में पर्यावरण के सरोकार भी रेखांकित करती है. ऊंची-ऊंची इमारतों वाले शहर में पेड़-पौधों की फ़िक्र भला कौन करता है! एक पतनशील और ढहते हुए शहर की कथा भी है ‘मानिक बाबूर मेघ’. निर्देशक अभिनंदन बनर्जी ने सभी दृश्यों को बहुत बढ़िया ढ़ंग से पिरोया है.

मानिक बाबू बादलों की गड़गड़ाहट से बहुत डरते भी हैं. उनका यह एकाकीपन तब और घना हो जाता है, जब मकान मालिक उनसे कहता है कि अब दूसरा मकान तलाश लीजिए. वह दूसरा मकान तलाश भी करते हैं, लेकिन उनकी शर्त होती है उन्हें ऊपरी मंज़िल वाली छत चाहिए.

धीरे-धीरे मानिक बाबू को बादलों और बारिश से प्रेम हो जाता है. जिस बादल से मानिक बाबू को कभी डर लगता था, वह अब उनके अकेलेपन का पूरक है. दिक़्क़त यह है कि मानिक बाबू का कोई ‌हमदर्द भी नहीं है. बारिश ही मानिक बाबू के अकेलेपन की साथी बन जाती है. बारिश की बूंदें एक रचनात्मक उम्मीद की तरह मानिक बाबू की ज़िंदगी को अपने आगोश में ले लेती हैं. एक मध्यवर्गीय व्यक्ति की जटिलताओं और जीवन संघर्ष में बारिश की बूंदें राहत देने का काम करती हैं.

अकेलेपन की त्रासद स्थितियों में भी बारिश हमें किस तरह रचनात्मक बना सकती है, फ़िल्म का मुख्य किरदार इसी भाव को जीता है. मानिक बाबू का मुख्य किरदार निभाने वाले चंदन सेन को रूस में आयोजित 19वें पैसिफिक मेरिडियन फ़िल्म महोत्सव में बेस्ट एक्टर का पुरस्कार मिल चुका है. कलकत्ता में जन्मे 61 साल के चंदन सेन बुनियादी तौर पर बांग्ला रंगमंच के दक्ष अभिनेता हैं. वर्ष 1977 से वह बांग्ला थिएटर से जुड़े. उन्होंने तमाम बांग्ला सीरियल में भी काम किया है और कुछ बांग्ला फ़िल्मों में भी. वर्ष 2010 से कैंसर की बीमारी से जूझ रहे चंदन सेन खुद को ‘फ़ाइटर’ मानते हैं और कहते हैं, ‘अभिनय में मेरी सांसें बसती हैं. अभिनय भी करता रहूंगा और ज़िंदगी से लड़ता भी रहूंगा.’

‘मानिक बाबूर मेघ’ अब तक ढ़ेर सारे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सवों में दिखाई गई है. उत्तरी यूरोप के ‘टाटिन ब्लैक नाइट’ फ़िल्म फ़ेस्टिवल से लेकर अमेरिका के कैलिफोर्निया स्थित सेंटा बारबरा फ़िल्म फ़ेस्टिवल, स्कॉटलैंड के एडिनबर्ग फ़िल्म महोत्सव, हांगकांग की फ़ायर बर्ड फ़िल्म स्पर्धा, कोलकाता के बेस्ट एशियन फ़िल्म (नेटपैक पुरस्कार), ताई-पाई गोल्डन होर्स फेंटास्टिक फ़िल्म फेस्टिवल, एशिया पैसिफ़िक स्क्रीन अवार्ड्स और अनगिनत सम्मान निर्देशक अभिनंदन बनर्जी की झोली में है. भारत के तमाम फ़िल्म महोत्सवों में भी ‘मानिक बाबूर मेघ’ को ख़ूब पसंद किया गया है.

इस फ़िल्म के निर्देशक अभिनंदन बनर्जी काफी युवा है. कहानी, पटकथा और निर्देशन तीनों उन्हीं का है. बौद्धायन मुखर्जी फ़िल्म ‘मानिक बाबूर मेघ’ के सह-लेखक हैं और इस फ़िल्म के निर्माता भी. बौद्धायन मुखर्जी और मोनालिसा मुखर्जी दोनों ने मिलकर यह ख़ूबसूरत फ़िल्म बनाई है. मोनालिसा मुखर्जी ‘मानिक बाबूर मेघ’ की कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर भी हैं.

फ़िल्म देखने वाले बरबस कह उठते हैं,’क्वालिटी सिनेमा अभी मरा नहीं है.’ फ़िल्म में ब्रात्य बसु (डॉ.साधन की भूमिका में), निमाई घोष (पिता की भूमिका में), अरुण गुहाठाकुरता (मकान मालिक के किरदार में) और देवेश रायचौधरी (काली की भूमिका में) ने भी छोटा, लेकिन अच्छा काम किया है.

छायांकन अनूप सिंह ने किया है और संपादक अभ्र बनर्जी हैं. फ़िल्म के कला निर्देशक बबलू सिन्हा हैं और साउंड डिज़ाइन अभिजीत टेनी‌ रॉय ने किया. संगीत शुभजीत मुखर्जी का है. फ़िल्म का आख़िरी गाना सचमुच लाजवाब है. बहुत दिनों बाद एक सुलझे हुए निर्देशक अभिनंदन बनर्जी का काम हमें देखने को मिला. अभिनंदन बनर्जी से दर्शकों की उम्मीदें और बढ़ गई हैं. बादल और बारिश के सहारे भी एक संवेदनशील और अनूठी फ़िल्म बनाई जा सकती है, यह फ़िल्म उसकी नज़ीर है. एक बेहतरीन फ़िल्म बनाने के लिए बौद्धायन मुखर्जी और मोनालिसा मुखर्जी को सलाम!


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