मोहन राकेश | बीयर बार में पढ़ाने वाले शिक्षक
जालंधर में पुराने कोर्ट रोड पर आबाद प्लाज़ा बार के बारे में बताने के लिए लोगों के पास बहुत कुछ हो सकता है, मगर वह उतना ख़ास नहीं सकता जितना कि रवींद्र कालिया के संस्मरण में है. बकौल रवींद्र कालिया, जब वह डीएवी में पढ़ते थे, हिंदी की उनकी क्लास अक्सर उस दौर के मशहूर बीयर बार ‘प्लाज़ा’ में लगती. पढ़ने वालों में वह और सुरेश सेठ होते, और उनके शिक्षक थे – डीएवी में हिंदी विभाग के अध्यक्ष मोहन राकेश. प्लाज़ा अब भी वहीं है, मगर मोहन राकेश और रवींद्र कालिया दोनों ही नहीं है. और अदब की दुनिया से वाबस्ता लोगों के सिवाय बाक़ी की ऐसे संस्मरणों में शायद ही कोई दिलचस्पी हो.
यह संस्मरण उस शख़्स के ख़्यालों और उसके चित्त का पता देते हैं, जिसे घर वालों ने नाम दिया था – मदन मोहन गुगलानी और ख़ुदमुख़्तार होने पर जिसे लेखक के तौर पर यह नाम कुछ जंचा नहीं, और जिसने ख़ुद को मोहन राकेश कहलाना ज्यादा पसंद किया. पंजाब में हिंदी साहित्य का एक गौरवशाली अध्याय जिसके नाम से खुलता है और जिसने अदब को इतना समृद्ध किया कि उसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती.
उनके पुरखे सिंधी थे, जो बाद में अविभाजित पंजाब के अमृतसर में आकर बस गए. उनके पिता करमचंद गुगलानी वकील थे और साहित्य-संगीत के अनुरागी. इस तरह मोहन राकेश का बचपन साहित्यकारों और संगीतकारों की सोहबत में गुजरा. पंडित राधारमण से प्रभावित होकर उन्होंने कविता लिखनी शुरू की, हालांकि बाद में गद्य लिखने लगे. पिता के देहांत के बाद उन्होंने लाहौर के ओरिएंटल कॉलेज से संस्कृत में और बाद में जालंधर से हिंदी में भी एमए किया. जालंधर के डीएवी कॉलेज में वह पढ़े थे और फिर यहीं लेक्चरर मुकर्रर हुए.
कालिया जी ने संस्मरण में जिस वाक़ये का ज़िक्र किया है, उस पर कई शिक्षकों को सख़्त एतराज था, उन्होंने प्रबंध तंत्र से इसकी शिकायत भी की मगर मोहन राकेश की क्लास की जगहें नहीं बदलीं. यह उनकी प्रतिभा ही थी, जिसके बूते मैनेजमेंट ने उनकी आज़ादख़्याली और तौर-तरीक़े बर्दाश्त किए वरना डीएवी के मैनेजमेंट का सख़्त रवैया उसकी पहचान हुआ करता था.
मोहन राकेश की तमाम नायाब कृतियां उनके जालंधर में रहते हुए लिखी गईं. कितनी ही असरदार कहानियों में ‘मलबे का मालिक’ भी शामिल है. पहला एकांकी ‘लहरों के राजहंस’ यहीं लिखा. अंग्रेज़ी और संस्कृत के कई नाटकों के अनुवाद यहीं संभव हुए. ये नाटक बाद में थिएटर की दुनिया और मोहन राकेश की पहचान का अहम हिस्सा बने. यानी उनकी सृजनात्मकता की ज़मीन यहां रहते हुए पुख़्ता हुई. ‘मोहन राकेश की डायरी’ में मिलने वाले ब्योरे में से अधिकांश का संबंध जालंधर से है.
बेहद व्यवस्थित होकर लिखने के आदी मोहन राकेश को भटकाव बहुत प्रिय था और भटकाव की परिस्थितियां भी वह ख़ुद ही पैदा करते. अपनी डायरी में उन्होंने विस्तार से इसका ज़िक्र किया है. उन्हें जानने वाले कुछ लोगों का कहना है कि भटकाव दरअसल उनकी नियति थी. बेचैनी और भटकने की अपनी आदत के चलते जालंधर छोड़कर वह दिल्ली चले गए. और फिर ‘सारिका’ के संपादक होकर वहां से बंबई चले गए. उनकी अगुवाई में ‘सारिका’ का पूरा स्वरूप बदल गया और उसे नई पहचान मिली. फिर सन् 1963 में सारिका की नौकरी छोड़कर वह फिर दिल्ली लौट आए.
इस बार नौकरी के बजाय उन्होंने स्वतंत्र रूप से लेखन शुरू किया, जो स्वतंत्र कम कष्टमय ज्यादा था क्योंकि इसमें तय और बंधी आमदनी तो होती नहीं, फिर भी अपने जीवट से उन्होंने अपने फ़ैसले को सही साबित किया. इस दौर का उनका लेखन उन्हें अदब की दुनिया में बुलंदियों तक ले गया.
हालांकि उन्होंने नाटक ज़्यादा नहीं लिखे, मगर नाटकों ने उन्हें लोकप्रियता का मज़बूत और बड़ा फ़लक दिया. आषाढ़ का एक दिन, आधे-अधूरे और लहरों के राजहंस, उनके तीनों नाटकों को अब भी भारतीय नाट्य परिदृश्य में ख़ास मुकाम हासिल हैं. ‘आषाढ़ का एक दिन’ को ख़ूब सराहना मिली. इस पर उन्हें भारतीय साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला.
मोहन राकेश ने कुल 54 कहानियां लिखीं. ये कहानियां मलबे का मालिक, क्वार्टर, पहचान और वारिस नाम वाले संग्रहों में हैं. ‘अंडे के छिलके, अन्य एकांकी तथा बीज नाटक’ व दूध और दांत उनके एकांकी संकलन हैं. संस्कृत के दो क्लासिक नाटकों – मृच्छकटिकम् और अभिज्ञान शाकुंतलम् – का हिंदी अनुवाद किया. परिवेश और बलकमख़ुद उनके निबंध संग्रह हैं. आख़िरी चट्टान तक यात्रा-वृतांत, मोहन राकेश की डायरी और समय सारथी ने भी उन्हें अलग पहचान दी. उनके उपन्यास, अंधेरे बंद कमरे, न आने वाला कल, अंतराल और नीली रोशनी की बाहें भी ख़ूब चर्चित हुए.
नई कहानी आंदोलन की त्रयी में मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेंद्र यादव मिलकर नई कहानी आंदोलन की त्रयी बनाते थे.
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