पृथ्वीराज | जिनका मक़सद था-कला देश के लिए

  • 9:04 am
  • 3 November 2023

भारतीय सिनेमा में पृथ्वीराज उस बेमिसाल शख़्सियत का नाम है, जिनकी शानदार अदाकारी के साथ-साथ उनकी इंसानियत और बेपनाह दरियादिली के भी कितने ही क़िस्से मशहूर हैं. पृथ्वीराज कपूर जब कामयाबी के उरूज पर थे, तब उन्होंने बंबई में एक ट्रेवलिंग थिएटर कंपनी के तौर पर ‘पृथ्वी थिएटर’ की शुरुआत की. इस ग्रुप का उद्देश्य था ‘कला देश के लिए’.

‘पृथ्वी थिएटर’ के मार्फ़त देश के छोटे-बड़े शहरों में उन्होंने ढाई हज़ार से ज़्यादा नाटकों का मंचन किया. पृथ्वी थिएटर में तक़रीबन डेढ़ सौ लोग काम करते थे. तीन घंटे का शो ख़त्म होने के बाद, पृथ्वीराज कपूर गेट पर झोला लेकर खड़े हो जाते थे, ताकि शो देखकर आ रहे दर्शक अपने दिल से कुछ मदद करें. शो के ज़रिए जो पैसा इकट्ठा होता, उससे उन्होंने एक ‘वर्कर फ़ंड’ बनाया था. जो ‘पृथ्वी थिएटर’ में काम करने वाले कलाकारों, टेक्नीशियनों और कर्मचारियों की मदद के काम आता था. बीसवीं सदी का चौथा दशक मुल्क की सियासत में बड़ा उथल-पुथल भरा और निर्णायक दौर था. अंग्रेज़ हुकूमत ने जब भारत पर अपनी गिरफ़्त कमज़ोर होती देखी, तो उसने हिंदूओं और मुसलमानों का एका तोड़ने के लिए उनके बीच मतभेद बढ़ाना शुरू कर दिए. ताकि ये दोनों क़ौमें आपस में भिड़ी रहें और वे आराम से उन पर हुकूमत करते रहें. ऐसे में पृथ्वीराज ने ‘पृथ्वी थिएटर’ के ज़रिए ‘दीवार’, ‘पठान’, ‘गद्दार’ और ‘आहुति’ जैसे ड्रामे किए, जिनका संदेश राष्ट्रीय एकता था. इन नाटकों के ज़रिए उन्होंने आपसी मेलजोल की ताक़त बताने के साथ ही अंग्रेज़ों की चालबाजियों की तरफ़ भी इशारा किया. देश की आज़ादी के लिए लोगों को जागृत करने के काम किया.

भारतीय जन नाट्य संघ यानी इप्टा के वह संस्थापक सदस्यों में से एक रहे. 1943 में बंबई में जब इप्टा की नींव डाली गई, तो वो उससे जुड़ गए. बंबई इप्टा के वह मानद अध्यक्ष भी रहे. बंगाल में जब भयानक अकाल पड़ा, तो इप्टा ने देश भर में नाटकों खेले ताकि अकाल पीड़ितों की मदद के लिए, चंदा इकट्ठा कर सकें. इप्टा की सदस्य रहीं रेबा रॉय चौधरी ने अपनी आत्मकथा में बंबई के उन दिनों के वाक़िआत का तफ़्सील से ब्यौरा दिया है, जब अकाल पीड़ितों की मदद के लिए पृथ्वीराज कपूर आगे आए थे. ”1944 में चर्च गेट रेलवे स्टेशन के पास मराठी सेंटेनरी के अहाते के विशाल आंगन में मंच बनाकर हमने ‘वॉयस ऑफ़ बंगाल’ का प्रदर्शन किया. पहले ‘है..है..जापान’ गीत के साथ डांस, फिर हरीन चट्टोपाध्याय का डांस ‘दही बेचनेवाला…’ उसके बाद हमने उनका गीत गाया ‘सूर्य अस्त हो गया गगन मस्त हो गया.’ एक के बाद एक गीत और नृत्य चल रहे हैं. दर्शक दीर्घा में फ़िल्मी दुनिया की बड़ी-बड़ी हस्तियां बैठी हैं- पृथ्वीराज कपूर अपनी बीवी के साथ. जयराज, बनमाला, वी.शांताराम और शोभना समर्थ वगैरह. मंच पर गीत चल रहा है ‘सुनो हिन्द के रहने वाले..’ अचानक पृथ्वीराज कपूर मंच पर आकर माइक पर ऐलान करते हैं कि, ”हमें बंगाल के अकाल पीड़ितों की मदद के लिए कुछ करना चाहिए.” फिर वे अपने सिर की टोपी हाथ में लेकर, दर्शकों के बीच पहुंच गए और फ़िल्मी दुनिया के अपने सभी साथियों के साथ बीस हज़ार रुपए बतौर चंदा इकट्ठा करके हमें दे गए.”

पृथ्वीराज कपूर के बारे में ऐसे कई क़िस्से मशहूर हैं, जब उन्होंने अपने साथी कलाकारों या जूनियर कलाकारों की आगे बढ़कर मदद की. अदाकारा दुर्गा खोटे ने अपनी आत्मकथा में इस बात का तफ़्सील से लिखा है कि किस तरह से उन्होंने अपने मामूली कर्मचारी को प्लेग की अफ़वाहों के बीच, कंधे पर रखकर उसे अस्पताल पहुंचाया. यहीं नहीं, वे उस वक़्त तक अस्पताल में रहे, जब तक कि वह कर्मचारी सेहतमंद नहीं हो गया. लेखक, गीतकार विश्वामित्र आदिल को अस्थमा की बीमारी थी, सड़क पर उड़ने वाली धूल उन्हें परेशान कर डालती थी. पृथ्वीराज कपूर को जब यह बात मालूम हुई, तो उन्होंने यह रोज़ाना का मामूल बना लिया कि सुबह-सुबह सड़क पर पानी का छिड़काव करवाते ताकि धूल न उड़े.

उनकी दरियादिली और इंसानियत के कई क़िस्सों का ज़िक्र शौकत आज़मी ने अपनी आत्मकथा ‘याद की रहगुज़र’ में किया है. शौकत आज़मी जब उनके नाटकों में रिहर्सल के लिए जाती, तो उन्होंने छोटी बच्ची शबाना के लिए बाक़ायदा एक आया का बंदोबस्त किया. ताकि शौकत बेफ़िक्र होकर अपनी रिहर्सल कर सकें. वह अपनी पूरी टीम के साथ ही खाना खाते और उन्हीं के साथ इकट्ठा रहते. उन्हीं के साथ सोते. अपनी टीम के साथ उनका एक जैसा बर्ताव होता. अपने साथियों के दुखों और परेशानियों में वे हर दम उनके साथ खड़े रहते.

उन्हें अदब और अदीबों से भी बड़ा लगाव था. ख़ास तौर पर जोश मलीहाबादी की शख़्सियत और शायरी के वह शैदाई थे. अदीब, जर्नलिस्ट हमीद अख़्तर ने अपनी एक किताब ‘आशनाइयां क्या-क्या’ में जोश मलीहाबादी का एक बहुत अच्छा ख़ाका लिखा है, इस ख़ाके में जोश के बहाने पृथ्वीराज कपूर का किरदार भी क्या ख़ूब सामने आया है. साल 1946 में हिंदी सिनेमा से जुड़े रहे हमीद अख़्तर लिखते हैं कि पृथ्वीराज कपूर नए लोगों को अक्सर ये सीख देते रहते थे कि ‘‘अगर अच्छे अदाकार बनना चाहते हो और मकालमों की अदायगी में कमाल हासिल करने की आरज़ू है, तो जोश को पढ़ो.’’ वो ख़ुद भी सेट पर वक़्तन-फ़वक़्तन जोश के अशआर गुनगुनाते रहते थे.” मुंबई में क़याम के दौरान एक वक़्त ऐसा भी आया, जब जोश मलीहाबादी आर्थिक तौर पर काफ़ी परेशानी में थे. उन पर कुछ क़र्ज़ था, जिसकी वजह से वे काफ़ी परेशान थे. हमीद अख़्तर ने पृथ्वीराज कपूर को जोश साहब की हालत-ए-ज़ार से आगह किया.

बहरहाल आगे का क़िस्सा उन्हीं की जबानी, ख़ैर शायर-ए-इंक़लाब के हालात सुनके पृथ्वीराज ख़ासा रंजीदा हुआ. उस ज़माने में वो ग़ालिबन सबसे ज़्यादा मुआवजा लेने वाला अदाकार था. फ़िल्मों के अलावा ‘पृथ्वी थिएटर’ से उसे माकूल आमदनी होती थी. पृथ्वीराज ने जोश साहब की रूदाद सुनने के बाद उनसे फ़रमाया, आपसे दरख़्वास्त है कि आज से आप अपने आप को ‘पृथ्वी थिएटर’ से जुड़ा हुआ समझें. आप पर यहां आकर बैठने की कोई पाबंदी नहीं है. न ही लिखने-लिखाने के सिलसिले में हमारी कोई शर्त है. बस, आपका जो जी चाहे और जब चाहे आप पृथ्वी थिएटर के लिए नज़्म या नस्र जो मुनासिब समझें, लिखकर हमें नवाज़ दिया करें.’’
इसके बाद उसने एक लिफ़ाफा दोनों हाथों में पकड़कर जोश साहब को पेश करते हुए कहा, ‘‘ये पहले महीने का एडवांस है. हम आपकी बड़ी हैसियत के मुताबिक़ तो अदायगी नहीं कर सकते, ताहम ये हक़ीर मुआवजा आपको हर माह मिलता रहेगा.’’
थोड़ी देर वहां बैठने के बाद हम टैक्सी के ज़रिए, वापस रवाना हुए. जोश साहब ने लिफ़ाफ़ा मुझे थमाते हुआ कहा, ‘‘देखो, कितने हैं?’’
मैंने गिना, तो उसमें पन्द्रह सौ रुपए थे. जो उस ज़माने में बड़ी रकम थी. जिस कंपनी में मैं और साहिर मुलाज़िम थे, वहां साहिर को उन दिनों गाने लिखने की तनख़्वाह चार सौ रुपए और मुझे मकालमा-नवेसी की मुआवजा साढ़े तीन सौ रुपए मिलता था.
बहरहाल, कुछ अरसे के बाद जब हमीद अख़्तर, जोश मलीहाबादी से मिले तो उन्होंने उनसे पूछा,
”पृथ्वीराज से बंबई में उनका निबाह कैसे हुआ? पृथ्वीराज के साथ उनका वक़्त कैसा गुज़रा? उसने अपना वादा निभाया भी या नहीं? वगैरह-वगैरह.”
”भई क्या ख़ूब आदमी है वो.” जोश बोले, ”हमको दस माह तक बराबर पन्द्रह सौ रुपए हर माह भिजवाता रहा और हमने एक लफ़्ज़ भी उसको लिखकर नहीं दिया.”

कवर फ़ोटो | ओ.पी. शर्मा/ नवयुग स्टुडियो

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