गुहा के इतिहास से तक़रीबन अनुपस्थित डॉ. लोहिया

  • 7:57 am
  • 23 March 2023

बात साल 2017 की है. उस वक़्त अचानक मेरी नौकरी छूट गई थी. ख़ुद को बदहवासी से बचाए रखने के लिए अपनी पसंद का जो कुछ पढ़ सकता था, पढ़ने लगा. यह मेरा आजमाया हुआ नुस्ख़ा था क्योंकि ऐसी परिस्थितियों में दो-चार होता रहा हूं. इसी दौरान मैंने रामचंद्र गुहा की दो खंडों में प्रकाशित अंग्रेज़ी पुस्तकों का हिन्दी अनुवाद ‘भारतः गांधी के बाद’ और ‘भारतः नेहरू के बाद’ पढ़ा.

जैसा कि नाम से समझा जा सकता है कि इन पुस्तकों में स्वतंत्रता के बाद भारत के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक घटनाक्रमों का ब्यौरा है. उस दौर के तमाम राजनीतिक और ग़ैर राजनीतिक व्यक्तित्वों की पड़ताल भी शामिल है.

रामचंद्र गुहा के इतिहास का अंदाज़-ए-बयां ऐसा है कि क़रीब पांच-पांच सौ पन्नों वाली किताबों के दोनों खंड कोई भी पाठक सहजता से पढ़ सकता है. इससे यह भी पता चलता है कि प्रामाणिकता इतिहास लेखन की बुनियादी शर्त है लेकिन यह रोचक भाषा शैली और दिलचस्प संदर्भों व टिप्पणियों के साथ हो तो बात अलग हो जाती है. इतिहास की पुस्तकें अक्सर अपने लहजे की वजह से बोझिल होती रही हैं, ऐसा अक्सर आपने सुना ही होगा.

ख़ैर, इस पुस्तक की प्रस्तावना में लेखक की स्वीकारोक्ति है कि उन्होंने जिन विषयों को छुआ है उसकी कई बातों से पाठकों को आपत्ति हो सकती है. उदाहरण के लिए वे प्रश्न उठा सकते हैं कि आदिवासियों के बारे में बहुत नहीं लिखा गया, कुछ को लग सकता है कि कश्मीर के बारे में कुछ पन्ने और होने चाहिए थे. उन्होंने अपने एक परिचित बुज़ुर्ग़ नौकरशाह सी.एस.वेंकटाचार के कथन का सहारा लिया- इतिहास के बारे में किया गया हरेक काम अंतरिम ही होता है जिसे परिवर्धित या संशोधित किया जा सकता है या चुनौती दी जा सकती है.

इस पुस्तक के दोनों खंडों को पढ़ते हुए आप नेहरू, डॉ.आंबेडकर, लाल बहादुर शास्त्री, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, जयप्रकाश नारायण, इंदिरा गांधी, सीएन अन्नादुरई, एमजी रामचंद्रन, ज्योति बसु से लेकर वीपी सिंह, चंद्रशेखर, अटल बिहारी वाजपेयी, डॉ. मनमोहन सिंह, मुलायम सिंह, लालू प्रसाद जैसे तमाम व्यक्तित्वों के अनछुए पहलुओं से रूबरू होते हैं.

हां, डॉ.राममनोहर लोहिया के प्रशंसक हों या आलोचक, दोनों को इस पुस्तक से मायूसी होगी. दोनों खंडों को मिलाकर डॉ.लोहिया का इतना भर जिक्र है कि वे इतिहास के पन्नों से तक़रीबन अनुपस्थित हैं. संभव है कि डॉ. लोहिया का प्रशंसक होने के नाते ऐसा महसूस किया गया हो इसलिए यह ब्यौरा देना ज़रूरी है कि डॉ.लोहिया की कहां-कहां और कितनी उपस्थिति है. जिससे स्वतंत्र रूप से इस पर राय बनायी जा सके.

पुस्तक के पहले खंड ‘भारतः गांधी के बाद’ में गोवा मुक्ति के शुरुआती आंदोलन का जिक्र करते हुए लिखा गया है-`साल 1946 में वाम रुझान वाले कांग्रेसी नेता राम मनोहर लोहिया ने गोवा का दौरा किया और वहां के लोगों से शासक वर्ग के ख़िलाफ़ विद्रोह का आह्वान किया. इसके बाद वहां विरोध प्रदर्शनों और हड़तालों की झड़ी-सी लग गई, जिसे वहां के स्थानीय प्रशासन ने कुचल दिया.‘ (पृष्ठ संख्या- 221)

पुस्तक के इसी खंड में चीन से भारत को मिली हार का ब्यौरा ‘पराजय का अनुभव’ में है, जिसमें हार से उपजी निराशा के बाद 1963 में हुए कई उप चुनावों में कांग्रेस की पराजय का जिक्र करते हुए बताया गया कि इसमें विपक्ष के तीन क़द्दावर नेता चुनकर संसद में पहुंचे- मीनू मसानी, जेबी कृपलानी और राम मनोहर लोहिया. (पृष्ठ संख्या- 426)

पुस्तक के दूसरे खंड ‘भारतः नेहरू के बाद’ में इंदिरा युग की शुरुआत ‘विजय की तैयारी’ की शुरुआत डॉ.राम मनोहर लोहिया के कथन से की गई है- इंदिरा गांधी गूंगी गुड़िया है. (पृष्ठ संख्या- 76)

इन सबका जिक्र करना, न तो आरोप है और न ही कोई चुनौती. व्यापक फलक को आकार देते हुए ऐसी चूक की हमेशा गुंजाइश रहती है. और यह गुंजाइश गुहा साहब को भी मिलनी ही चाहिए. लेकिन यह मायूसी का सबब ज़रूर है कि डॉ.राम मनोहर लोहिया इससे कहीं ज्यादा के हक़दार हैं.

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