बाबा कारंत | दक्षिण और उत्तर रंगमंच को जोड़ने वाले सेतु

  • 11:26 am
  • 1 September 2023

भारतीय रंगमंच में ब.व. कारंत की पहचान असाधारण रंगकर्मी और रंगमंच का प्रशिक्षण देने वाले विद्वान अध्यापक की है. लोग उन्हें प्यार से बाबा कारंत पुकारते थे. रंग-शिविरों के माध्यम से उन्होंने न सिर्फ़ देश भर में सैकड़ों विद्यार्थियों को प्रशिक्षित किया, बल्कि उनके निर्देशन में ‘सरदार पटेल विद्यालय’ दिल्ली, ‘राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय’ नई दिल्ली, ‘भारत भवन रंगमंडल’ भोपाल, ‘रंगायन’ मैसूर और ‘बेनका’ बेंगलूर जैसे नाट्य विद्यालयों और संस्थायें विकसित हुईं. देश भर में इनकी एक अलग पहचान बनी.

हिंदी रंगमंच को ब.व. कारंत ने अपनी नवोन्मेषी दृष्टि से एक नया चरित्र प्रदान किया. वे एक बेहतरीन अभिनेता, निर्देशक, संगीतकार और फ़िल्मकार थे. रंगमंच की सभी विधाओं में उनकी समान पकड़ थी. ब.व. कारंत की मातृभाषा कन्नड़ थी, मगर उन्होंने हिंदी को इस तरह अपनाया कि उनकी पहचान, हिंदी रंगकर्मी की ही होकर रह गई. जबकि उन्होंने कन्नड़ नाटकों का निर्देशन किया और कन्नड़ फ़िल्में भी कीं. उनमें अभिनय किया, संगीत दिया. सच बात तो यह है कि ब.व. कारंत का हिंदी और कन्नड़ दोनों ही ज़बानों पर समान अधिकार था. यही वजह है कि उन्होंने दक्षिण और उत्तर भारत के रंगमंच को जोड़ने में एक सेतु की भूमिका निभाई. और रंगमंच की दुनिया उन्हें इसी रूप में याद करती है.

कारंत को भारतीय परंपरा और लोक की गहरी समझ थी. साथ ही आधुनिकता को भी वे साथ लेकर चलते थे. उन्हें नाटकों के वास्तुरूप और नाट्य शिल्प की अच्छी जानकारी थी. ज़ाहिर है कि जिस शख़्स में इतनी सारी ख़ूबियां एक साथ हों, वह कमाल ही होगा. ब.व. कारंत ने न सिर्फ़ कालिदास की क्लासिक नाट्य कृतियों का मंचन किया, बल्कि जयशंकर प्रसाद के ऐतिहासिक नाटक ‘स्कंदगुप्त’ और ‘चंद्रगुप्त’ का भी मंचन किया. उस ज़माने में प्रसाद जैसे जटिल नाटककार के नाटकों का मंचन करना वाक़ई एक बड़ी परिघटना थी.

कर्नाटक के मांची, कोल्नादु में एक ग़रीब परिवार में 19 सितंबर, 1929 को जन्मे बाबूकोडी वेंकटरमण कारंत यानी ब.व. कारंत की तालीम काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हुई. जहां उन्होंने हिंदी में एम.ए. करने के बाद हजारीप्रसाद द्विवेदी के निर्देशन में शोध किया. कारंत को शास्त्रीय संगीत से भी गहरा लगाव था. यही वजह थी कि उन्होंने पं. ओंकारनाथ ठाकुर से तीन साल तक भारतीय शास्त्रीय संगीत का विधिवत प्रशिक्षण लिया. बाद में उन्होंने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में दाख़िला लिया और नाट्यकला में डिप्लोमा किया. तालीम मुकम्मल करने के बाद, कारंत ने बैंगलोर में ‘बैंगलूर कला विदर’ यानी बेनेका ग्रुप की स्थापना की. बहरहाल, इसी ग्रुप से उन्होंने अपने प्रयोगधर्मी नाटकों का आग़ाज़ किया. ‘सतावनानेरुलू’, ‘जोगकुमार स्वामी’, ‘तिंगरवुडणना’ आदि नाटकों का निर्देशन किया.

ब.व. कारंत बीसवीं सदी के आठवें दशक में भोपाल आ गए. भारत भवन में जब रंगमंडल की स्थापना हुई, तो उन्हें इसके निदेशक की ज़िम्मेदारी सौंपी गई. और उन्होंने यह ज़िम्मेदारी बख़ूबी निभाई. यहां उन्होंने नाट्य प्रशिक्षण को एक नई दिशा प्रदान की. बाबा कारंत को रंगमंच में प्रयोगों से कोई गुरेज़ नहीं था. नाटकों में अपनी अद्भुत कल्पनाशीलता से उन्होंने नए प्रयोग किए, जो दर्शकों को ख़ूब भाए. ‘पंछी ऐसे आते हैं’, ‘छतरियां’ जैसे नाटकों में उनके प्रयोग काफ़ी पसंद किए गए. कारंत के आने से पहले भोपाल में मराठी और बंगाली रंगकर्म ही होता था. कारंत पहुंचे, तो उन्होंने हिंदी नाटक की परंपरा शुरू की.

उनके कार्यकाल में भारत भवन का रंगमंडल नई ऊंचाईयों और उत्कर्ष तक पहुंचा. भोपाल के रंगमंडल में बदलाव हुआ. नाटक पेशेवराना तरीक़े से तैयार और प्रस्तुत किए जाने लगे. बाबा कारंत ने भोपाल रंगमंडल के लिए जयशंकर प्रसाद का ‘विसाख’, ‘स्कन्दगुप्त’, शुद्रक का ‘चतुर्भाणी’, ‘गारा की गाड़ी’, गिरीश कारनाड का ‘हयवदन’, प्रेमचंद का ‘कर्मभूमि’, विजय तेंदुलकर का ‘घासीराम कोतवाल’, मणिमचुक का ‘रस गंधर्व’, शंकर शेष का ‘एक और द्रोणाचार्य’, ‘कुमार स्वामिनी’ और शेक्सपियर के नाटक ‘किंग लियर’, ‘राजा पगला’, ‘तीन बेटियों’ का निर्देशन और मंचन किया. ब.व. कारंत ने अपने कई नाटक यक्षगान शैली में किए. जिन्हें हिंदीभाषी दर्शकों ने भी बेहद पसंद किया. वे तक़रीबन बीस साल तक भोपाल में रहे. इस दरमियान यहां उन्होंने रंगमंच की दो पीढ़ियां तैयार कीं, उन्हें रंग संस्कार दिए.

कारंत रंगमंच की दुनिया में बहु-आयामी शख़्सियत थे. रंगमंच और नाटक के हर पहलू पर उनकी शानदार पकड़ थी. ख़ास तौर पर नाट्य संगीत की. कारंत ने अपने नाटकों में संगीत का बेहतर इस्तेमाल किया. उनके नाटकों में संगीत कहानी को आगे बढ़ाने और किरदारों की व्याख्या करने का काम करता है. संवादों को सम्प्रेषणीयता प्रदान करता है. उनके ज़्यादातर नाटक सांगीतिक नाटक हैं.

हर प्रतिभाशाली इंसान की कामयाबी के पीछे, परफेक्शन की एक ‘बुरी’ आदत होती है. बाबा कारंत भी परफेक्शन के बड़े हिमायती थे. जब तक उनके कलाकार और तकनीशियन अपना सर्वश्रेष्ठ नहीं दे देते, तब तक वे उनसे रिहर्सल या तैयारी कराते रहते थे. ज़ाहिर है कि जिसका नतीजा, बेहतरीन ही होता. कलाकारों के प्रशिक्षण में वह समझाते कि एक अकेला अभिनेता किस तरह से नाटक को समग्रता में पेश कर सकता है. उनके द्वारा प्रशिक्षित कई कलाकार, निर्देशक आज रंगमंच में सक्रिय हैं और कारंत की नाट्य परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं.

कारंत ने कन्नड़ सिनेमा में भी काम किया. ख़ास तौर पर इन फ़िल्मों में संगीत दिया. ‘आदि शंकराचार्य’, ‘हँसगीते’, ‘भगवद्गीता’, ‘कन्नेश्वर रामा’, ‘काडू’, ‘मुरू दारीगल्’, ‘ऋषिश्रृंग’ आदि उनकी कुछ प्रमुख फ़िल्में हैं. गिरीश कारनाड के साथ मिलकर उन्होंने हिंदी फ़िल्म ‘गोधूलि’ का निर्देशन भी किया. जिसे साल 1982 में सर्वश्रेष्ठ प्रादेशिक फ़िल्म का पुरस्कार मिला.

वह बेहद सादा मिज़ाज शख़्स थे, पर ख़ासे अनुशासनप्रिय. इस हद तक कि इस मामले में वे किसी को भी रियायत नहीं देते थे. काम की ऐसी लगन कि हर वक़्त रंगमंच में डूबे रहते थे. काम को लेकर उनके इस दीवानेपन और जुनून को देख, कई बार उनके सहकर्मी और अदाकार यह कहते सुने जाते थे, ‘‘यह आदमी है या भूत.’’ रंगमंच और अपनी प्रस्तुतियों को लेकर उनके इस दीवानेपन और जुनून का ही सबब है कि एक के बाद, एक उनके शानदार नाटक लोगों के सामने आए.

भारतीय रंगमंच, नाटक और सिनेमा के क्षेत्र में ब.व. कारंत के बेमिसाल काम के लिए ‘संगीत नाटक अकादमी’, ‘कर्नाटक नाटक अकादमी’, ‘गुब्बी वीरण्णा’ पुरस्कार के अलावा पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया. कन्नड़ फ़िल्मों में दिए गए उनके संगीत के लिए उनको कई राज्य और राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कारों से नवाज़ा गया. फ़िल्म ‘वंशवृक्ष’, ‘चोमन डुडी’, ‘तब्बालियू नीनादे मागने’, ‘ऋषिश्रृंग’ और ‘घटश्राद्ध’ राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार से सम्मानित हुईं. ‘चोमन डुडी’, लंदन फ़िल्मोत्सव में भी दिखाई गई.

कारंत ने हिंदी, कन्नड़, उर्दू, पंजाबी, संस्कृत, गुजराती, मलयालम, तेलगू और अंग्रेज़ी ज़बान में बेशुमार नाटक निर्देशित किए. कई नाटकों में स्वतंत्र रूप से संगीत भी दिया. बच्चों के लिए अलग नाटकों का लेखन और मंचन किया. संस्कृत और कन्नड़ के कई बड़े नाटक मसलन ‘स्वप्नवासवदत्ता’, ‘मृच्छकटिक’, ‘तुगलक’, ‘हयवदन’, ‘हित्तिना हुंजा’ और ‘केलू जनमेजय’ उन्हीं के किए अनुवाद की वजह से हिंदी में संभव हुए.

देश के कई मशहूर क़िलों और ऐतिहासिक स्थलों ‘साबरमती आश्रम’, ‘ग्वालियर का क़िला’, ‘गोलकुंडा का क़िला’, ‘आगरा क़िला’, ‘शनिवार बाड़ा, पुणे’ में जो लाइट एंड साउंड शो चलते हैं, उनमें भी उन्हीं के संगीत का इस्तेमाल होता है.

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