नीरज | दिनकर ने जिन्हें हिन्दी काव्य वीणा कहा
(आज गोपाल दास नीरज का जन्मदिन है. अपने गीतों और कविताओं में वह हमारे बीच हमेशा प्रासंगिक बने रहेंगे. जिन्होंने ‘नीरज की पाती’ बांची हैं, या फिर जिन लोगों ने उनको मंच या फ़िल्मों में लिखे उनके गीतों के मार्फ़त जाना है, उनके लिए नीरज की शख़्सियत का यह पहलू जानना दिलचस्प होगा. नीरज जी अलीगढ़ में आबाद रहे और डॉ.प्रेम कुमार भी. और डॉ. प्रेम कुमार के किसी शख़्सियत से मिलते-लिखने की ख़ूबी यही होती है कि वह मुख़्तसर जीवनी लिख डालते हैं. नीरज से उनकी यह मुलाक़ात भी ऐसी ही है. यह पुरानी मुलाक़ात राष्ट्रीय प्रसंग में चित्र-कथा के तौर पर छपी थी. -सं)
यह तस्वीर फरवरी के शुरुआती दिनों की है, इसलिए यह वेश है. चेनगेट से बाहर का खुला मैदान है. गर्मियाँ होतीं तो यह लुंगी भी होती, बीड़ी भी. पर न स्वेटर होता, न यह टोपा. तब चेनगेट के अंदर बिछे अपने चिरसंगी तख़्त पर आसन जमा होता- मोटी मारकीन की आधी बाँहों की जेबदार एक बनियान होती और बढ़ी दाढ़ी पर ख़ूब फबते-से अनकढ़े बिखरे-से उजले सफ़ेद बाल होते. 4 जनवरी, 1925 को इटावा के पुरावली ग्राम में जन्मे इस शख़्स को राष्ट्रकवि दिनकर ने ‘हिन्दी काव्य की वीणा’ कहा था, तो भदन्त आनंद कोसल्यायन ने ‘हिन्दी का अश्वघोष’. दिग्गज संपादक प्रभाकर श्रोत्रिय उन्हें जीवित किंवदंती कहते रहे. बहरहाल, जो भी हो पर यह सच है कि जो सह्रदय है वह गोपालदास नीरज को अवश्य जानता है. जिनका साहित्य और कविता से नाता है, सबने इन्हें पढ़ा है- सुना है. जो भी युवा है, युवा रहना चाहता है, जिसने प्रेम को कम-अधिक किसी भी रूप में पाया-दिया है, उसने इस कवि को कविता से शब्द उधार माँगे हैं, इनकी पंक्तियों को गुनगुनाया है. नीरज हर तरह से खुली किताब हैं. इसलिए नीरज अगर अलीगढ़ में हैं और यदि उस शाम वे ताश खेलने में व्यस्त नहीं हैं, तो जो जब चाहे उनके पास चला जाए, उसे एक पल को भी नहीं लगेगा कि वह किसी पद्मश्री या पद्मभूषण से विभूषित व्यक्ति अथवा मंगलायतन विश्वविद्यालय के कुलाधिपति से मिल रहा है.
जो नीरजजी को क़रीब से जानते हैं, उन्हें पता है कि नीरजजी के पास आप जब भी जाएंगे तो सबसे पहले आपको उनकी भरपूर आह-कराह सुनाई देगी. आज यहाँ दर्द और इधर भी…और यहां भी ….ओफ़. अच्छा आपको भी पता चल गया? अरे सह्रदय लोग होते ही हैं ऐसे. नीरजजी मुसकेंगे. प्रविष्ट होंगे तो इस-उस तरफ़, दीवारों पर-सब जगह तरह-तरह के प्रमाण पत्र, चित्र, प्रशस्तिपत्र, स्मृति चिह्न आदि रखे-टंगे दिखेंगे!
रोज़मर्रा की चीज़ों के अलावा कोने में एक मेज़ होगी. मेज़ पर होम्योपैथी-बायोकेमिक की शोशियां-बक्सा. अगर आपने उनके कराहने की वजह पूछ ली- तो शब्द-शब्द को इत्मीनान से दर्द में भिगो-डुबो कर बीमारी का गुणगान शुरू हो जाएगा- ‘अरे, वो क्या़ है कि पैरों में दर्द बहुत बढ गया है…’ कराहना तेज़ होगी- ‘बचपन से उदर का रोगी हूँ. फिर घुटनों में दर्द रहने लगा. अब पीठ में भी रहता है. अपना इलाज ख़ुद करता हूँ. हाँ, लौकी का सूप लेता हूँ. उधर कोने में रखी मेज़ पर होम्योपैथी को दवाएँ हैं- उधर वाली पर- आयुर्वेदिक, यूनानी, बायोकेमिक. और ये जो नीचे पड़ा है पलंग के, लकड़ी का एक्वाप्रेशर है. चुम्बक चिकित्सा और नेचुरोपैथी कोई सही ढंग से कर ले तो सौ वर्ष की आयु तक ठीक. शिवाम्बु चिकित्सा घाव-वाव कहीं हो तो बड़ी लाभदायक सिद्ध होती है. प्राणायाम मैं रोज़ करता हूँ. डॉक्टर के पास नहीं जाता. हाँ, ये चुम्बक बेल्ट है. गले और पीठ की. ये ख़रीदी थी. ये एक्वाप्रेशर बोकारो में दिया थी किसी ने….’
कभी हाथों-पैरों में सफ़ेद टेप की चिपकी हुई कतरनें दिखाई दें तो भी घबराने की ज़रूरत नहीं. अपनी तरह के इस ख़ास रोगी की ख़ुद की चिकित्सा करने के शौक़ और अभ्यास की अच्छी-सी एक बानगी भर है – ‘हाँ भाई, बहुत दर्द हो रहा है कई दिन से-सो मेंथी बाँधी है. यह जापानी ट्रीटमेंट है-सुज़ूकी. इसमें होता यह है कि शरीर के विभिन्न अंगों में जो प्वाइंट्स होते हैं, उन पर मेंथी, गेहूँ या राजमा बाँधने से लाभ होता है. सीधी तर्जनी में पड़े पतली जाली से बने एक छल्ले को उतारा जाएगा. उसे दबा-दबाकर कुछ प्वाइंट्स बताए जाएंगे – यह वायु का है. हमारा मूल तो वायु रोग ही है न! यहाँ हथेली के ऊपरी भाग पर राजमा उल्टा करके बाँधना होता है. पेशाब के रोग के लिए यहाँ हथेली पर. हमारी बाँह में दर्द था सो हमने मेंथी बाँधी है. छोटे-मोटे दर्द में बड़ी कारगर विधि है यह. सीड ट्रीटमेंट कहलाता है यह. इसको बाँधने से इसकी एनर्जी प्रविष्ट होती है आपके अंदर. दरअसल, शनि लग्न में है इसलिए घुटनों का यह रोग तो हमें रहेगा ही.’
उनको देखते-सुनते रहने वालों को पता है कि इस वाक्य के बाद उनकी बातों की इश यात्रा को कौन-सी दिशा पकड़नी है और कहाँ-कहाँ कौन से मोड़ और पड़ाव आने हैं – ‘मैं तो अपने बारे में ज्योतिष की बात जानता हूँ.’ जिन्होंने इन श्रीमन के ज्यातिषी-रूप से मुलाक़ात की है उन्हें यहाँ स्वयं ही यह ध्यान ज़रूर आगा कि माननीय पिछले बीस वर्षों में अपनी मृत्यु के बारे में बहुत दावे के साथ कई बार घोषणाएं कर चुके हैं – पर अल्लाह का लाख-लाख शुक्र कि उनमें से एक बार की सच नहीं हुई है. सेवक सिंगसिंग के दोनों बेटों के जन्म के तुरंत बाद श्रीमान् ने पहला काम यही किया कि उनकी जन्मकुंडली बनाई. उनके बाप को तो बताया ही, उन दिनों जो भी मिलने आता उसे बताया गया कि दूसरा पहले से ज़्यादा शैतान-शरारती बनेगा पर निकलेगा ख़ूब तेज़. और अब जब घुटनों के दर्द के साथ शनि की चर्चा आ ही गई है तो जल्दी ही अटलजी को भी आना ही है और उनके साथ अपने कुछ ग्रह-नक्षत्रों की समानता-असमानता का उल्लेख होना ही है-‘देखो, तुम्हारे सामने मैं पालथी मारे बैठा हूँ. अटल जी ऐसे नहीं बैठ सकते. क्या मिला उन्हें इतना पैसा ख़र्च करके ऑपरेशन कराकर! मेरा और अटलजी का शनि लग्न में, उच्च राशि तुला में बैठा हुआ है. इसलिए उनकी टाँगों का यह हाल है और उके आगे भी लम्बा जीवन है- जैसा कि मेरा. अटल जी मुझसे नौ दिन बड़े हैं. चंद्रमा के स्थान के बदले होने के अलावा उनकी मेरी कुंडली एक-सी है. एक ग्रह के अंतर ने उन्हें प्रधानमंत्री बना दिया है- पर हम दोनों ही वाणी के धनी, पैरों के रोगी हैं. स्त्री प्रिय आदि गुण-दोष समान हैं हम दोनों में. उदर रोग से वो भी पीड़ित हैं, मैं भी. हम दोनों डी.ए.वी. कॉलेज कानपुर के हॉस्टल में साथ-साथ भी रहे.’
स्त्री प्रियता के इस उल्लेख और दूसरी बीड़ी सुलगाए जाने के इन क्षणों का बहुत उचित और बेहतर उपयोग यह होगा कि अब नीरज जी से उनकी नशे की आदत और कुछ ख़ास लतों और शौक़ के बारे में जाना जाए. अपने सुने के आधार पर जैसे ही आप उनकी नशे की आदत के बारे में कुछ पूछेंगे-चेहरे पर दर्द में भीगा बादल का नन्हा-सा एक टुकड़ा आ टिकेगा. अब दूर तक न आह-ऊह न हाय-कराह- ‘देखिए, मैं नज़ले को रोगी हूँ. एकाध घूँट लेता हूँ. हवाई जहाज में दी जाने वाली शराब की इतनी छोटी-सी जो शीशी होती है, वह है मेरी ख़ुराक़. एक पैग में भी आधा पानी, आधी शराब. इससे नज़ला सूख जाता है. इसे लेकर मेरी आवाज़ में खरज आ जाता है. गले का जादू है कि लोग समझते हैं कि मैं पीकर पढ़ता हूँ. क्या नीरज को किसी ने बहकते देखा है? आप मेरे इतने निकट हैं, आपने मुझे कभी पीते देखा है? आपको तो पता है कि मेरा जीवन संघर्षों में बीता है. मैं शराब अफ़ोर्ड नहीं कर सकता था. हाँ, यह बीड़ी- इसके अलावा कोई आदत नहीं रही. सात वर्ष की उम्र से पी रहा हूँ बीड़ी. बचपन में मेरे वायु का-गोले का ज़बरदस्त दर्द होता था. तब लोगों ने बीड़ी पीने की शुरुआत करा दी. तब से आदत पड़ गई. आनन्द चरस, भाँग, गाँजा, शराब – सबका लिया, पर कविता के नशे ने मुझे उम्र भर बेहोश रखा. इस नशे को लेकर मैंने कुछ लिखा तो लोगों ने उसे शऱाब समझा. मेरे हाथों में जो जाम रहा वह शऱाब का नहीं, काव्य रस का था. इसे लेने के बाद कवि थोड़ी देर के लिए मृत्यु से परे हो जाता है. इसी को मैं व्यक्तिव्य मोक्ष और अहं मोक्ष कहता हूँ.’
क्या कुछ याद आया अचानक से कि सिंगसिंग को पुकारा गया. आया तो उसे अंदर सोने वाले बेड पर रखी तीनों अलबम उठा लाने के लिए कहा गया. नीरज जब अपने इस घर में होते हैं तो प्रायःतीन जगहों पर ही होते हैं. बरामदे में तख़्त पर या चेनगेट के बाहर बिछवाए निवाड़ वाले पलंग पर या फिर अंदर कमरे में अपने बेड पर. वे जब भी जहाँ होते हैं उनके पास अख़बार, नई-पुरानी किताबें, पत्रिकाएं, काग़ज़, पेन ज़रूर रखे होते हैं और वो कुछ न कुछ ज़रूर कर ही रहे होते हैं. पास बैठे व्यक्ति को पत्रिकाओं-किताबों में से कुछ दिखाना-पढ़वाना उनकी आदत है. अलबम मंगवाने के बारे में मैं कुछ सोच-समझ पाता, उससे पहले सिंगसिंग के साथ उनकी उलट-पलट शुरू की जा चुकी थी. चहकते, उल्लास से भरे पता नहीं, क्या तलाशे जा रहे हैं – ‘अरे ये वाली नहीं, वो वाली. इसमें नहीं तो शायद उसमें है!’ ऐसे ख़ुश कि जैसे बड़े से किसी ढेर में छोटा-सा कुछ बहुत मूल्यवान निकाल लिया गया हो -‘कल कमरा साफ़ कराया तो निकलवाया इन्हें. सुबह अकेला बैठा देखता रहा था इन्हें. आपने तो शायद नहीं देखे न ये चित्र! देखिए- इसे देखिए- ये चित्र जब ऑस्ट्रेलिया गया था- तब का है. सृजन, विचार, लेखन, रचनाकार- देखिए न- ये सुकरात की मूर्ति के समीप हूँ मैं. कैसा अजीब जादुई था यह अनुभव. सचमुच अहं-मोक्ष…व्यक्तिव्य-मोक्ष का-सा अहसास.’
ज़मीन पर बैठा सिंगसिंग फ़ोटो पलटने में मदद कर रहा है. सजग होकर बड़े ग़ौर से एक-एख फ़ोटो को देखते-देखते कई बार झल्लाए हैं – ‘सारी उम्र भाग-दौड़ में फ़ुर्सत ही नहीं मिली कभी कुछ सहेज-सँभाल कर रखने की. कितने फोटो थे- कैसे-कैसे लोग. लोग ले गए- लौटाए नहीं. घर में ऐसा कोई था नहीं कि उनकी क़ीमत समझता, उन्हें सँभालकर रखता.’ अचानक बहुत जल्दी से तेज़ी में कहा गया – ‘अरे, अरे, अरे-रुको.’ जैसे सामने से निकल रही किसी गाड़ी को रोकना था उन्हें.
उनकी हथेली उस फ़ोटो पर जा टिकी है. यकायक छलक आई हँसी ने चेहरे पर ज़रा पहले के मलाल को झटपट धो-पोंछ दिया है. ऐसे पूछा है जैसे कहना चाहा हो कि तुम बता नहीं पाओगे – ‘बताओ, कौन है यह!’ मेरे न बता पाने ने जैसे उन्हें प्रसन्न किया – ‘अरे भई, बेटे का है यह. हाँ, गुंजन का. तब दर्जा आठ में पढ़ रहा था.’
याद आ गया था कि गुंजन ने कवि होने की जगह इंजीनियर बनना पसंद किया और अब वो भेल-हरिद्वार में जनरल मैनेजर है. मोटी-सी उस अलबम को आधे से अधिक पलटा जा चुका था सिंगसिंग के साथ. पता नहीं किन यादों में विचरते-से नीरज जी चौंकते से चहक उठे – ‘अरे भाई, इसे देखो. बहुत पहले का है. मेरठ कवि-सम्मेलन का. ये रामअवतार त्यागी, ये बलवीर सिंह रंग, ये भगवती चरण वर्मा अपनी पत्नी के साथ – ये कमला चौधरी एम.पी. थीं तब, ये घनश्याम अस्थाना, ये बरसाने लाल चतुर्वेदी…!’
पहचानना चित्र के और लोगों को भी चाहते हैं, पर शायद ध्यान में लाने में मुश्किल हो रही है. इस बीच सिंगसिंग ने एक दूसरा फ़ोटो उनके सामने कर दिया है. चेहरा दमक उठा है और आवाज़ में एक ख़ुशी आ मिली है- ‘ये देखो-यह भी काफ़ी पहले का है. ये काका हाथरसी, शिवमंगल सिंह सुमन, हरिवंश राय बच्चन और राम विलास जाजू… नहीं, सन-फन तो याद नहीं – पर यह याद है कि यह कवि-सम्मेलन बिरला मातुश्री भवन कलकत्ते में हुआ था.’
बोलते-बोलते रुके. मेरी ओर देखा और फिर मेरी परीक्षा लेने जैसे अंदाज़ में पूछा- ‘यह बताओ कौन है तो मानें.’ पता नहीं सबसे बाएं माइक के सामने बैठकर कविता पढ़ते इस दुबले-पतले युवक की किसी बात को यादकर हँस रहे हैं या फिर मुझे पहचानने की उलझन में देख ख़ुश रहे हैं. जैसे ज़्यादा प्रतीक्षा करने को तैयार नहीं वे – ‘अरे भाई, ये मैं हूँ.’ जिज्ञासुभाव से भरा देर तक ग़ौर से चित्र को देखता हुआ चौंका था मैं – ‘ये आप!’ ‘हाँ, मैं ही तो हूँ. और अब देखो कि…’ उँगलियाँ अगला फ़ोटो दिखाने की इतनी जल्दी में हैं कि ख़ुद ही पलटने में जुट गई हैं चित्रों को. उंगलियों के रुकने पर अब जिस चित्र पर उनकी निगाह आ टिकी है – उसे पहले ख़ुद जी भर देखा जा रहा है. अजीब ललकती-उमगती-सी निगाहों से एकटक देखते रहे हैं काफ़ी देर. मेरी उपस्थिति का ध्यान आया तो धीमी-अटकती-सी आवाज़ में कहा जा रहा है – ‘इसमें देखा आपने? तब तीस बरस का था – और ऐसे खड़े-खड़े घंटों तक कविताएं पढ़ता रहा करता था.’
आवाज़ और मुद्रा में अलग-सी एक उमंग, उमगती-सी एक ख़्वाहिश और टीसती-सी चुभन – ‘उफ, आज तो बैठ पाना भी…इस तरह खड़े होकर तो…’ लम्बी होती जा उनकी चुप्पी के बीच मन हुआ कि नीरजजी के शुरू के दिनों के बारे में जाना जाए. पूछने भर की देर थी कि सुनाई दिया – ‘मैंने 1941 से लिखना शुरू किया और तभी पहली कविता सोहनलाल द्विवेदी की अध्यक्षता में पढ़ी थी. तब नौवीं में था मैं. फिर 1942 में दिल्ली का वो कवि-सम्मेलन. ढूँढ़ते-खोजते संयोजक के पास पहुँचा. उनसे कविता पढ़वाने का आग्रह किया. उन्होंने नाम पूछा तो बताया- भावुक. पूछा कहाँ से आए हो तो कह दिया कि इटावा से. वे बोले ठीक है, शुरू में पढ़वा देंगे. हम भी तो इटावा के हैं. वहाँ ख़ूब जमे. पाँच रूपये इनाम में भी मिले. हाँ-शुरू में भावुक ‘इटावी’ के नाम से ही पढ़ी थईं कविताएं. इटावा के कुछ मित्रों ने कहा कि भावुक नाम अच्छा नहीं है तो बाद में नीरज रखा. और यह न्यूमरोलॉजी और हमारी कुँडली के हिसाब से इतना बढ़िया बैठा कि हम फिर नीरज ही हो गए.’
सिंगसिंग ने अब अपेक्षाकृत छोटा-पतला एक अन्य अलबम दिखाने के लिए हाथ में लिया है. नीरजजी मसनद के सहारे पीठ टिकाकर लेटे-से हुए हैं कुछ देर को. कमर कुछ सीधी हुई सी लगी है शायद. इसलिए कराह के साथ उठे हैं और बीड़ी सुलगाई है. अलबम खोले जिस चित्र को सिंगसिंग देखने में लगा था- उस पर मैंने भी उड़ती-सी नज़र डाली- बनियान पहने बैठे एक दाढ़ी वाले नाटे-से व्यक्ति को आह्लादित मुद्रा में अपनी बाँहों में लपेटे बैठे थे नीरज जी उस चित्र में. इस बार परीक्षा में प्रथम श्रेणी से आने वाले जोश एवं इरादे से मैंने कहा – ‘ये तो काका हाथरसी ही है न!’ फ़ोटो देखने के बाद जिस तरह मुझे देखा उसका साफ़ अर्थ था कि यदि पहचान नहीं पा रहे तो सुनने का धैर्य और इंतज़ार तो मत खोओ – ‘ये स्वामी चैतन्य कीर्ति हैं, ओशो आश्रम का है…’ सुनने के धैर्य की बात न भी आई होती तब भी आगे जो हुआ, वह होना ही था. ओशो या उनके आश्रम का ज़िक्र आते ही वो वहाँ की अपनी यात्रा, ओशो द्वारा अपनी पुस्तक की भूमिका उनसे लिखवाने आदि के बारे में ज़रूर बताएंगे. यह भी कि एक औरत के ख़ास प्रश्न के उत्तर में एकांत के क्षणों में नीरज ने ये दर्शनपगी पंक्तियाँ सुनाई थीं – ‘जितना कम सामान रहेगा, उतना सफ़र आसान रहेगा.’
उस चित्र को पलटने से सिंगसिंग को उन्होंने नहीं, मैंने रोका था. फ़ोटो के अधिक पास पहुँछ जाना चाहा था अचानक से फैलकर बहुत बड़ी हो चली मेरी उन आँखों ने. आनंद में पगी डूबी आवाज़ – ‘हाँ, ये साध्वी प्रज्ञा हैं. उसी आश्रम में.’ प्रज्ञा के साथ पत्थर की बेंच पर बैठे नीरज जी. चेबरे पर अजीब वो रंगत. हकबक-सा मैं पता नहीं किस नाप-जोख और तोल-मोल में लग गया. स्त्रियों को लेकर चर्चाओं में रहे नीरज की प्रेमिकाओं में से यह भी कोई एक हों शायद. फ़ोटो को देखते-देखते मेरी निगाहें जल्दी से जल्दी यह तौल लेना चाहती थीं कि एक-दूसरे को अपनी बाँहों में बाँधे-बाँधे सटे खड़े होने के इन क्षणों में इन दोनों में से कौन कितना खुला, खिला, प्रसन्न और धन्य है.
पर अंदर से ठुनकते-रोते आते उस बच्चे मे ज़रा देर में वहाँ का सब कुछ बदल दिया था. सिंगसिंग से उसे ख़ुद की गोद में ले लिया गया है – ‘देखो, प्यारा है – ये बाबा हमारा. अब देखो भागेगा- बदमाशी करेगा-उल्लू का पट्ठा. कल मेरी उँगली काट ली थी इसने.’ बिल्कुल बच्चा होकर, बच्चे की तरह तुतलाकर बातें शुरू की ही थीं कि – ‘अरे, लो भई इसने पेशाब कर ली.’ उस बच्चे के सौभाग्य पर ख़ुश होने के बीच मैं सोच रहा था कि क्या नीरजजी को अपने पुत्र गुंजन के संग इस तरह खेल की फुर्सत मिली होगी? जी-अजीब-सा रिश्ता है सिंगसिंग का नीरजजी से. बचपन से यहीं पला. यहीं शादी हुई. इस घर में आए हर बदलाव का साक्षी रहा. नीरजजी का ए.डी.सी., ड्राइवर, रसोइया, पुतइया, सेवक, अभिभावक, इलेक्ट्रिशियन आदि न जाने क्या-क्या बनकर रहा है वह. अब उसकी पत्नी ज्योति ने आकर उसके कई काम बाँट लिए हैं. उसका असली नाम-सुरेंद्र-का बहुत कम लोगों को पता है. और अब तो इस सिंगसिंग का महत्व इसलिए और बढ़ गया है कि नीरजजी ने उसे अपने घर का विधिवत केयर-टेकर भी घोषित कर दिया है – यानी उनके बाद इस घर की देखभाल सिंगसिंग ही करेगा. सिंगसिंग बच्चे को उसकी माँ के पास छोड़ने गया है. अपन कपड़ों या बिस्तर के भीगने से बेफ़िक्र नीरज बच्चे के रोने की हँसी उड़ा-उड़ाकर हँसे जा रहे हैं. सिंगसिंग अंदर से आया तो जैसे उन्हें भी पेशाब जाने की याद हो आई. कराह कुछ तेज़ हुई है. उनको टॉयलेट तक ले जाना भी तो सिंगसिंग को ही है. सबसे अधिक और ठीक-ठाक यह केवल वही जानता है क नीरजजी को उठाने-बैठाने, लिटाने-सुलाने या कहीं दूर-पास तक ले जाने के पहले क्या-क्या किया जाना ज़रूरी है. इसलिए पेशाब आने की बात सुनकर ही मगन-मन लग गए जनाब उन्हें पकड़कर टॉयलेट तक पहुँछाने की तैयारी में.
सिंगसिंग के कंधे पर हाथ रखे हाँफते-कराहते से लौटे हैं. कोई गीत गुनगुनाता लौटा था सिंगसिंग. न जाने क्या सनक सवार हुई कि कह बैठा – ‘अब फ़िल्म का भी तो बताओ सर को कुछ बाबा!’ मैं हिचका क्योंकि जानता हूँ कि फ़िल्म की चर्चा शुरू होते ही अब मुझे देर तक धैर्य के साथ काफ़ी कुछ सुनना ही सुनना होगा. जैसे यह कि फ़िल्म क्षेत्र में उनका पदार्पण 8 फरवरी 1960 को हुआ. ‘कारवाँ गुज़र गया’ की लोकप्रियता के कारण उन्हें ‘नई उमर की नई फ़सल’ के लिए अनुबंधित किया गया. कुल फ़िल्मी जीवन पाँच वर्ष का रहा. सत्तर में फ़िल्म फ़ेयर अवॉर्ड मिला. उस दौर में उन्होंने तक़रीबन 125-130 गीत लिखे- जिसमें से लगभग 120 लोकप्रिय हुए. फ़िल्म में उन्होंने भाषा एवं रूप के स्तर पर अनेक मौलिक प्रयोग किए. इस बीच रुककर हँसा जाएगा और हँसी के साथ कहा जाएगा – ‘पता है-वहाँ हमारे बारे में मशहूर हो गया था कि यदि गीतों को हिट और पिक्चर को फ़्लॉप कराना है तो नीरज से गीत लिखवा लो.’ फिर डूब-झूमकर कुछ गीत गुनगुनाए-सुनाए जाएंगे. राजकपूर, आर.सी.चंद्रा, देवानंद, आर.डी.बर्मन, गुरूदत्त आदि के साथ और लगाव को ख़ूब मन से याद किया जाएगा. उस सबके बाद यह ज़रूर बताया जाएगा कि उनके लिखे गीत पर राजेन्द्र भाटिया इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने अपनी गाड़ी की चाबी नीरजजी को सौंप दी थी. उससे वो अनेक बार बम्बई तक आए-गए.
उनके उस बताते जाने के क्रम को थामने-बदलने के लिए ही किया गया था यह सवाल – ‘वो जो स्कूटर था, कार से पहले…?’ सारा रंग-ढंग, बोलते जाने का अंदाज़ अचानक एकदम बदल गया. लगा कि यह नहीं पूछना था शायद. सिंगसिंग को फटकारा जाना शुरू – ‘कबाड़ा कर दिया है उसका. कभी न साफ़-सफ़ाई, न देखभाल. कब से खुले में खड़ा है. भीगता रहता है बारिश में. इतना अच्छा स्कूटर था कि….’ सिंगसिंग के साथ उसे देखने गया. देखा तो मुझे भी लगा कि नहीं – इसे सँभालकर रखा ही जाना चाहिए. यह ऐसे रख दिए जाने योग्य नहीं है – आख़िर यह है तो नीरज का स्कूटर न!
हम लोगों के लौटने तक उनका मलाल ख़त्म नहीं हुआ था. पर ग़ुस्सा थोड़ा कम हुआ. अब उनकी बातों का रूख़ स्कूटर की ओर मुड़ चला था – ‘नहीं – याद आया, कार उससे पहले 1978 में आ गई थी. वो स्कूटर 1990 में ख़रीदा था. हाँ-उससे पहले साइकिल थी. एक मोपेड भी ली थी. हाँ, गिरा था स्कूटर से. नुमाइश जा रहा था. बस से टक्कर हो गई. मैं बाल-बाल बच गया – स्कूटर दब गया था बस के नीचे. हाँ-हाँ उससे पहले मोपेड भी टकराई थी एक बार. अँधेरा इतना था कि रास्ते में रखा वह लोहे का बड़ा-सा कूड़ेदान दिखा ही नहीं. गिर पड़ा. सिर में चोट लगी थी. वहीं बेहोश हो गया था. एक सिपाही ने देख लिया था सो उसने बिठाए रखा था कुछ देर.’ ऐसे निर्लिप्त भाव से बताया जा रहा है जैसे वह सब किसी और के साथ घटा हो.
क्या आप अभी भी ड्राइव कर सकते हो? ‘हाँ…हाँ…क्यों नहीं?’ तब जैसे न उन्हें अपने किसी दर्द का ध्यान रहा, न अपनी उम्र का. राम जाने कहाँ से आ गया उतना दम कि बड़ी फुर्ती से बिना किसी का सहारा लिए खड़ा होने की कोशिश की. स्कूटर पर चढ़ पाना संभव नहीं लगा तो सिंगसिंग को मदद के लिए पुकार लगी. और मेरे देखते-देखते ही झट पास खड़े मेरे स्कूटर पर जा बैठे. चाबी घुमाई और स्टैंड पर खड़ी हालत में उसे स्टार्ट भी कर दिया. सब कुछ भूल कर नीरजजी के एकदम से बच्चा जैसा हो जाने पर मैं भी हँसे जा रहा था और सिंगसिंग भी. नीरजजी तब पता नहीं क्या सोच थे- पर न जाने मुढे अचानक क्या हुआ कि उनके जोश जज़्बे और हिम्मत की मन-मन तारीफ़ करते-करते मैं भी स्टैंड पर खड़े उस स्कूटर पर ऐसे लटक लिया था जैसे सचमुच नीरजजी उसे चला रहे हों और गीत गाता-सा वह फर्राटे भरे जा रहा हो.
स्कूटर से उतरने के बाद भी थकान या किसी दर्द-वर्द का दूर-दूर तक कोई अता-पता नहीं. सिंगसिंग को आदेश हुआ पास में रखे उस अंतिम अपेक्षाकृत आकार में छोटे-से अलबम को दिखाए जाने का. अजीब संयोग था कि नीरजजी के जीवन से जुड़े जिस व्यक्ति की मैं उन्हें याद दिलाना चाहता था, अलबम में पहला फ़ोटो उन्हीं का था.
कौन जाने कि उस फ़ोटो को देखकर वे तब क्या सोच रहे थे. फिर एक पल बाद कहा, ‘पहचान लिया न? सावित्री है. पत्नी के साथ का अकेला है यह फ़ोटो. ज़िंद करके खिंचवाई थी सावित्री ने. अनपढ़ थी- पर बहुत भोली-भाली. कंजूस इतनी कि मुझे सब्ज़ी ख़रीदने न जाने देती कि तुम अठन्नी ज़्यादा दे आओगे. ख़ुद नहीं खा सकती, पर न जाने कितनी ग़रीब लड़कियों की शादियाँ कराईं. अंदर वाला वो उनका मंदिर तो आपन देखा है न! मैं पूजा नहीं करता पर इसकी देखभाल साफ़-सफ़ाई सब पूर्ववत जारी रखे हुए हूँ.’ इन यादों ने उनके चेहरे को दुखी-दुखी-सा बना दिया था – ‘मुझे मालूम है कि सावित्री को मेरे कारण जीवन भर दुख भोगना पड़ा और जिसके लिए आज तक मैं स्वयं को क्षमा नहीं कर सका.’ यह सब सुनने के बीच मुझे डॉ. मनोरमा शर्मा का ध्यान हो आया था. ध्यान आने के बाद मैंने यह भी सोचा था कि इन क्षणों में यह तय है कि नीरजजी को सावित्रीजी के साथ हाल में ही दिवंगत हुई अपनी दूसरी पत्नी का ध्यान ज़रूर आ रहा होगा. बहुत पहले इस बाबत पूछने पर नीरजजी हिचकते-बचते थे. पर बाद में अपनी ज़िंदगी के इस रहस्य को भी उन्होंने सार्वजनिक कर दिया था – ‘हाँ- मेरी दूसरी पत्नी थीं. वो आगरी में रहती थीं. संतान भी है उनसे. चालीस से अधिक सालों से सारे दायित्वों का निर्वाह कर रहा हूँ.’
अगले छाया चित्र पर दृष्टि पड़ी तो नीरजजी के कमरे में टँगी ओशो, मदर टेरेसा, आनंदमयी माँ और कृष्ण की तस्वीरों के साथ टँगी एक बुज़ुर्ग महिला की तस्वीर की याद हो आई. आहिस्ता-से कहते हैंस ‘हाँ-मेरी माँ हैं ये. ये जो टीका है और राम-राम लिखा है – वैष्णव भक्त थीं वो. माँ का बड़ा योगदान रहा मेरे जीवन में. बड़ी सुंदर आवाज़ थी उनकी. गज़ब की आस्था थी उनमें. छियालीस वर्ष का वैष्णव जीवन आस्था के बल पर काटा उन्होंने. आज भी उनका आशीर्वाद है हम पर. हम जब बाहर जाते हैं तो उनकी तस्वीर को प्रणाम करके जाते हैं.’ डबडबाई-सी आँखें. डगमग होते शब्द. माँ को याद करते हुए नीरजजी की आँखों में जैसे उनका बचपन लौट आया है.
(सभी तस्वीरें डॉ.प्रेम कुमार के सौजन्य से)
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